गांव के पुराने घर में रामदीन और उनकी पत्नी, शांता, अपनी ढलती उम्र के साथ वक्त बिता रहे थे। उनके बेटे मोहन की शादी को अब दो साल हो गए थे, और वह शहर में अपनी पत्नी के साथ रहता था। गांव में किसानी और छोटे-मोटे कामों से जैसे-तैसे गुजर-बसर चल रही थी, लेकिन बढ़ती उम्र के साथ उनकी सेहत भी उनका साथ नहीं दे रही थी।
रामदीन और शांता को बेटे से बड़ी उम्मीदें थीं कि वह किसी दिन गांव लौटेगा और उनका हालचाल पूछेगा, उनके पास बैठकर बातें करेगा। लेकिन महीनों से न कोई खत आया था न ही फोन। वह दिवाली का त्योहार नजदीक था और गांव में त्योहारी रौनक बिखरी हुई थी, लेकिन उनके दिलों में यह रौनक न के बराबर थी। हर साल की तरह इस बार भी उन्होंने सोचा कि बेटा-बहू आएंगे और एक साथ दिवाली मनाएंगे, लेकिन दिल का यह सपना हर बार की तरह अधूरा ही रह गया।
शहर में मोहन और उसकी पत्नी सीमा अपने कामकाज और आरामदायक जीवन में व्यस्त थे। दोनों के पास अच्छे वेतन वाली नौकरियां थीं, एक सुंदर अपार्टमेंट था, और जीवन में वह हर सुविधा थी जिसकी उन्हें चाहत थी। त्यौहारों में सीमित छुट्टियों के कारण गांव जाकर समय बिताना उनके लिए कठिनाई भरा लगता था। सीमा ने तो कभी गांव का जीवन न देखा था, और मोहन का भी अब शायद गांव की ओर लौटने का मन नहीं करता था।
एक दिन शांता ने रामदीन से कहा, “इस बार भी मोहन नहीं आएगा क्या? मैंने सोचा था, शायद बहू पहली बार दिवाली पर हमारे साथ होगी।”
रामदीन ने पत्नी को सांत्वना देते हुए कहा, “कौन जानता है, कभी आ ही जाएं। हमारी औलादें बड़े शहरों में अब खुशहाल हैं, हमें तो उनके अच्छे जीवन का ही सुकून है।”
गांव में दिवाली की तैयारियाँ शुरू हो चुकी थीं। लोगों ने अपने घर सजाने शुरू कर दिए थे। रामदीन और शांता के पास इतने पैसे नहीं थे कि वे नया सामान खरीद सकें या अच्छे से घर सजाएं। दोनों ने मिलकर जो थोड़े-बहुत पुराने दीपक थे, उन्हें साफ किया और घर के बाहर रखने की तैयारी की।
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दूसरी ओर, शहर में सीमा ने दिवाली की खरीदारी के लिए मोहन से कहा, “सुनो, हमने अब तक घर में सजावट का सामान नहीं लिया। इस बार कुछ नई चीजें लेते हैं, यह दिवाली खास होनी चाहिए।”
मोहन ने सहमति में सिर हिलाते हुए कहा, “बिल्कुल, इस बार कुछ अच्छा करते हैं। सोच रहा हूँ, अपने ऑफिस के दोस्तों को भी बुला लें।”
दोनों ने मिलकर दिवाली के लिए खूब खरीदारी की। सीमा ने घर को सुंदर रंग-बिरंगी लाइटों से सजाया और महंगे कैंडल स्टैंड्स रखे। पूरे घर में सजावट और उत्सव का माहौल बना दिया।
उधर, गांव में शांता ने चूल्हे पर मिठाई बनाने की तैयारी की। उनके पास अधिक सामग्री नहीं थी, तो वह अपने हाथों से बने लड्डू और चकली बनाकर दिवाली मनाना चाहती थी। जब वह मिठाई बना रही थी, तो रामदीन ने उसे देखा और कहा, “इस बार दिवाली के लिए थोड़ा भी नया कपड़ा नहीं लिया। हमारे पास जो है, उसी में खुश रह लेते हैं।”
शांता ने मुस्कुराते हुए कहा, “हमारे पास हमारे बेटे की खुशी है, उसी का सहारा है। कपड़े पुराने हों या न हों, दिल में उसकी याद तो नई है।”
शाम होते-होते गांव में दिवाली का रंग चढ़ गया। लोग अपने घरों में दीप जलाकर और पटाखे फोड़कर त्योहार मना रहे थे। रामदीन और शांता ने घर के बाहर चार-पाँच दीप जलाए और पुराने कपड़ों में ही बैठे रहे। उनकी आँखों में एक गहरी उदासी थी, लेकिन वह उसे एक-दूसरे से छिपाते रहे।
शहर में मोहन और सीमा के घर भी चमक रहे थे। सभी मित्र और रिश्तेदार आए हुए थे। रंग-बिरंगी रौशनी और नए-नए पकवानों के बीच दोनों बहुत खुश थे। दिवाली का पूरा आनंद ले रहे थे। लेकिन जब सीमा का ध्यान मोहन की ओर गया, तो उसे उसके चेहरे पर हल्का सा तनाव दिखाई दिया।
सीमा ने मोहन से पूछा, “क्या हुआ? तुम इतने चुप क्यों हो? कोई बात परेशान कर रही है क्या?”
मोहन ने कुछ सोचते हुए जवाब दिया, “पता नहीं, बस गांव की याद आ रही है। माँ और पिताजी के साथ दिवाली मनाए हुए कितने साल हो गए हैं। उन्होंने भी इस बार कितनी उम्मीद की होगी कि हम वहाँ होंगे।”
सीमा ने थोड़ी देर चुप रहकर सोचा और फिर बोली, “सच में, हमें कम से कम दिवाली जैसे त्योहार पर तो उनका साथ देना चाहिए था। मुझे खेद है, मैंने कभी इस पर ध्यान नहीं दिया। क्या हम अभी भी वहाँ जा सकते हैं?”
मोहन ने एक गहरी सांस ली और कहा, “यहाँ सब तैयारियाँ हो चुकी हैं, लेकिन अगले साल हम कोशिश करेंगे कि गाँव चलें और माँ-पिताजी के साथ दिवाली मनाएं।”
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रात को जब सभी मेहमान चले गए और मोहन और सीमा अकेले रह गए, तो उन्होंने फिर इस विषय पर बात की। दोनों ने एक-दूसरे से वादा किया कि अगले साल वह गाँव जाकर माता-पिता के साथ दिवाली मनाएंगे। मोहन ने तय किया कि वह माँ-पिताजी को महीने के अंत में थोड़ी आर्थिक मदद भेजेगा, ताकि उनकी जरूरतें पूरी हो सकें।
गांव में दिवाली की रात भी लगभग बीत चुकी थी। रामदीन और शांता ने अपने छोटे से घर में शांतिपूर्वक दीयों की रोशनी के बीच इस उम्मीद के साथ सो गए कि शायद उनके बेटे को उनकी याद आएगी।
कुछ समय बीता, मोहन ने अपने वादे को निभाने के लिए कदम उठाए। उसने माँ-पिताजी के लिए नियमित रूप से पैसे भेजने शुरू कर दिए और उनके पास फोन कर उनसे उनका हालचाल पूछने लगा। गाँव में इस छोटे-से प्रयास ने रामदीन और शांता के जीवन में नई उम्मीद जगा दी। वे अब धीरे-धीरे अपने कठिन जीवन में एक नई ऊर्जा और अपने बेटे के प्यार का अनुभव करने लगे।
अगले वर्ष जब दिवाली का समय आया, तो मोहन और सीमा ने अपना वादा निभाया। उन्होंने शहर की भागदौड़ को छोड़कर गाँव जाने का फैसला किया। जैसे ही वह गाँव पहुँचे और अपने माता-पिता के सामने खड़े हुए, रामदीन और शांता की आँखों में खुशी के आँसू थे। इस बार गाँव में उनकी दिवाली में एक नई रोशनी थी, जो सिर्फ दीयों की नहीं, बल्कि एकजुट परिवार के प्यार और अपनेपन की थी।
इस बार, रामदीन और शांता को केवल उनके बेटे-बहू का साथ नहीं, बल्कि यह विश्वास भी था कि अब उनकी बुढ़ापे की जिंदगी सुखमय होगी। मोहन और सीमा ने महसूस किया कि माता-पिता के साथ बिताए पल ही असली त्यौहार हैं, जो शहर की रौनक और धन से कहीं अधिक मूल्यवान होते हैं।
रिद्धिमा पटेल