सच्ची हक़दार – करुणा मलिक : Moral Stories in Hindi

अम्मा, करवा चौथ आ रहा है । इस बार मेरे और  दीदी के लिए सूट कब दिलवाओगी? 

ले आओ  बहू पर तुमने तो आज तक करवा चौथ पर मेरी तरफ़ से ख़रीदा कोई सूट सिलवाया ही नहीं । तुम अपनी पसंद से लाती हो फिर सारे सूट क्यों जमा कर रही हो ? 

सिलवाने का बड़ा झंझट रहता है अम्मा! मैं तो इस बार रेडिमेड सूट लाऊँगी । दुकानदार ही ऑल्टर करवा देता है । 

अगले ही दिन  जब सुभादेवी को पता लगा कि वर्षा की आज छुट्टी है तो उन्होंने  सुबह ही अपनी बहुओं से कहा—-

पंकजा, वर्षा , तुम दोनों नाश्ता करके बाज़ार चली जाओ । दोपहर का खाना मैं खुद बना लूँगी । करवा चौथ के लिए सूट और दूसरा सामान ले आओ । शाम के समय बाज़ार में भीड़ भी ज़्यादा हो जाती है और बच्चे घर में होते हैं । और हाँ, ये लो पाँच हज़ार रुपये, दोनों के लिए हैं । 

दस बजे के क़रीब दोनों बहुएँ बाज़ार के लिए निकल पड़ी । दोपहर के खाने का सारा प्रबंध सुभादेवी ने कर लिया । डेढ़- दो बजे के क़रीब बच्चे स्कूल से आ गए और उन्होंने पोते- पोतियों को खिला- पिलाकर सुला दिया । तीन बजे के क़रीब दोनों बहुएँ हाथों में बड़े-बड़े पैकेट उठा कर आई।

बड़ी देर लग गई? चलो , पहले कपड़े बदल कर हाथ- पैर धोकर खाना खा लो , सुबह नाश्ता करके निकली थी । मैं भी तुम्हारा इंतज़ार ही कर रही थी ।

अम्मा! आपने तो खा लिया होगा? 

कहाँ खाया , पहले बच्चों का इंतज़ार करती रही फिर सोचा , चलो तुम्हारे साथ खा लूँगी । 

पर अम्मा….. वो वर्षा कहने लगी कि चलो छोले- भटूरे खा लेते हैं तो हमने तो…..

क्या…. तुम दोनों सड़क पे खड़ी होकर खाके आई ? अरे , बाज़ार के खाने थे तो ले आती , किसी ने देखा होगा तो क्या कहेगा ? पंकजा , तू तो बड़ी थी , तुझे तो अपने बाबूजी का स्वभाव पता है । 

अरे अम्मा, इतना हाय- तौबा क्यों कर रही हो ? हमने कौन सा यहाँ मोहल्ले के बाज़ार में खाया है? हम तो शास्त्री नगर के मॉल में गए थे, वहीं खाए । पंकजा दीदी आप भी ना , कितना डरती हैं ।

वर्षा , ये डरने की बात नहीं होती । हर घर- परिवार के कुछ नियम होते हैं और उन्हें जानना समझना चाहिए । हमें कोई परहेज़ नहीं, तुम्हारे घूमने – फिरने पर , बस तुम्हारे बाबूजी को पसंद नहीं कि सड़क पर खड़े होकर खाएँ । यहाँ तक कि वे खुद भी सारे नियम मानते हैं । 

चलो ठीक है तुम दोनों को तो भूख नहीं, पंकजा! मेरे लिए खाना लगा दे ….

खाना खाने के बाद सुभादेवी ने सामान दिखाने के लिए कहा तो बड़ी बहू पंकजा ने अपना सूट , चूड़ियाँ, नए बिछवे आदि दिखा दिया पर वर्षा बोली—-

अम्मा, यही सब कुछ मैं लाई हूँ, इस बार हम दोनों ने ही सिले- सिलाए सूट ले लिए । थोड़ी सी फिटिंग करवानी पड़ी इसलिए तब तक छोले- भटूरे खाने बैठ गए थे । 

हाँ – हाँ, मैं समझ गई कि मॉल के अंदर बैठकर खाए हैं, वहाँ की मुझे कोई परेशानी नहीं ।

अगले दिन जब वर्षा ऑफिस चली गई तो बातों- बातों में पंकजा ने सास को बताया—-

अम्मा,  वर्षा ने तो अपने लिए महँगा सूट खरीदा है । कहने लगी कि अम्मा के दिए ढाई हज़ार में मेरा सामान नहीं आएगा, मैं अपने पैसे मिलाकर अपने लायक़ सूट ख़रीद लेती हूँ । आप तो घर में रहती हैं ना तो आपके लिए तो बहुत हैं ये पैसे । आप तो उसकी आदत जानती हैं।

तुझे अपना सूट पसंद है या नहीं? नहीं तो दुबारा जाकर बदल लेना या एक ओर ख़रीद लेना । 

नहीं अम्मा, मुझे पसंद है और मैं इतनी तड़क-भड़क का पहनती भी नहीं ।

सुभादेवी ने याद किया कि छोटी बहू वर्षा हमेशा ही किसी न किसी बात से पंकजा को यह अहसास करवाती रहती थी कि वह पंकजा से अलग है । 

उन्हें याद आया कि शादी के बाद जब वर्षा  अपने पहले करवा चौथ पर मायके गई तो वापसी पर उसने पंकजा के सामने शेखी मारते हुए कहा——

मम्मी ने दस हज़ार की तो साड़ी दिलवाई है मुझे, बाक़ी सामान रहा अलग । उनको पता है कि मैं ऐसा- वैसा कपड़ा तो पहनती नहीं । अब बाहर जाती हूँ, घर में रहने वाले तो कैसा भी पहन लें  , फ़र्क़ नहीं पड़ता ।

अच्छा….. तभी तुम्हारी मम्मी ने सास की साड़ी सस्ती सी भेज दी , सोचा होगा कि घर में ही तो रहती है । पर वर्षा, उनका दामाद तो बैंक मैनेजर है , उसके लिए ऐसे पैंट- क़मीज़ ? बेटा , अपने हिसाब से सब अच्छा पहनते और ख़रीदते हैं । इस तरह की बातें नहीं किया करते कि किसने क्या पहना , क्या दिया ?

उस दिन सुभादेवी ने बात पे बात बोल दी और वर्षा को समझाने की कोशिश की पर वर्षा आदत से मजबूर, पंकजा को ज़ाहिर कर देती कि वह कमाती नहीं है ।

वो तो पंकजा ही इतनी समझदार है कि छोटी समझ कर उसकी बातों को अनसुना और अनदेखा करती रहती है वरना आजकल कौन किसकी सुनता है । 

वर्षा को तो शायद याद भी ना हो कि वह अपने बच्चों के स्कूल कब गई थी, उनकी अध्यापिकाओं ने मीटिंग में क्या चर्चा की । हाँ, अच्छे नंबर आने पर वर्षा मिठाई का बड़ा सा डिब्बा लाकर कहती—-

लो दीदी, मुँह मीठा करो । अंश और आरुषि फस्ट आएँ हैं, अपनी क्लास में । 

और पंकजा मुस्कुराते हुए कह उठती —-

हाँ वर्षा, अंश , आरुषि, आरव और अनन्या हमारे चारों ही बच्चे अपनी-अपनी क्लास में फस्ट आएँ हैं । 

वर्षा अंश और आरुषि के लिए नई- नई ड्रेस लाती पर आज तक कभी जेठानी या उसके बच्चों के लिए पाँच रुपये भी खर्च नहीं किए । सुभादेवी जानती थी कि अंश और आरुषि ताई और बड़े भाई- बहन से बहुत प्यार करते हैं । तभी तो एक दिन छोटी आरुषि अपने कमरे से कोई स्पेशल सी नमकीन लेकर दौड़ती हुई आई और रसोई में ताई के पास जाकर उन्हें मुँह खोलने का आग्रह करते हुए बोली ——

बड़ी मम्मी, खाकर देखो कितनी मज़ेदार है मम्मी लाई हैं । 

सुभादेवी जानती थी कि वर्षा अपने कमरे में चोरी- छिपे खाने- पीने का सामान रखती है, रात में पानी रखने के नाम पर छोटा सा फ्रिज भी दूसरे मक़सद से रखा है । 

एक तरफ़ पंकजा है कि दोपहर में बच्चों को नैतिक मूल्यों की शिक्षा देने के लिए छोटी-छोटी कहानियाँ लिखकर रखती है ताकि बच्चे अच्छी बातें सीखें । यही कारण था कि खाना खाकर , ब्रुश करके चारों बच्चे पंकजा के कमरे में पहुँच जाते और नई कहानी सुनकर ही सोने जाते । उस समय वर्षा सबसे बेख़बर अपने मोबाइल पर लगी रहती । 

आज तो वर्षा ने हद कर दी । अपनी अलमारी से एक पुराने से बैग में कुछ सूट भरे और रसोई में नाश्ता बनाती पंकजा से बोली—-

दीदी, कल रात अलमारी से कपड़ों की छँटनी की है । इस बैग में कुछ सूट हैं । अब मैं तो बाहर जाती हूँ तो मेरे पहनने लायक़ नहीं रहे । आप तो घर में रहती हैं ना , पहन लेना । आपको तो पता ही है कि मैं ऐसा- वैसा कपड़ा तो पहनती नहीं, महँगे सूट हैं …..अच्छा, मैं निकलती हूँ । 

इससे पहले कि पंकजा कुछ कहती , वर्षा अपने दुपट्टे को लहराती निकल गई । 

—— अम्मा, बताओ बचपने की भी हद होती है । वर्षा ने तो मुझे नौकरानी ही समझ लिया? आपस में कपड़े पहनने में कोई बुराई नहीं पर जहाँ मान- सम्मान हो , तिरस्कार के साथ नहीं ।

बेटा, मूरख है ये वर्षा । तू कुछ मत बोलना , मुझे बोलकर ही समझाना पड़ेगा क्योंकि बिना बोले अक्लमंद तो समझ भी जाए ,पर इसे समझ ना आने वाला । 

सुभादेवी ने सब सोच लिया ।शाम को दोनों बहू- बेटे को बुलाकर और बड़ी पोती अनन्या के साथ छोटे पोते-पोतियों को ऊपर जाकर खेलने के लिए कहा—-

—— देख रोहित, वर्षा को तो मैं बहुत समझा चुकी ।पर ऐसा लगता है कि दुनिया में एक यही नौकरी करती है, और अगर कोई नौकरी नहीं करती तो वो गया- गुजरा है । 

वर्षा ! कल से सुबह अपने बच्चों , अपने पति और अपने लिए नाश्ता तथा दोपहर का खाना खुद बनाना । इनकी ज़िम्मेदारी तुम्हारी है , पंकजा अपने पति- बच्चों और हम दोनों पति- पत्नी  का खाना बनाएगी । पर वर्षा  को रात के समय हम दोनों का खाना भी बनाना पड़ेगा । ऊपर के हिस्से में अपना सामान इतवार तक रख लेना । अभी तक राशन तुम्हारे बाबूजी लाकर देते थे , अब अपना- अपना खर्च करो ….

पर अम्मा! बात क्या हुई? 

इतना पूछना था कि सुभादेवी का सुबह का ग़ुस्सा फूट पड़ा । उन्होंने शुरू से लेकर एक-एक बात कह डाली । अगर वर्षा के मन में पंकजा के लिए अपनापन और सम्मान होता तो आपस में  एक दूसरे का काम करने में या कपड़े पहनने में कोई बुराई नहीं पर अगर इन सबके बिना तुम केवल अपना कूड़ा निकाल रहे हो तो पंकजा या मोहित को फ़र्क़ ना पड़े , मुझे पड़ता है । 

अरे अम्मा! इतनी छोटी-छोटी बातों पर….,

—- नहीं, मैं नहीं चाहती कि ये छोटी-छोटी बातें बड़ा रुप धारण कर ले और रिश्ते बिखर जाएँ। 

वर्षा! ये जो रात- दिन पैसा – पैसा करती हो ना , ये तुम्हारे बच्चों को संस्कार और अच्छी परवरिश नहीं दे सकता । पंकजा  भी कमा सकती है पर कमाई के साथ , अगर परिवार के लिए समय , संतुष्टि , अपनापन और सम्मान नहीं तो पैसा होते हुए भी तुम ख़ाली हाथ रह जाओगी । पंकजा के काम की क़ीमत लगाकर देखना , तुम से कहीं ऊँचे ओहदे पर  और कई गुना अधिक सैलरी की हक़दार मिलेगी । 

भाभी , मैं वर्षा की तरफ़ से हाथ जोड़कर माफ़ी माँगता हूँ । इसकी बातों पर मत जाओ । प्लीज़ भाभी !

ये तेरी भाभी का नहीं, मेरा और तेरे बाबूजी का फ़ैसला है रोहित! 

अम्मा! माफ़ कर दीजिए । इतना तो मैंने कभी सोचा ही नहीं । एक मौक़ा दीजिए । दीदी! मैं अपनी गलती मानती हूँ पर सचमुच मैंने कभी माँ बनकर कुछ नहीं सोचा । क्या एक मौक़ा दे सकती हैं । 

अम्मा! एक मौक़ा तो दुश्मनों को भी दे दिया जाता है ये तो अपने हैं ।चलो , बच्चों को बुलाओ । कब तक खेलते रहेंगे, सुबह उठने में देर लगाएँगे । 

पंकजा, तू गलती कर रही है इसे माफ़ करके , ये सुधरने वाली नहीं है । 

अम्मा, ये सुधरेगी । कितना भी बुरा आदमी हो जब बात अपने बच्चों के भविष्य की आती है तो आदमी को सुधरना ही पड़ता है । और अगर नहीं सुधरी तो आपका फ़ैसला स्वीकार करने में देर नहीं लगाऊँगी । 

धीरे-धीरे समय गुजरा और वर्षा इस बात को जान गई कि छोटी-छोटी बातें हमारे जीवन में कितना महत्व रखती हैं । अब वह ऑफिस जाने से पहले भी पंकजा के साथ सहयोग करती , हर किसी की छोटी- छोटी ख़ुशियों का ख़्याल रखती और सबसे बड़ी बात कि चारों बच्चों के साथ एक सा व्यवहार करती थी । 

देखा अम्मा! मैं ना कहती थी कि वर्षा अपने को ज़रूर बदलेगी । 

लेखिका : करुणा मलिक

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