सारी रात की मूसलाधार बारिश अब तक रिमझिम फुहारों में तबदील हो चुकी थी। श्यामल जी खिड़की के पास कब तक खड़े रहे, उन्हें भान न था । नि:शब्द धुंधलाती बरसती आँखों को चुपके से उन्होंने पोंछा । खिड़की के पास खड़े-खड़े उनके पाँवों में ऐंठन सी होने लगी थी । ‘पापा…. चाय! आप कब जाग गए ?” सुधीर ने कप
पकड़ाते हुए कहा । ‘बस… अभी
अभी नींद टूटी है।’ बेटे से आँखें चुराते हुए कहा । सुधीर के जाने के बाद वे बहुत देर तक सोचते रहे। क्या उनका सुधीर बदल गया था ? इस जमाने की विषाक्त हवा उनके घर भी घुस आई है ? पत्नी की मृत्यु के बाद वे इस एकाकी जीवन से घबरा उठे थे। बहू मीना चाय नाश्ता पकड़ा जाती। खाना परोसकर खिला देती। बच्चों को स्कूल, होमवर्क तथा ट्यूशन से फुर्सत नहीं कि दादाजी के एकाकीपन को दूर कर सके। बेटे के कमरे से हँसने-बोलने की आवाजें आती रहतीं, जिससे यह एहसास होता कि उनका एक भरा पूरा संसार है।
जब भी वे अपने एकाकीपन से घबरा उठते, तभी स्मृति के वातायन से झांकता प्रिया का मासूम सा चेहरा याद आ जाता, जो प्राय: अपने पापा के घायल हृदय पर स्नेहल लेप लगा जाती। अपने पापा के रिसते नासूर को हर क्षण वह महसूस करती। कितनी बार उसने कहा था, ‘चलो न पापा, हमारे साथ रहना! बेटी और बेटे में क्या फर्क ? मैं क्या आपकी आत्मजा नहीं ?” अपने पापा के मन के दर्द को कम करने के लिए वह रोज उन्हें फोन करती। हर बार एक ही अनुरोध ‘चलो न पापा ! ‘
अचानक उनकी तंद्रा टूटी तो उन्होंने प्रश्नसूचक आँखों से सुधीर की ओर देखा । ‘पापा, आपसे कुछ बात करना चाहता
हूँ’, झिझकते हुए सुधीर ने कहा
अपनी उद्विग्नता छिपाकर उन्होंने कहा
‘हाँ… हाँ… बोलो बेटे । ‘ मन ‘पापा, मैं महसूस करता हूँ।
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कि आप अकेलेपन से ऊब चुके हैं। हम सभी अपनी दिनचर्या में व्यस्त हैं। आपका एकाकीपन दूर नहीं कर पाते हैं । ‘ सुधीर ने झिझकते हुए कहा ।
‘क्या करोगे, उम्र के इस मोड़ पर सबों के साथ ऐसा ही होता है। देखो न इन्हीं दिनों के अकेलेपन को मिटाने के लिए तो ये धार्मिक ग्रंथ हैं, डूब जाओ, इनमें फिर बाहरी दुनिया की कोई चिंता न रह जाएगी ।’ सिरहाने रखी ‘गीता’ उठाते हुए श्यामल जी ने कहा । सुधीर अपनी मंशा प्रकट करने में असमर्थ हो उठा। वह बेहद असमंजस में पड़ गया। तभी उसकी दृष्टि परदे की ओट से संकेत करती अपनी पत्नी पर पड़ गयी। श्यामल जी की दृष्टि से कुछ छिपा न रहा। ‘अरे बहू, तुम वहाँ क्यों खड़ी हो ?
अंदर आ जाओ।’ आत्मीयता भरे स्वर में उन्होंने कहा। मीना अंदर आकर चुपचाप खड़ी हो गई। मीना कुछ पल चुपचाप अपनी साड़ी के एक छोर को मरोड़ती खड़ी रही ।
‘क्या बात है कुछ बोलो तो । मीना तुम्हीं मदद करो सुधीर की। वह कुछ बोलना चाहता है, पर बोल नहीं पा रहा । ‘ ‘पापा… असल में बच्चों के बड़े होने से हमारी समस्या बढ़ गई है । इतने छोटे से फ्लैट में एक साथ सभी का रहना अब संभव नहीं । वृद्धाश्रम ही एक ऐसी जगह है, जहाँ हमउम्र के लोगों के बीच आपका मन भी लग जाएगा।’ एक सांस में मीना सब कुछ कह गई। सुधीर अपने पाँव को स्थिर करते हुए अंगूठे से जमीन कुरेदने लगा।
‘धत् तेरी की ! इतनी छोटी सी बात ! खोदा पहाड़ निकली चुहिया ! तुमलोग चिंता न करो, मैं चला जाऊँगा ।’ श्यामल जी
बहुत सहजता से कहा। पति-पत्नी अवाक एक-दूसरे को देखते रहे। उन्हें क्या पता कि उनकी पुत्री स्नेहा ने उनकी योजना से उन्हें अवगत करा दिया था। अपने दादाजी से लिपट कर वह बहुत रोई थी। इसलिए बहू का फरमान सुनकर न बिजली कड़की और न उनपर वज्रपात ही हुआ। स्नेहा के जाने के बाद ही उनपर वज्रपात हो गया था। सारी रात आँखें बरसती रही थीं। अब तो
मन पथरा गया था।
कुछ रुककर उन्होंने वातावरण की वोझिलता हटाते हुए कहा । ‘वृद्धाश्रम जाना तो हम वृद्धों के लिए अब गंगा स्नान की तरह हो गया है। अधिकांश लोग अब जब डुबकियाँ लगा ही रहे हैं तो एक डुबकी मैं भी लगा लूँ । ‘ हंसते हुए उन्होंने कहा । अश्रुपूरित आँखों से सुधीर वहाँ से खिसक गया। तभी सिसकियों की आवाज आई। सबने देखा कि एक कोने में पाँच वर्षीय स्नेहा सुबकियाँ ले रही थी। दादाजी ने अपनी लाड़ली पोती को उठाकर सीने से लगा लिया।
‘दादाजी… मैं भी आपके साथ चलूँगी। यहाँ मुझे प्यार कौन करेगा? मेरा होम वर्क कौन कराएगा ? बस स्टैंड से लाने-छोड़ने कौन जाएगा? मुझे अपने साथ ले चलो ।’ स्नेहा जोर जोर से रोने लगी । ‘तुम्हारे मम्मी-पापा सब करायेंगे, चिंता न करो।’ श्यामल जी ने समझाते हुए कहा । ‘मम्मी-पापा गंदे हैं… मैं उनसे बात नहीं करूँगी।’ स्नेहा ने क्रोधित होकर कहा । ‘ नहीं बेटा, अच्छे बच्चे ऐसा नहीं कहते हैं, दोनों बहुत अच्छे हैं । ‘ श्यामल जी ने उसे चुप कराते हुए कहा ।
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रात तक स्नेहा को ज्वर ने आ घेरा। अपराध बोध से ग्रसित सुधीर तथा मीना उसके सिरहाने बैठे रहे। मीना लगातार बर्फ की पट्टियाँ बदलती रही। सुबह होने पर ज्वर कुछ कम
हुआ । स्नेहा हँसना – बोलना जैसे भूल गई हो । श्यामल जी ने अपने सामान बांध लिए वे स्नेहा की दशा देखकर बहुत दु:खी थे। उनके जाने में अभी दो दिनों की देर थी। सभी स्नेहा के जल्द स्वस्थ हो जाने की कामना कर रहे थे। घर के सामने अचानक एक टैक्सी आकर रुकी। श्यामल जी ने चश्मा पहनकर खिड़की से झांका।
‘अरे यह तो प्रिया है, अपने पति तथा दोनों बच्चों के साथ। अचानक ये लोग यहाँ कैसे?” श्यामल जी मन ही मन बोल उठे। उन्होंने शीघ्रता से अपनी अटैची तथा बैग को पलंग के नीचे छिपा दिया। बरामदे में श्यामल जी अभी पहुँचे ही थे कि प्रिया उनके चरण स्पर्श कर उनके सीने से लग गई। ‘कैसे हो पापा ?’ प्रिया ने पूछा।
श्यामल जी के आहत मन पर मानो स्नेह लेप लग गई हो । मन के अंदर कुछ पिघलने सा लगा, जिसे आँखों की राह बाहर जाने से उन्होंने रोक लिया। यह मन भी अजीब है, कितने वार सह लेता है, पर प्यार का एक हल्का स्पर्श भी सहन नहीं कर पाता। मन की सुप्त भावनाएँ बाहर आने के लिए हलचल मचा देती है । आँखें बेचारी उनका रास्ता आखिर कबतक रोक सकती हैं? ऐसे समय में चश्मा कुछ सहायक होता है ।
श्यामल जी ने अपने संघर्ष के दिन एक छोटे से कमरे के घर में बिताए हैं। दोनों बच्चों को पलंग पर सुलाकर पति-पत्नी फर्श पर बिस्तर बिछाकर सो जाते थे। उस छोटे से कमरे में उन्हें किसी तकलीफ का अनुभव नहीं हुआ। जगह मन में होती है, घर में नहीं। अपने ही घर में उन्होंने दादाजी का सम्मान देखा है।
सभी भाई-बहन उन्हें घेरे रहते थे। घर के संरक्षक, सलाहकार वे ही थे। पिताजी उनकी सलाह के बिना कुछ नहीं करते थे। घर में एक अनुशासन था। अपने ही जन्मदाता को कृतघ्नों की तरह बुढ़ापे में घर से बाहर करने का यह कौन सा नया फैशन चल पड़ा है? आज लोगों को ईश्वर के कोप का भी भय नहीं ?
शाम को टहलने के पश्चात जब श्यामल जी अपने कमरे में गए तो वे अवाक हो गए। बैग तथा अटैची खाली करके सारे सामान यथावत रखे हुए थे। उनकी समझ में आ गया प्रिया से कड़वी सच्चाई छिपाने के उद्देश्य से यह सब किया गया है। उन्हें यह देखकर भी बेहद आश्चर्य हुआ कि आज सुधीर तथा मीना की आँखों में पश्चात्ताप या शर्मिंदगी की झलक न थी ।
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वे पहले की तरह बिल्कुल सामान्य थे। खाने की मेज पर अचानक प्रिया ने कहा, ‘भैया! पापा की सेवा आपने बहुत कर ली। अब हमें यह मौका दें। पापा को हमलोग अपने साथ ले जाना चाहते हैं।’ अपनी प्लेट में सब्जी डालते हुए उसके पति ने कहा, ‘हाँ भई, हमें भी यह अवसर मिलना चाहिए, इस अकेलेपन से हम लोग ऊब गए हैं। बच्चों को भी बहुत अच्छा लगेगा। हमेशा जिद करते हैं। कि नाना को यहाँ लाओ। ‘
सुधीर तथा मीना चौंक गए। दोनों के मन में यह बात उठी कि कहीं वृद्धाश्रम भेजने वाली बात इन्हें मालूम तो नहीं हो गई। उनके कुछ बोलने से पहले ही श्यामल जी बोल उठे, ‘कहीं नहीं जाना मुझे, क्यों परेशान होते हो तुम लोग ?” “मैं भी तो आपका बेटा हूँ। भैया ने अपना दायित्व निभाया, अब मैं भी निभा लूँ।
क्यों पापा मैं भी तो आपका बेटा हूँ। दामाद भी तो बेटा ही होता है, तभी तो आपको मैं ‘पापा’ कहता हूँ । आपका बेटा हूँ या नहीं, बोलिए पापा ?” श्यामल के हाथ थामकर प्रिया के पति सुजय ने कहा ।
सुजय
‘इसमें क्या शक है सुधीर एवं सुजय मेरे दो बेटे हैं’, की पीठ पर हाथ रखकर श्यामल जी ने कहा । ‘चलो न पापा! हम आपको लेने आए हैं, भैया आप अनुमति तो देंगे ? प्रिया बच्चों के समान मचल उठी। मैं अनुमति देने वाला कौन हूँ? ये तुम्हारे भी पापा हैं ।’ सहज होते हुए सुधीर ने कहा । “मैं भी कुछ बोल सकती हूँ, क्योंकि ये मेरे भी पापा हैं’, हँसती हुई मीना ने कहा। अब तक उसका हृदय भी परिस्थितिवश पिघल गया था
‘हाँ भई, इसे भी अपना मत प्रकट करने का अधिकार है।’ श्यामल जी ने कहा ‘पापा, जीवन में मैंने बहुत गलतियाँ की हैं, आशा है आप मुझे क्षमा करेंगे। एक अनुरोध तो मैं भी कर सकती हूँ? कृपया आप स्नेहा की छुट्टियाँ खत्म होने तक अवश्य वापस आ जाइएगा। जैसे स्नेहा आपके बिना नहीं रह सकती है, वैसे ही हम दोनों भी प्लीज पापा मेरे अनुरोध को नहीं टालेंगे।’ अवरुद्ध कंठ से मीना ने कहा ।
श्यामल जी ने अवाक होकर मीना को देखा। बैग तथा अटैची खाली करके सारे समान यथास्थान रखने की बात याद आई। उसके पश्चात्ताप एवं ग्लानि को वे महसूस कर रहे थे। ‘ठीक है, मैं सुजय तथा प्रिया के घर अगर जाऊँगा भी तो महीने भर में लौट आऊँगा। मैं भी तो तुम लोगों के बिना अब रह नहीं सकता
।’ मीना के सर पर हाथ रखते हुए श्यामल जी ने कहा । ‘मम्मी हम लोग जल्दी लौट आएँगे, स्कूल खुलने से पहले ।’ स्नेहा ने खुशी से उछलते हुए कहा । ‘तुम ?’ एक साथ सुधीर तथा
ने आश्चर्य से पूछा । ‘ हाँ ! जहाँ दादाजी जायेंगे, वहीं मैं भी । दादाजी मंजूर है न?” श्यामल जी से लिपटते हुए स्नेहा ने कहा । ‘मैं अगर जाऊँगा…’ श्यामल जी ने इतना ही कहा था कि उन्हें रोकते हुए प्रिया ने कहा, ‘अगर-मगर नहीं, चलो न पापा ! ‘ श्यामल जी के चेहरे पर आत्मतुष्टि के भाव थे। उनकी आँखों में एक चमक थी। बेटी के घर वे जा अवश्य रहे थे, पर लौटने का आश्वासन देकर।
लेखिका : श्रीमति लक्ष्मी रानी लाल