अंधे की लकड़ी – डाॅक्टर संजु झा : Moral Stories in Hindi

 डॉक्टर  रमेश आज  अस्पताल में  मरीज देखते-देखते काफी थक चुके हैं,परन्तु उनके चेहरे पर आत्मसंतुष्टि का भी भाव है।।वैसे तो डॉक्टर रमेश रोज सेवा-भावना से इलाज करते हैं,परन्तु कुछ दिन  पहले की घटना की  ने उनके अंतर्मन को पूरी तरह झकझोर कर रख दिया था। उस दिन  एक औरत उनके पैर पकड़कर रोते हुए कह रही थी -” डॉक्टर साहब!पति और बेटे की मृत्यु तो एक दुर्घटना में हो ही चुकी है।आठ दिनों से मेरी बेटी बुखार से तड़प रही है।दूसरी जगह इलाज से कोई फायदा नहीं हुआ। मेरे पास पैसे नहीं हैं।यही बेटी मुझ अंधे की लकड़ी है! इसे बचा लो।”

डॉक्टर रमेश उस औरत को सांत्वना देकर बच्ची का इलाज शुरु करते हैं।डॉक्टर रमेश का वसूल है कि अत्यधिक गरीब का इलाज वे अपने व्यक्तिगत पैसे से करते हैं।उनके इलाज से  आठ दिन  में ही स्वस्थ होकर बच्ची अपनी माँ के साथ चली गई। माँ और बच्ची के होठों पर खुशी देखकर डॉक्टर रमेश के चेहरे पर भी मुस्कान फैल गई। 

अपने मरीज को खुशी-खुशी विदाकर डॉक्टर रमेश अपने घर आ जाते हैं।अभी डाॅक्टर रमेश की शादी नहीं हुई है।घर पहुँचते ही माँ नूतन चाय बनाकर  लाती है।दोनों माँ-बेटा कुछ देर बातें करते हैं,  फिर माँ कहती है-“बेटा!थके-थके से लग रहे हो?जाकर आराम करो।”

डॉक्टर रमेश अपने कमरे में आ जाते हैं।बिस्तर पर लेटे-लेटे अतीत के पन्नों में खो जाते हैं।दस साल  की उम्र में ही एक दुर्घटना में उनके पिता की मौत हो चुकी थी।उनके परिवार में पिता रुपी अंधे की लकड़ी छिन चुकी थी।बड़ी विषम समस्या आ खड़ी हुई थी।माँ ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थी,मामूली ग्रेजुएट थी।

उनकी एक छोटी बहन भी थी।इस विषम घड़ी में उनकी माँ ने हार नहीं मानी थी।परिवार के लिए अंधे की लकड़ी बनकर खड़ी हो गई। एक प्राइवेट स्कूल में पढ़ाने लगी।पिता की प्राइवेट नौकरी थी,इस कारण पेंशन का भी सहारा नहीं था।जैसे-तैसे जीवन नैया हिचकोले खाती आगे बढ़ रही थी।

रमेश की माँ नूतन की जिन्दगी का एकमात्र लक्ष्य था,दोनों बच्चों को किसी तरह काबिल बनाना।परन्तु नूतन के लिए अभी और परीक्षा बाकी थी। सचमुच मानव विधाता के हाथों का खिलौना मात्र है!अगर भाग्य प्रतिकूल हो तो मनुष्य उसके सामने बेबस,लाचार हो जाता है।वही नूतन के साथ हुआ।एक दिन रात में उसकी बेटी नीरा की तबीयत अचानक  खराब हो गई। बीच रात में अस्पताल जाने के लिए न तो  कोई सवारी मिली और न ही नूतन के पास  अच्छे इलाज के लिए पैसे थे।रमेश  ने अपनी माँ के साथ  रात भर बहन को बुखार से तड़पते देखा था,आखिर सुबह नीरा ने दम तोड़ दिया।

उसी दिन  रमेश ने डॉक्टर बनने और गरीबों की सेवा का प्रण लिया था।

समय से   पहले ही रमेश समझदार हो चुका था।रमेश समझ चुका था कि किस्मत बदलने के लिए  कर्म रुपी कठिन परिश्रम करना होगा।रमेश ने सफलता रुपी ताले की चाभी परिश्रम को अपना लिया।उसे एहसास हो गया था कि माँ के लिए  वही एकमात्र अंधे की लकड़ी बचा हुआ है।उसकी कठिन मेहनत रंग लाई  और उसका चयन मेडिकल में हो गया।दोनों माँ-बेटा काफी खुश थे कि उनका सपना साकार होने जा रहा है,परन्तु उसी समय मेडिकल पढ़ाई का खर्चा सुरसा की भाँति मुँह बाए उनके समक्ष उपस्थित हो गई। 

रमेश ने हतोत्साहित होते हुए कहा -” माँ! मेडिकल कांउन्सलिंग में जाने से क्या फायदा होगा?हम मेडिकल की फीस कहाँ से जुटा पाएंगे?हमारे पास न तो अपना घर है,न ही कोई ठोस आमदनी,तो बैंक से भी लोन नहीं मिलेगा!”

माँ नूतन ने हिम्मत न हारते हुए  कहा -” बेटा! तुम काउन्सिल में अवश्य जाओ। तुम्हारे भाग्य में डॉक्टर बनना होगा,तो  कोई-न-कोई अंधे की लकड़ी बनकर जरुर आ खड़ा होगा।”

नूतन ने तो रमेश को सांत्वना देकर  कांउन्सलिंग में भेज तो दिया,परन्तु सारी रात बेचैनी में जागती रही।

अगला दिन भी नूतन के लिए उधेड़-बुन में ही बीत रहा था।उसी समय किसी ने दरवाजे की घंटी बजाई।कोई अनजान सा व्यक्ति दरवाजे पर खड़ा था।परिचय पूछने पर उसने कहा -” मैडम !मैं जीवन बीमा निगम का कर्मचारी हूँ।आपके पति ने एक पालिसी ले रखी थी,जो बीस साल  बाद पूरी हो गई है।आप हस्ताक्षर कर दीजिए। इस पाॅलिसी के आपको पच्चीस लाख मिलेंगे।”

यह सुनते ही नूतन की आँखों से खुशी के आँसू निकल पड़े।उसने ऊपरवाले की शुक्रिया अदा करते हुए कहा -” हे ईश्वर!तुमने मुझसे कई बार अंधे की लाठी छीनी,परन्तु आज तुमने बीमा की रकम के रूप में एक माँ की अंधे की लकड़ी लौटा भी दी है!शत-शत नमन तुम्हारा।”

समाप्त। 

लेखिका-डाॅक्टर संजु झा (स्वरचित)

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