“अरे वाह दादी, आपने तो मुझे घर की याद दिला दी!” प्रणय ने खुशी से दादी को गोद में उठा लिया।
छोटे से शहर कानपुर का रहने वाला प्रणय मुंबई आया था एम.बी.ए. करने। साथ में तीन सहपाठी और थे। होस्टल न मिलने पर उन्होंने दो कमरे का एक मकान किराए पर लिया था। प्लान यही था कि खाना खुद ही बनाएँगे पर व्यस्त दिनचर्या की थकान के वजह से वे खाना अक्सर बाहर ही खाते या आर्डर कर के घर पर ही मंगवा लेते थे।
बाजार में वे अक्सर चाट खाने जाते। चाट के ठेल के बराबर फूटपाथ पर ही बैठ कर एक वृद्धा फल बेचा करती थी। पास में बैठा एक तीन-चार साल का लड़का कभी प्लास्टिक के कुछ टुकड़ों से तो कभी ईंट पत्थरों से खेला करता।
पता नहीं क्यों प्रणय का ध्यान बार बार उन पर चला जाता। कभी कभार एक-दो गोलगप्पे वह उस बच्चे को भी खिला देता था।
“क्यों दादी, आप यहाँ रोज़ इस बच्चे को लेकर आती हो। घर पर कोई नहीं है क्या?”
“नहीं बेटा, इसके माँ बापू तो ऊँची बिल्डिंग की दीवार ढहने से खतम हो गए। हम बिहार से आए थे रोजी रोटी की तलास में। अब तो हम ही दोनों हैं।”
“आपका घर खर्च निकल आता है इससे?”
जो भी फल सस्ता मिलता, वह खरीद लाती व थोड़े से मुनाफा में बेचती थी दादी।
“चल जाता है बाबू, सौ-दो सौ मिल जाते हैं रोज। रोटी की चिंता नहीं है बाबू, मेरे न रहने पर इस बेचारे का क्या होगा इसी से परेसान रहते हैं हम।”
एक दिन शाम को वृद्धा दिखी नहीं तो उसने चाट वाले से पूछा।
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“उसकी गली की सारी झोपड़ियों को मुन्सिपल्टी ने तोड़ दिया है। सामान सब उठाकर फेंक दिया है। कहते हैं सरकारी जमीन कब्जाए हैं उलोग। वहीं बैठी बिसूर रही होगी बुढ़िया।”
प्रणय को धक्का-सा लगा। वह पता लगा कर वहाँ पहुँच गया। एक गठरी और एक टीन का बक्सा लेकर बैठी दादी आँसू बहाए जा रही थी। बगल में बैठा पोता जोर जोर से रो रहा था।
उसे देख चौंक गई वह।
“यहाँ कैसे बबुआ?” आँसू पोछते हुए वह बोली।
“अब क्या करोगी दादी? कहाँ जाओगी? कोई ठिकाना हो तो बताओ, मैं पहुँचा दूँगा।”
“हम तो बेटा ऊपर ही जाना चाहत हैं पर इस निगोड़े का क्या करें?”
अपनी बात होता देख बच्चा और ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा।
प्रणय फोन मिला कर बात करने लगा। उसने पहले अपने दोस्तों से बात की, फिर मम्मी-पापा से और एक निर्णय ले लिया।
“उठो दादी, अपने नए घर में चलो।”
आश्चर्यचकित सी दादी उसके पीछे-पीछे चल दी। उन्हें लेकर प्रणय अपने घर आ गया।
“ये लो दादी, आज से यही तुम्हारा घर है।” अपने किराए के घर के खाली पड़े स्टोररूम में उसने उनका सामान जमा दिया।
“अब तुम यहाँ रहना, सुबह-शाम हम सब के लिए खाना बना देना और दिन में बाजार में फल बेच लेना। हम छोटे लाल का स्कूल में नाम लिखा देंगे।”
“पर बेटा, मुझे तो गरीब का खाना ही बनाना आता है। आप लोग तो…”
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“काफी है दादी। साफ-सुथरा घर का खाना तो मिलेगा। बाकी हम सिखा देंगे।”
धीरे-धीरे दादी घर के एडजस्ट होती गई व उनके पसन्द का खाना भी बनाने लगी। उसके लिए सबसे खुशी की बात यह थी कि उसके आँखों का तारा, पिंटू, स्कूल जाने लगा था। उसके तनख्वाह के पैसे वे उसके नाम से खोले गए बैंक एकाउंट में जमा कर देते थे।
आज प्रणय का जन्मदिन था। सुबह से ही घर की याद में जब-तब आँखें नम हुई जा रही थीं। अपने घर से बाहर उसका ये पहला जन्मदिन था।
जब वह कॉलेज से वापस लौटा तो घर में कुछ ज़्यादा ही रौनक थी।
‘अच्छा! इनलोगों ने जन्मदिन मनाने की पूरी तैयारी कर रखी है!’
पर तैयारी तो दादी ने कर रखी थी! अंदर आते ही पहले उन्होंने सजी हुई थाल से उसकी आरती उतारी व टीका लगाया। प्रणय ने भावविह्वल हो दादी के पैर छू लिए। माँ की याद आ गई थी।
खाने में भी दादी ने वही सब बनाया था जो माँ बनाती थी.. खीर-पूरी, दम आलू व पनीर की सब्जी! तो घर की याद तो आनी ही थी!
“अरे बेटा, नीचे उतार न! गिर जाएँगे हम!” न जाने कितनी देर से दादी को हवा में उठा रखा था उसने!
“न गिरने दूँगा, न कहीं जाने दूँगा। आप मेरी दादी हो!” कहते हुए प्रणय ने उनके माथे को चूम लिया!
स्वरचित
प्रीति आनंद अस्थाना