डोर विश्वास के – किरण बरनवाल

जिंदगी क्या है, किस चक्रव्यूह  में फंसा कर कैसे निकालती है ,ये तो मानव मन कभी आकलन ही नहीं  कर सकता। टेढी मेड़ी पगडंडियों में ना जाने कितने लोग मिलते हैं , कितने बिछड़ जाते हैं । साथ रह जाती है …सिर्फ  यादें जो कभी रुला जाती है तो कभी होठों पर बारीक सी मुस्कान दे जाती है।

     ननद की बिटिया की शादी थी।  मंडप में  पंडित मंत्रोच्चारण कर रहे थे,विवाह की रस्में निभाते हुए सात वचन के संग दुल्हा दुल्हन आँखो में  सपने लिए गृहस्थ जीवन में प्रवेश करने की तैयारी कर रहे थे।विवाह के लोकगीत से माहौल भावुक हो रहा था ,पर मेरी आँखें तो यहाँ से दूर अतीत के हिंडोले में झूलते हुए  बारबार भर जा रही थी।

एक जोड़ी आँखे सुबह से मेरा पीछा कर रही थी। कैसे सामना करुँ  उनका जो मेरे अंतर्मन में छुपे राज को निकालने की चेष्टा कर रही थी।काश ! इस विवाह समारोह में शिरकत ही ना करती।

चेहरे पर एक के बाद दूसरे भाव आ जा रहे थे,साथ में बैठे लोग थकावट समझ आराम करने की सलाह दे रहे थे,कैसे बताती  उन्हे कि मैं किस मनःस्थिति से दो चार हो रही हूँ ।

उन आँखो से खुद को  बचाने की कोशिश करती,सुदर्शन पति के समीप जा बैठती …देख लो,सुखी गृहस्थ जीवन जी रहीं हूँ   लेकिन दिल जोर जोर से धड़क कर चुगली कर ही देता ,काश तुम मेरे होते तो जिंदगी की कहानी के पन्ने कुछ और होते।

   ननद की बेटी की शादी के न्योते में दौड़ी चली आई थी,किसे पता था जिसे भूलने की जी जान से कोशिश कर रही थी आज वो यहाँ और ऐसे टकरा जाएगा।  समधी मिलन में  यूँ उसे अपनी ओर टकटकी लगाए देख कर अंदर से सिहर उठी थी मैं … छैल छबीले नवयुवक बांका  की जगह रौबदार व्यक्तित्व ने ले ली थी,परंतु वही तिरछी मुस्कराहट जो मुझे कभी एक समय  ना चैन से सोने देती थी ना जागने। रह रहकर उनके पहलू में जाने को दिल बेताब होता ।

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होता भी क्यों नहीं,  एक तो कच्ची  उम्र  थी और उसपर दोनों के परिवार वालों ने भी इस प्यारे से रिश्ते पर मुहर लगा दी थी। सात जन्मों की बातें होती पर जी ना भरता, डाकिया मानो ईश्वर का भेजा दूत लगता था जो मेरे  राजकुमार का खत मुझ तक पहुँचा जाता। पत्र पढ़ती कम थी रोती ज्यादा थी।

     क्यों ऐसा होता है , एक अजनबी अचानक सब कुछ लगने लगता है ,जिसके बिना जीवन की कल्पना भी नहीं कर पाते हम। विवाह की तिथि अगले बरस तय हुई थी।

  इधर हम भविष्य के सतरंगी सपनों को मिलकर बुन  रहे थे उधर विधाता  हमारी किस्मत  कुछ और ही लिख रहा था। जिस सतरंगी सपनों को हम दोनों मिल कर बुन रहे थे वो अधूरी ही रह जाएगी,कभी हमने सोचा ही नहीं था।

  वक्त के थपेडों ने मासूम से दो दिलों  को कुचलने में कोई कोताही नहीं की।ना जाने दोनों के माता पिता में क्या अनबन हुई कि इस रिश्ते को बिना नाम दिये अलग कर दिया गया। रोती भी तो किसके नाम की, उन्होंने भी तो मिलने की ख्वाहिश नहीं  दिखाई जिनपर भरोसा कर सतरंगी सपनों में चाँद तारे टाँक रही थी।

उन  रेशमी एहसासों को तो मैं समय के साथ मार चुकी थी ,समझ गई थी हर रंगीन कंचे अपने नहीं  हो सकते।नहीं हो सकते हैं हर सपने पूरे जो हमारी आँखो ने सुबह शाम देखा है।

       जिंदगी कहाँ रूकती है किसी के लिए।समय ने करवट लिया और अतुल मेरी जिंदगी का हिस्सा बन गये।धीरे धीरे पुराने गम से बाहर निकलकर अपनी गृहस्थी की बगिया सजाने लगी पर दिल के एक कोने में दबी उसकी याद मुझे असहज कर जाती ,सुना था पहला प्यार कभी नहीं मरता ,अब अनुभव कर रही थी चाहे अनचाहे वो मेरे गृहस्थी में  अदृश्य रुप से मौजूद रहता।

   बच्चों के किलकारी और गृहस्थी में खुद को खोते कब जाना था कि जीवन की साँझ में उससे मुलाकात हो जाएगी जिससे मिलने को दिल रोता था ।जिससे मिलने को बेताब रहती थी आज उसी से नजरें चुरा रही थी।

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अतुल को ढूंढती नजरें   भयभीत हो उठी जब मेरा अतीत और वर्तमान एक साथ दिखा । मै मन ही मन व्याकुल हो रही थी ,ऐसा लग रहा था मानों मेरी चोरी पकड़ ली गई है।पति के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर ही रही थी कि उन्होंने   मुझे पुकारा। ना जाने किस डोरी से खींची मैं  वहां  पहुंच गई ,मुझे नहीं पता,अब क्या  होने वाला था।

तभी इन्होंने   कहा ” मेरी पत्नी मेरी जिंदगी की धुरी है, बीस बरसों से इसने  हर पल साथ निभाया है।इसका कल तो मैं नहीं जानता क्या था पर हाँ ये जरुर जानता हूँ  कि आज और आने वाला हर पल मेरे साथ जुड़ा हैं ।”

उनके हाव भाव से एहसास हो गया था मुझे, मेरे अतीत ने मेरे विषय में कुछ गलत कहा है।

मैं  पानी पानी हो रही थी….काश हम मिले ना होते, शर्म से आँखे ऊपर नहीं उठ रहे थे पर इन्होंने मजबूती से मेरा हाथ पकड़ उसकी तरफ मुड़ कर  इन्होंने कहा ” आज मैं आपकी बातों का अच्छे से जवाब  देता अगर आप लड़केवालों  की तरफ से बाराती बन कर नहीं आते।” 

मैंने पतिदेव को जैसे ही स्पष्टीकरण देना चाहा ,उन्होंने मुझसे कहा ” गंगा की सौगन्ध खाकर भी यदि कोई तुम्हारे ऊपर अंगुली उठाये तो मुझे विश्वास नहीं होगा।”

मैं  किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ी बस रोये जा रही थी और दिल कह रहा था ” क्यों आई इस शादी में ??……  किससे दिल लगा बैठी थी मैं  जिसे मेरी मान का कोई ख्याल नहीं था।देवतुल्य पति के सामीप्य में  इसे ही दिल ढूंढा करता था जिसने सरेआम मेरी इज्जत उछालने में एक पल भी नहीं लगाया । काश…काश , इस विवाह में क्या  जिंदगी में ही कभी तुमसे ना मिलती।”

  इन्होंने  मुझसे कहा” आज के बाद इस विषय पर ना तो मुझे तुमसे कोई सफाई चाहिए ना ही तुम्हे आत्मग्लानि का एहसास होना चाहिए।”

    आज मुझे समझ आ रहा था क्यों हमारे परिवार ने उस से रिश्ता तोड़ कर इनसे किया।युवा दिल वह नहीं देख पाता जो अनुभवी आँखे देख लेती हैं ।विश्वास की डोर थामे पति के पहलू में आकर उनकी अर्धांगनी नया जन्म लेकर अतीत को छोड़ नई जिंदगी में प्रवेश  कर रही थी।

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