जेठ में सिर्फ दो दिन बचे हैं और इन्हीं में से किसी एक दिन पीठा चढ़ाना है। कल या परसो। सुंदरी देवी परेशान हैं। सोचती हैं, अपने पति की बात को पहले ही ठुकरा दिया होता तो अच्छा होता। लेकिन वो उनके झाँसे में आ गई। यह बात तो वैसाख महीने में ही उनके कान में आ गई थी कि अपने पूत-भतार के लिए जेठ महीने में सवा किलो के हिसाब से गंगा मैया को पीठा चढ़ाना है। उन्होंने अपने गाँव की औरतों की तरह तुरन्त हिसाब भी लगा
लिया था। ‘सवा किलो मलिकार खातिर, सवा किलो बड़कू खातिर अऊर सवा किलो छोटकू खातिर। माने कुल मिलाके पौने चार किलो।’ और अच्छी बात यह थी कि इसे जोखने भी कहीं नहीं जाना था। उनके पास पत्थर का वह टुकड़ा तो था ही जिसे गाँव भर किलो मानता था।
लेकिन वो गच्चा खा गई और वो भी अपने पति रमेसर पांड़े से । उन्हें तो वे पिछले 40 साल से जानती थीं। पुलिस की नौकरी में रहते हुए शक करने की पड़ी आदत रिटायर होने के बाद भी नहीं छूटी थी। जब पीठा वाली बात उठी तो रमेसर पांड़े ने कहा था ‘ऐसे ही किसी ने उड़ाया है। तुम अभी धीरज रखो और इंतजार करो कि गाँव-जवार क्या करता है।’ तब सुंदरी देवी उनकी बात मान गई थीं, लेकिन गाँव जवार क्यों माने ?
पूछने पर तो सभी कहतीं ‘‘देखतानी का होत बा’’ और अगले दिन जाकर पीठा चढ़ा आती। उन्होंने उंगली पर गिना ‘‘खाली दू परिवार पीठा ना चढवले हउवन, एगो हमार और दूसरे बालू पांड़े के परिवार। लेकिन ऊ घर से का मुकाबिला ? सबेरे के खर्ची बा त राती के नाहीं।’’ उन्होंने तय किया कि कल वे किसी तरह पीठा चढ़ाने जरूर जाएंगी।
यह बात उनके पति रमेसर पांड़े तक पहुंची। पुलिस के आदमी जो ठहरे, भेद लेने में माहिर, जो मिला उनके छोटे बेटे से ‘‘माई काल्ह पीठा चढ़ावे जाई।’ रमेसर पांड़े ने पैंतरा बदला ‘यह सब ढकोसला है। पिछले साल कार्तिक महीने में छेना चढ़ाने वाली बात उड़ाई गई थी। सभी ने गंगा घाटों को छेना से भर दिया था। बाद में पता चला कि अहीरों ने अपने दूध की कीमत बढ़ाने के लिए उसे उड़ाया था।
मुझे लगता है कि अब मल्लाहों ने आटा कमाने के लिए इसे उड़ाया है।’’ लेकिन ये सभी तर्क सुंदरी देवी के सामने अब काम नहीं आने वाले थे। उनका फैसला हो चुका था ‘काल्ह जायके बात त जायके बा।’
सुन्दरी देवी बेहद धार्मिक महिला थीं। पूजा-पाठ, दान-उपनेत बहुत नियम से करतीं, फिर भी उन्हें लगता कि भगवान उनके साथ न्याय नहीं कर रहा है। पति चौरंगी होकर बैठे हैं, पैर धनुष जैसा टेढ़ा हो गया है, दिशा-मैदान भी अपने दम पर संभव नहीं। उनका मन कहता है ‘बाई ह’ डाक्टर कहता है ‘साईटिका है’ लेकिन गाँव वाले दूसरी ही कहानी गढ़ते हैं। उनके अनुसार यह भगवान द्वारा दिया गया शाप है
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क्योंकि पुलिस की नौकरी में रहते हुए रमेसर पांड़े ने चोर-डाकुओं के पैरों को चढ़कर बहुत तोड़ा था और वे अब उसी का पाप भुगत रहें हैं। यह बात गाँव में इतनी फैल गई है कि सुंदरी देवी का मन भी उसे कहीं न कहीं मानने लगा है।
और यही क्यों ? बड़कू के नौकरी नहीं मिलने को भी वो इसी तरह देखती हैं। रमेसर पांड़े कहते हैं कि सरकार ने सभी नौकरियां छोटी जाति के लोगों के लिए ही बना रखी है, इसलिए बड़कू को बीए पास करने के बाद भी यह नहीं मिल रही। उनका मन कहता है कि ‘‘मलिकार के गलत पैसा कमइला के पाप उनका बड़कू पर लागल बा।’’ कितनी भी बचती है, गाँव की खुसुर-फुसुर उनके कानों में पहुँच ही जाती है।
हार-पाछकर बड़कू सूरत चले जाते हैं। वहाँ काम मिलता है साड़ी की छपाई का। सुंदरी देवी का मन छटपटाता रहता है ‘‘कउनो तरह उनकर खबर मिलित।’’ कोई भी फेरीवाला उनके गाँव में साड़ी बेचने आता है तो उन्हें लगता है कि उनके बेटे ने ही उन सभी साडि़यों की छपाई की है। सभी छापों में वो अपने बेटे के ऊंगलियों के निशान ढूंढ़ती रहती है।
भगवान चाहे उनके पति द्वारा किए गए जिन कुकर्मों का फल दे रहा हो, उन्हें लगता है कि उन्होंने तो पुण्य ही किया है। भगवान की ऐसी कोई कथा नहीं जो उनके गाँव में हुई हो और उन्होंने उसे नहीं सुनी हो। पागल बाबा हो या सनकी दास, पहडि़या बाबा हो या मौनी महाराज, जिस किसी ने भी इनके गाँव जवार मे यज्ञ कराया है, सुन्दरी देवी ने अपनी शक्ति के अनुसार दान दिया है। पिछले महीने गंगा पांडे़ को बाछी दी जा रही थी तब उन्होंने सवा किलो आटा और आलू दान किया था। महीने के सभी त्यौहारों- एकादशी, प्रदोष, शिराती और पूरनवासी-को पंडित जी को कुछ न कुछ अवश्य दान करती हैं।
कोई भी भिखमंगा उनके दरवाजे से खाली हाथ वापस नहीं लौटता है। जब भी हिसाब लगाती है, अपने पति रमेसर पाड़े के पापों पर उनके पुण्य का पलड़ा बीस ही बैठता है। फिर भी भगवान नाराज है। पागल बाबा से उन्होंने यह बात पूछी थी। उन्होंने उनकी शंका दूर की या कहें तो बढ़ा दी- ‘‘बच्चा तुम अपने पति के किए सभी पापों को तो जानती नहीं, फिर कैसे हिसाब होगा।’’ सुदरी देवी तराजू के अपने पलड़े पर अधिक से अधिक पुण्य रख देना चाहती है कि वह उनकी तरफ झुक जाए।
‘‘जेठ में दू दिन बाचल बा। काल्ह अउर परसो। अब 5 किलो पीठा भी एक दिन मिल जाई त दू दिन में 10 किलो होई। आ दस किलो माने भात मिलाके खइला पर 10-12 दिन खर्ची चलि जाई।’’
सुनरी मलाहिन हिसाब लगाती है तो किसी भी तरह उसका बुखार से तपता बदन दस किलो पीठे के सामने उन्नीस ही बैठता है। पूरे जेठ महीने में उसने 50 किलो से अधिक ही पीठा कमाया है और वह भी तब, जबकि घर और उसकी अपनी स्वास्थ्य की परिस्थितियाँ इतनी विपरीत है। पति को खाँसी की बीमारी है। पहले मुंबई में काम करते थे, अब घर आ गए हैं। उठते-बैठते, सोते-जागते हर समय खाँसते रहना। उनके कफ की गंध से यह मिट्टी का घर हमेशा भरा रहता है। वो सोचती है ‘‘गाँव के लोग ठीक कहेला कि मुंबई में अइसन कीड़ा रहेला, जेकरा काटला से छाती में कफ भर जाला।
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’’ छोटा बेठा अपाहिज है, बस किसी तरह चल-फिर लेता है। बेटी बड़ी हो गई है। एक तो खुद जाना नहीं चाहती और दूसरे सुनरी उसे ले भी नहीं जाती। बड़े बेटे को उसने पेट काटकर पढ़ाया था। गाँव में हल्ला था ‘‘सरकार छोट जाति के लोगन के नौकरी देति ह। लेकिन सब झूठे कहत रहले। ओकरा गाँव में त केहू के ना मिलल।’’ हार-पाछकर वह भी पिछले साल मुम्बई चला गया है। हालांकि वह उसे भेजना नहीं चाहती थी। उसे डर था कि ‘उहे कीड़ा काटि ली।’’ जब लड़के ने समझाया तब तैयार हुई। ‘‘माई हमका दूसरा देश जायेके ह, ओ देश के रास्ता मुंबई से ही जाला। अऊर तू डर मत,
अब कीड़ा काटला के दवाई आ गइल बा।’ सुनरी को लगता है कि उसकी भी किस्मत विदेश गए लड़कों के परिवारों जैसी बदल सकती है। इसी आशा में उसने बगल वाले गाँव से सूद पर पैसा लिया है। लड़के ने कहाव भेजा था, पासपोरट बनाने के लिए। तीस हजार रूपए। छह महीने हो गए उसने अभी हिसाब नहीं किया, जो दरअसल उनसे करना भी नहीं है। उसे तो केवल उस हिसाब को भरना है।
उसकी अपनी तबियत ठीक नहीं रहती। रात को सोती है तो लगता है अब जीवन में नहीं उठ पाएगी लेकिन सुबह होते ही जिम्मेदारियां उसे ठोक-पीट कर खड़ा कर देती हैं, उसके पैरों में जान भर देती हैं। तीस हजार रूपयों को भरने की जिम्मेदारी, अपने पति के फेफड़ों से थोड़ा सा कफ निकालने की जिम्मेदारी जिससे वे साँस ले सकें, अपने अपाहिज बेटे के पैरों में थोड़ी-सी ताकत देने की जिम्मेदारी और अपनी सयानी बेटी के हाथ पीले करने की जिम्मेदारी। यदि ये सारे काम हो जाएं तो सुनरी मलाहिन अपनी झोपड़ी से निकलकर यमराज का स्वागत करेगी। आखिर जीवन में इसके बाद बचता ही क्या है ?
उसे चार बजे उठना होगा। गंगाली 3 किलोमीटर दूर हैं। उसकी अपनी मल्लाह टोली से 50 से अधिक महिलाएँ रोज निकलती हैं। जिस दिन अच्छी साइत होती है सबको कुछ न कुछ मिल ही जाता है और जिस दिन नहीं होती, वे सभी गंगा नहाकर चली आती हैं। उसे नहीं पता कि यह पीठा चढ़ाने वाली बात किसी मल्लाह ने उड़ाई है, जैसा कि उसके गाँव के ऊंची जाति वाले लोग कहते हैं या सच में गंगा मैया ने किसी मल्लाह के सपने में आकर यह कहा है जैसा कि उसकी अपनी बिरादरी के लोग कहते हैं। ‘‘पीठा के चढ़ावा त हमेशा से मल्लाहे लेत आइल बा।’’ सो वह भी इसे लेना अपना अधिकार समझती है।
जो भी हो सुनरी मलाहिन धरम-काम वाली है। अपनी जाति बिरादरी की महिलाओं जैसा धोखा नहीं देती। जो भी पीठा चढ़ाना चाहता है, वह उसके आटे को अपनी थाली में सानती है और चढ़ाने वाली महिला को सौंप देती है। वह इसे गंगा मैया के चरणों में रखती है, अपना सारा पूजा-पाठ करती है तब सुनरी उसे उठाती है। वह पीठे के नीचे लगे बालू और ऊपर लगे रोरी-सिंदरू को धोती है। अपने परात में एक तरफ रखकर उसे कपड़े से ढक देती है। उसे यह बुरा लगता है कि उसके गाँव की अन्य औरतें पीठा चढ़ाने वाली महिलाओं को धोखा देती हैं। ‘‘थोड़ा सा आटा सानिके पीठा चढ़ा देली अऊर बाकी सूखे ही ले लिहली। ई कवन पीठा चढ़ावल भइल।’’
हालांकि उसकी लड़की कहती है ‘‘हमार माई मूरखि ह। आज ले कबो आटा ना ले आइल। हमेशा पीठा ही ले आवेले। उ भी बालू वाला पीठा। अब ओकरा के छोट-छोट तोड़, सुखाव, फिर ओखल में खान के आ जाॅत में पीस। तब त आटा तैयार होई। आटा का, आटा अऊर बालू मिलिके तैयार होई। अब दू महीना तक इ बालू दांत के नीचे करकरात रही।’’ लेकिन सुनरी को तो भगवान को भी मुँह दिखाना है। ‘‘पता नहीं काहे भगवान मल्लाह बनवले। अब एइजो धोखा देबि त अगिला जनम में एहू से नीचे चलि जाइब।’’ हाँ उसे एक बात अखरती है ‘‘इहे जगह कौनो साल नहान
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घाट बनि जाला आ कौनो साल शमशान घाट। ई पीठा ईहां नीचे राखल एहि से ठीक ना लागेला।’’ एक दिन अनायास ही उसके दिमाग में आता है ‘‘जे तरह शमशान घाट अगिला साल से नहान घाट हो जाला, हमरो जिनिगी अगिला जनम मे ंएहि तरह बदलि जाई।’’
सुबह के पाँच बजे हैं। हमारे हिस्से की पृथ्वी को हाँकने के लिए सूरज तैयारी कर रहा है। आज गंगाघाट पर भीड़ बहुत है। सुनरी मलाहिन वहाँ पहुंच गई है। उसे सुंदरी देवी आती हुई दिखाई देती हैं। अपने लड़के के साथ। लड़के के हाथ में झोला है। वह ताड़ती है ‘‘पंडिताइन के जरूर पीठा चढ़ावे के ह।’’ वो उन्हें पहचानती है, बगल वाले गाँव की जो ठहरी। सुंदरी देवी आसानी से तैयार नहीं होतीं। वे अपनी सारी शर्तें रखती हैं। ‘‘हम पीठा गंगा मैया के ही चढ़ाइब।’’ सुनरी सारी शर्तें मान लेती है।
सुन्दरी देवी गंगा जी में स्नान करती हैं। उन्हें तीन पीठा चढ़ाना है। सुनरी मलाहिन अपनी थाली निकालकर तैयार है। वो पीठा सानती हैं, सुंदरी देवी उसे गंगा मैया के चरणों में रखती है फिर अपने विधि-विधान से पूजा करती हैं। वो मन ही मन सोचती हैं ‘‘अब यदि तराजू उठी त हमार पलड़ा जरूर भारी हो गइल होई।’’ वो दूसरा पीठा चढ़ाती हैं ‘‘पलड़ा अऊर झुकल होई’’ और फिर तीसरे पीठे को चढ़ाकर पलड़े के अपनी तरफ पूरी तौर पर झुक जाने को आश्वस्त होने को होती है कि सुनरी मलाहिन के नाकों में सड़े हुए पानी की दुर्गध भर जाती है, उसके दांत बालू से किरकिराने लगते हैं।
वो याचना करती है ‘‘ई ना हो सकेला मलिकाइन कि ई पीठा हमरा थाली में ही चढ़ा दी। मंदिर में त पंडित जी लोग मिठाई के डिब्बे में ही चढ़ा देला।’’ सुंदरी देवी को लगता है कि पलड़ा उनकी तरफ झुकते-झुकते रह गया। ‘‘ना ! ई ना होई’’ वो झल्लाते हुए अपने तीसरे पीठे को भी गंगा मैया के चरणों मंे चढ़ा देती है। पीठा और बालू एक हो जाते हैं। सुनरी मलाहिन भारी मन से उस पीठे को उठाती है।
सुंदरी देवी घर लौटती हैं। उन्हें संतोष है कि वह किसी के झांसे में नर्हीं आइं। उन्होंने तीनों पीठा गंगा मैया के चरणों में ही चढ़ाया है। सुनरी मलाहिन के परात में यही तीन पीठे हैं। वो इस घाट से उस घाट घूमती है। पीठे के लिए नहीं वरन अपने भ्रम को मिटाने के लिए। उसको गंगा मैया के पानी से सड़ने की गंध आ रही है। वो सोचती है ‘‘आखिर ई पानी आत त सड़ल ना होई, त एसे पहिले हमरा नाक में का हो गई रहल हा, जे हम एके ना सूंघि सकत रहनि हां।’’ बालू उसके पैरों में नहीं, दांतों में किरकिराता महसूस होता है। वह वापस घर लौटने का फैसला करती है। सोचती है ‘‘
एगो त जवन पानी सडि़ गइल, उ गंगा मैया के नाहीं हो सकेला, तब फिर हम बिना चढ़ावल पीठा कइसे ले सकेनी। अऊर दूसरे कि ई काम हमरा से ना होई।’’ बिना मेहनत के कमाई में कउनों इज्जत नाहीं बा। ई खाली बाभन लोग ही कर सकेला। उसके कदम थमने लगते हैं। सिर पर रखा परात आज बहुत भारी लग रहा है। वह भगवान के घर एक अरज डालती है ‘कउनों जनम में अइसन कमाई ना करेके पड़े।’’
लेखक : रामजी तिवारी