वीथिका फूट फूटकर रोने लगी तो रेशमा ने आगे बढ़कर उसे अपने गले लगा लिया और उसकी पीठ पर हाथ फेरते हुये चुप कराया। फिर वैदेही को गोद में लेकर उसको आशीर्वाद देते हुये कहा –
” जिसका कोई नहीं होता, उसका भगवान होता है। जब सब रास्ते बंद हो जाते हैं तो वह कोई न कोई रास्ता खोल देता है। आखिर यह नन्हीं परी भी तो अपनी किस्मत में कुछ लिखा कर लाई होगी । तुम लोग चिन्ता मत करो, मेरा दिल कहता है कि तुम्हारी बच्ची पूरी तरह स्वस्थ हो जायेगी। यह एक किन्नर का आशीर्वाद है, बस तुम लोग हिम्मत मत हारना।”
फिर उसने वीथिका से बच्चे का नाम पूॅछा और वैदेही नाम सुनकर कहा – ” तुमने बच्ची का नाम माता सीता के नाम पर रखा है तो वह ही इसकी रक्षा करेंगी क्योंकि माता सीता तो त्रैलोक्य के स्वामी की शक्ति हैं लेकिन मैं तो इसे
” लकी ” कहूॅगी। तुम लोग का जो मन हो कहना।”
” हम लोग भी इसे ” लकी” ही कहेंगे। आज से इसका घरेलू नाम यही रहेगा। हम लोग अभी तक इसका घर में पुकारने का नाम नहीं रख पाये थे। आज से हम सबके लिये यह लकी रहेगी”
कदम्ब बच्ची को चूमते हुये कहने लगा – ” लकी तुम्हें अपना नाम पसंद है ना।”
बच्ची खिलखिला उठी तो सभी हॅसने लगे। उसके बाद जब भी रेशमा अपनी मंडली के साथ उस मुहल्ले में आती, वीथिका के घर जरूर आती और लकी को प्यार करके चली जाती। कभी कभी वह लकी के लिये कोई खिलौना ले आती। जब कभी रेशमा अकेले आती तो वीथिका उसे बिना खाना खाये जाने न देती। धीरे धीरे कदम्ब और वीथिका रेशमा को प्यार से ” मौसी ” कहने लगे। उन्हें किन्नर रेशमा अपने सगे सम्बन्धियों से अधिक अपनी और आत्मीय लगती थी जो ऐसे समय उन्हें मानसिक सम्बल और प्रेरणा देती थी।
लकी धीरे धीरे डेढ साल की हो गई। अब वह रेशमा को पहचानने भी लगी थी और उसे देखकर उससे चिपट जाती। वीथिका ने उसे रेशमा को नानी कहना सिखा दिया था।
एक दिन रेशमा जब आई तो वीथिका ने कहा – ” मौसी, नवरात्रि में तुम्हें जिस दिन फुरसत हो बता दो। उसी दिन लकी का अन्नप्राशन कर लेंगे।”
” तुम्हारी सास और रिश्तेदारों के बीच मैं क्या करूंगी आकर? मैं पहले ही आकर आशीर्वाद दे जाऊॅगी।”
वीथिका के बोलने के पहले ही कदम्ब बोल पड़ा – ” न कोई आयेगा और न हम किसी को बुलायेंगे। हम सब लोग मन्दिर चलकर भगवान का प्रसाद खिलाकर लकी का अन्नप्राशन कर लेंगे।”
नियत दिन जब रेशमा वीथिका, कदम्ब और लकी के कपड़े, मिठाई, लकी के खिलौने और चॉदी के कड़े लेकर आई तो कदम्ब और वीथिका दोनों की ऑखें भीग गईं – मौसी, ये सब •••••••।”
” आज के दिन यह सब मायके या ससुराल का पहना जाता है। तुम लोगों की मौसी और लकी की नानी होने के कारण यह सब करना मेरा कर्तव्य है। इसके लिये तुम लोग कुछ नहीं कहोगे ”
भरी हुई ऑखों से पहले कदम्ब और वीथिका ने रेशमा के लाये कपड़े खुद पहने, फिर लकी को पहनाये और मन्दिर में रेशमा ने ही पहली बार लकी को मन्दिर का प्रसाद खिलाया।
इस तरह वैदेही का मुंडन, पहली सालगिरह उन तीनों ने मंदिर में जाकर मना लिया। न किसी को बुलाया और न कोई उत्सव किया। जानते थे कि अम्मा – बाबू और जितने रिश्तेदार आयेंगे, तमाम तरह की समस्यायें तो खड़ी करेंगे साथ ही अपनी व्यंग्य भरी बातों और तानों से दिल को छलनी कर देंगे। उनकी प्यारी बेटी को अम्मा, बाबू और बहन तो हमेशा बद्दुआ ही देते हैं, उनसे तो आशीर्वाद की उम्मीद करना ही व्यर्थ है। वे लोग तो हर समय लकी की मृत्यु की कामना करते हैं,फिर क्या जरूरत है बेकार के आडम्बर की? क्या आवश्यकता है ऐसे लोगों को बुलाने की?
जानके हैं कि अपनी सीमित आमदनी और हैसियत के अनुसार वे लोग अपने पैसे खर्च करके कितना भी अच्छा करेंगे, ये लोग सन्तुष्ट नहीं होंगे। खा – पीकर भी ये लोग कमी निकाल कर बुराई ही करेंगे। इससे अच्छा है कि उन पैसों को वो लोग बचाकर रखें और अपने बच्चे के इलाज पर खर्च करें।
एक दिन रेशमा उन लोगों के पास आई तो उसके चेहरे पर बहुत उत्तेजना थी –
” क्या बात है मौसी? आज तुम्हारे चेहरे से लग रहा है कि जैसे कोई विशेष बात है।”
” हॉ, विशेष बात ही है। तुम दोनों बैठो और मेरी बात ध्यान से सुनो।”
जब दोनों उत्सुकता से रेशमा के पास आकर बैठ गये तो वह बहुत देर तक कदम्ब और वीथिका को कुछ समझाती रही।
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मंगला मुखी (भाग-8) – बीना शुक्ला अवस्थी : Moral stories in hindi
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर