मोबाइल साइलेंट पर था पर फिर भी उस पर होने वाली घर्र घर्र सुषमा जी के कानो में साफ़ सुनाई दे रही थी जिसे वे चाय के घूँट के बीच अनदेखा करने की भरपूर कोशिश कर रही थी।
वे जानती थी ये फ़ोन समीर यानी कि उनके बेटे का है।
मोबाइल की घर्र घर्र की आवाज़ उनके कानों में धीमी होती जा रही थी और वो 1 महीने पुरानी यादें मन की दीवारों पर ताज़ा हो आयी थी, जब सुषमा जी बार बार समीर को फ़ोन कर के बुला रही थी।
बेटा, तुम्हारे पापा की तबियत ठीक नहीं है। वो केवल एक बार तुम्हें देखना चाहते है। तुम जितनी जल्दी हो सके टिकट कटवा कर आ जाओ” सुषमा जी ने विदेश में रह रहे अपने एकलौते बेटे समीर को फोन किया था।
विदेश में अपने परिवार के साथ रह रहे समीर को रति भर भी फर्क नहीं पड़ रहा था इस बात से।
माँ आप तो बस सोचते हो कहा और उड़ कर आ जाओ। यहां छुट्टी लेना आसान नहीं है।” समीर ने माँ को गुस्से में झिड़क दिया।
“बेटा, तुम कोशिश करो। केवल एक दो दिन के लिए ही आ सको तो आ जाओ। मुझसे तुम्हारा पापा की उदासी देखी नहीं जाती। डॉक्टर जवाब दे चुके है।” माँ के आंसू रुक ही नहीं रहे थे।
अभी मैं मीटिंग में हूँ, बाद में बात करता हूँ” समीर ने चिढ़ कर फ़ोन रख दिया।
दो दिन बाद महेश जी की तबियत ज्यादा बिगड़ी तो सुषमा जी उन्हें जल्दी पड़ोसियों की मदद से अस्पताल ले गयी। एम्बुलेंस में बैठकर वो बार बार समीर को फ़ोन लगा रही थी पर केवल घंटी ही बजती थी और कुछ नहीं।
महेश जी जा चुके थे, बेटे से मिलने की आस और उसकी बचपन की यादों को ही लेकर वे सुषमा जी को छोड़ कर सदा के लिए चले गए थे।
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आने जाने वालों का तांता लगा था। सब समीर के बारे में पूछ रहे थे।
उसका आना मुश्किल है। उसकी तबियत भी ठीक नहीं है। इसलिए मैंने ही मना कर दिया है।” सुषमा जी ने रुंधे गले से रिश्तेदारों को उत्तर दिया और चुपचाप महेश जी की अंतिम क्रिया में व्यस्त हो गयी।
अपने एकलौते बेटे का जो रूप देखा ऐसे रूप की कभी आशा नहीं की थी उन्होंने।
कुछ रिश्तदारों की और से सहानुभूति प्रकट करने के लिए फ़ोन समीर को गया तो उसे पिता के बारे में पता चला और साथ ही माँ ने जो उसके बारे में रिश्तेदारों को बताया था वह भी पता चला। सभी समीर से फ़ोन पर ही दुख व्यक्त कर रहे थे और उसकी तबियत भी ले रहे थे।
माँ, आपने मुझे बताया नहीं।” समीर ने रोते हुए माँ को फ़ोन मिलाया।
मैंने सोचा तुम व्यस्त होंगे। और आना तो तुम्हारे लिए मुश्किल ही था, ये तो मैं जानती ही थी। इसलिए मैंने तुम्हें परेशान नहीं किया।” सुषमा जी के मन के जख्म अब पक्के हो चुके थे।
“माँ, मैं आ जाऊँगा। मुझे 2 दिन बाद की टिकट मिली है। आखिरी बार तो पापा का चेहरा देख लूँगा माँ। क्या करूँ माँ तुम तो समझ ही सकती हो।” समीर के दिखावटी आंसू लगातार बह रहे थे।
“आखिरी बार चेहरा ………. ” सोच कर ही सुषमा जी की आँखें नम हो गयी।
कल तक कौन देखना चाहता था और आज कौन देखना चाहता है।
“क्या करोगे बेटा तुम, यहाँ सब है तो। सब संभाल रहे है। तुम्हारे दोनों चाचा है वो सब काम में मेरी पूरी मदद कर रहे है।” समीर की बात को अनसुना कर माँ ने सामने आ चुकी हक़ीक़त के अनुसार ही जवाब दिया।
“नहीं माँ, वो मैं कह रहा था। अब आप वहाँ रह कर क्या करोगी, मेरे साथ ही चलो अब। यही साथ में रहेंगे। इंडिया की सारी प्रॉपर्टी बेच देते हैं और यही रहना आप हमारे साथ। क्या रखा है अब वहां। पापा का साथ था तो ठीक था, पर अब मैं आपको लेने आ रहा हूँ। और प्रॉपर्टी की आप चिंता मत करना मैंने डीलर से बात कर ली है।” समीर माँ को समझाने की कोशिश कर रहा था, पर इस बीच आखिर मन की बात कहाँ छुपने वाली थी।
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आवाज़ नहीं आ रही बेटा। कुछ सुन ही नहीं रहा। लगता है फ़ोन खराब हो गया है। तुम मत आना, अपना ख्याल रखना वहां।” सुषमा जी ने जोर जोर से बोला तो सबका ध्यान भी वहीं हो आया और उन्होंने फ़ोन रख दिया।
सभी ने उनकी हाँ में हाँ मिलाई।
“हाँ हम है भाभी यहां। आप चिंता न करे” सुषमा जी की देवरानी उन्हें हिम्मत बंधवाते हुए कह रही थी।
इस दुनिया की हकीकत जान सुषमा जी का मन भी शांत हो चुका था, सब काम शांतिपूर्वक हो चुके थे। सब रिश्तेदार जा चुके थे। सुषमा जी अकेली थी अपने पति की यादों के साथ अनचाही आवाज़ों को अनदेखा करती हुई।
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आपकी सखी
पूनम बगाई