अस्पताल के बिस्तर पर पड़े पड़े उसका मुंह पोंछती चंदा पर जब दिनेश की दृष्टि पड़ी तो उसके सूने कान को देखकर उसने पूछ लिया, “- चंदा तेरे झुमके कहां गए?? आज तूने नहीं पहने!”
चंदा की दृष्टि अनायास ही झुक गई, स्वर को मृदुल बनाने का प्रयास करते हुए उसने कहा, “- अरे.. हर रोज अस्पताल अकेली आती जाती हूं ना, कानों में झुमके पड़े हों तो डर तो लगता ही है ना.. तुम तो देख ही रहे हो जमाना कैसा है ….इसलिए मैंने उतार कर रख दिए!”
उसकी तरफ गौर से देखते हुए दिनेश फीकी हंसी हंस दिया, “- तुझे तो झूठ बोलना भी नहीं आता चंदा! सच बता, अस्पताल के खर्च के लिए झुमके बेच दिए ना तूने???”
चंदा की आंखें भर आई, ” कोई बात नहीं है जी.. तुम हो तो तुमसे ही मेरा श्रृंगार है और इतना लंबा जीवन तो पड़ा है.. झुमके फिर आ जाएंगे..” दिनेश का स्वर भर्रा गया, “जब तूने मुझसे कहा था कि मेरे छोटे भाई महेश ने पैसे भेजे हैं तो वही मैं सोच रहा था कि जिस छोटे भाई ने आज तक मेरी खबर नहीं ली.. उसने अचानक अस्पताल के लिए ऐसे कैसे पैसे भेज दिए…यह तूने क्या कर दिया चंदा…. एक तो छोटी सी आमदनी में मैं तुझे कभी कुछ दिला नहीं सकता था और गहनों के नाम पर बस यही एक जोड़ी झुमके और मंगलसूत्र ही तो थे तेरे पास… वह भी आज तूने मेरे लिए बेच डाले…” दिनेश ने तकिए पर सिर टिका लिया और आंखें मूंद लीं। मुंदी आंखों से दो बूंद आंसू ढुलक कर तकिए में विलीन हो गए। उसकी पलकें पोंछ कर चंदा ने मुस्कुराने का प्रयत्न करते हुए आर्द्र स्वर में कहा,”- कैसी बात करते हो जी…सब ठीक हो जाएगा..”
दिनेश ने आंखें मूंदे मूंदे ही कहा, “-क्या ठीक हो जाएगा चंदा… एक तो मैं दिहाड़ी पर काम करने वाला आदमी और उस पर से अब तो मेरा एक हाथ भी नहीं रहा…अब तो मुझे काम भी कौन देगा…”
उसकी दृष्टि के समक्ष वह दिन कौंध गया जब वह रोज की तरह काम के बाद घर जा रहा था। अचानक सामने से तीव्र गति से आई हुई कार से वह टकराकर गिर पड़ा और उसके बाएं हाथ के ऊपर से एक ट्रक गुजर गया। वह दर्द से बिलबिलाकर अचेत हो गया। आनन फानन में उसे अस्पताल पहुंचाया गया! उसके प्राण तो बच गए परंतु बायां हाथ जाता रहा। जीवन संगिनी चंदा बावरी सी हो गई। यूं तो वह बहुत ही सशक्त और जुझारू स्त्री थी। बहुत ही कुशलता से घर भी मितव्ययिता से संभालती थी और साथ ही अचार पापड़ बड़ियां भी बनाने का काम छोटे स्तर पर करती थी। वह, चंदा और मुन्ना… उनका प्यारा सा छोटा सा हंसता खेलता परिवार था। कोई भी परिस्थिति हो चंदा सदैव मुस्कुराती रहती थी मगर उस दिन उसकी आंखों से भी आंसुओं की झड़ी लग गई। उफ़्फ़… कैसा मनहूस दिन था…. दिनेश के मुंह से एक आह निकल गई।
चंदा ने ढाढस बंधाते हुए कहा, “- क्यों चिंता करते हो जी… ऊपर वाला सबको देखता है और मेरा पापड़ बड़ियों का काम भी तो है। हम मिलकर खर्च चला लेंगे और मदद तुमको भी करनी पड़ेगी.. समझे बुद्धू राम!”
दिनेश ने मुस्कुराने का प्रयत्न किया परंतु आंखों ने छल करते हुए दो बूंद ढुलका ही दिए…
दिनेश अस्पताल से घर आ चुका था। चंदा पूरे मनोयोग से उसकी सेवा करती थी और उसने और भी ज्यादा परिश्रम करना प्रारंभ कर दिया। उसके कृशकाय होते जा रहे शरीर और विवर्ण मुख को देखकर दिनेश का कलेजा मुंह को आ जाता था।
उस दिन भी जब चंदा काम में व्यस्त थी तो उसके मन में विचारों के झंझावात चल रहे थे। पास ही मुन्ने की कॉपी पड़ी थी। उसने बस यूं ही वह कॉपी उठा ली और बैठे-बैठे काम करती हुई चंदा का ही चित्र उकेर दिया।
तभी चंदा चाय का गिलास लेकर उसके पास पहुंची तो उसके हाथ की कॉपी में अपना चित्र देखकर अचंभित रह गई।
“- अरे! यह तुमने बनाया है… ऐसा लग रहा है जैसे यह चित्र अभी बोल पड़ेगा… अरे मुझे तो पता ही नहीं था कि तुम इतना अच्छा चित्र बनाते हो। तुमने तो कभी बताया भी नहीं…”
“-अरे कुछ नहीं चंदा वह बचपन में बस यूं ही शौक था… पर बाद में रोजी-रोटी की चिंता में यह सब कहां पीछे छूट गया पता भी नहीं चला… आज तुझे काम करते देखा तो इतनी प्यारी लग रही थी तू कि अपने आप मेरा हाथ तेरा चित्र उकेरने लगा। “
“-सच में कितना सुंदर बनाया है तुमने… मैं तुम्हारे लिए चित्रकारी का और भी सामान ला दूंगी। तुम चित्र बनाओ और तुम्हारे चित्रों को मैं अपनी छोटी सी दुकान पर रखूंगी। लोग-बाग देखेंगे तो उन्हें भी तुम्हारी प्रतिभा का पता चलेगा।
और फिर एक दिन बहुत बड़े चित्रकार बन जाओगे तुम…”
दिनेश ठठाकर हँस पड़ा, “- चंदा.. तेरा नाम चंदा से बदल कर शेख चिल्ली रख देना चाहिए… दिन में भी सपने देखने लगी है तू…
“अरे नहीं जी.. मैं सच कह रही हूं… एक बार प्रयास करने में क्या हर्ज है..”
शीघ्र ही दिनेश के बनाए गए कई चित्र चंदा ने अपनी दुकान पर लगा कर रख दिए। सभी चित्र इतने जीवंत लगते थे कि कोई भी रुक कर देखे बिना आगे नहीं बढ़ सकता था। और फिर वह दिन भी आया जब कई लोगों ने उन चित्रों को खरीदने की इच्छा व्यक्त की और बहुत अच्छे दामों पर वे सभी चित्र बिक गए। फिर इसके बाद उन दोनों ने पीछे मुड़कर नहीं देखा।
दिनेश पापड़ और बड़ियों के उद्योग में चंदा का हाथ भी बंटाता था और साथ ही चित्रकारी में भी लगा रहा। उनकी आर्थिक स्थिति में भी बहुत सुधार आ चुका था। मुन्ना भी अब अच्छे से विद्यालय में पढ़ने लगा था।
आज शहर में दिनेश के चित्रों की प्रदर्शनी थी। चंदा वहां जाने के लिए जब तैयार होने लगी तो दिनेश ने आगे बढ़कर उसके हथेली पर एक डब्बी रख दी।….. चंदा की आंखों में आश्चर्य के भाव तैरने लगे.. उसने पूछा, “-क्या है यह…
दिनेश ने मुस्कुरा कर कहा, “-खोल कर देख..”
चंदा ने जैसे ही डब्बी खोली, उसका चेहरा खिल उठा.. हाय इतने प्यारे झुमके!!! लेकिन इसकी क्या आवश्यकता थी..”
दिनेश ने मुस्कुराते हुए कहा, “- तेरे झुमके मेरे प्यार पर ऋण थे। और यह झुमके नहीं है यह मेरा प्यार है इसलिए चल अब झटपट पहन ले! हमें प्रदर्शनी में जाने के लिए देर हो रही है!”
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पुलकते हुए चंदा ने कानों में वह झुमके पहन लिए। दिनेश ने उसके गालों पर झूलती हुई लट को हटाकर शरारत से मुस्कुराते हुए कहा, “- जरा इन लटों को तो हटा… झुमके कैसे लग रहे हैं यह दिखा तो सही! और वैसे भी तेरे इन गुलाबी गालों पर इन लटों से ज्यादा मेरा हक है….”
चंदा लाज से लाल हो गई, “- बदमाश कहीं के! अब देर नहीं हो रही है..??”
दिनेश ने चंदा को सीने से लगा लिया ! “-तुझ जैसी जीवन संगिनी पाकर मैं धन्य हो गया चंदा…. अच्छे दिनों में भी हम साथ थे….बुरे दिनों में भी तूने सब कुछ सहा और संभाला और मुझसे मेरी ही पहचान करवाई…आज जो कुछ भी हूं तेरी ही तपस्या और त्याग के कारण ही तो हूँ… मेरी प्रेरणा स्रोत… मेरा प्यार है तू.. बहुत सारा धन्यवाद मेरे जीवन में आने के लिए…बस अब युगों युगों को तक यूं ही मेरे साथ रहना कदम से कदम मिलाकर…. तेरे साथ यह जीवन के पल और भी प्यारे हो जाते हैं और यह सुख दुख का संगम एक नया ही रंग भर देता है…”
“-पापा… मैं भी तो हूं.. मुझे तो भूल ही गए आप लोग….” अचानक मुन्ने की आवाज पर दोनों खिलखिला कर हंस पड़े। मुन्ना अपनी नन्ही सी छाती पर दोनों हाथ बांधे रुठा रुठा सा खड़ा उन दोनों को एकटक देख रहा था। चंदा ने आगे बढ़कर मुन्ने को गोद में उठा लिया। और तीनों चल पड़े जीवन की इन नई राहों के सुखद अनुभवों में डूबने उतराने….
निभा राजीव निर्वी
सिंदरी धनबाद झारखंड
स्वरचित और मौलिक रचना