नौकरी से सेवानिवृत्त होने के पश्चात संयोग से यदि आप बेटा-बहु के साथ रह रहे हैं तो कुछ ड्यूटियाँ आप पर स्वतः थोप दी जाती हैं ।इनमें मुख्य हैं बच्चे को स्कूल की बस तक छोड़ने और लेने जाना और दूसरी मोहल्ले के सब्ज़ी वाले से साग-भांजी ख़रीदना ।इन ड्यूटियों को करने या न करने का आप के पास कोई विकल्प प्रायः नहीं होता क्योंकि इसमें बहु जी के साथ आपकी श्रीमती जी की भी पूर्ण सहमति होती है ।कुछ ऐसे दर्शाया जाता है
जैसे यह ज़िम्मेदारियाँ सौंप कर हम पर अहसान जताया जा रहा है ।तर्क दिया जाता है कि बाबू जी दिन भर पड़े-पड़े अख़बार ही तो चाटते रहते हैं इस बहाने थोड़ा टहलना और लोगों से मिलना-जुलना भी हो जाता है ।कुछ हद तक उनके तर्क में दम है किंतु बच्चे को लेने और छोड़ने जाने में तो कोई झंझट नहीं था पर यह यह साग-भांजी ख़रीदना ? टमाटर अंदर से गले निकले ,लौकी पकी थी ,
फ़्री का धनिया मिर्ची माँगी नहीं ।हज़ार तरह की आलोचनाएँ झेलनी होती हैं ।ऐसा भी नहीं कि सब्ज़ी ख़रीदारी में नाकारा साबित होने पर इससे आपको मुक्ति मिल जाए।अगले दिन पुनः आपको सब्ज़ी का थैला पकड़ा दिया जाता है ।
सरकारी नौकरी में जब थे तो काम-काज में ग़लतियाँ होना स्वाभाविक था ( हमसे कुछ ज़्यादा ही होती थीं )।अफ़सर की डाँट भी सुननी होती थी ।कई बार ऐसा भी हुआ कि यदि कोई संवेदनशील कार्य आन पड़ता तो कहा जाता कि वर्मा को मत दो सब गुड-गोबर कर देगा।कई लोग इसे अपमान समझते थे।किंतु मैं इसे मुक्ति मानता था ।महीने की आख़िरी तारीख़ को तनख़्वाह तो खाते में पूरी ही आनी थी। किंतु घर पर ये सरकारी क़ायदे-
क़ानून नहीं चलते।सब्ज़ी की ख़रीदारी में कितना भी गोलमाल हो पर हर दिन थैला मुझे ही पकड़ाया जाता है।भले ही घर सरकारी दफ़्तर नहीं था पर मेरे दृष्टिकोण में कोई अंतर नहीं था ।जैसी मोटी खाल मेरी दफ़्तर में रहती थी वैसी ही घर में रहती हैं ।मैं आलोचनाओं को ज़्यादा सीरियस नहीं लेता।छोटी-मोटी आलोचनाओं को तिनके की तरह हवा में उड़ा देता हूँ ।बैसे भी यह बात दुनिया भर के पतियों पर लागू होती है कि पति द्वारा किये
कार्यों पर पत्नियाँ कोई न कोई नुक़्स अवश्य निकाल देंगी ।मेरे पास ऐसी आलोचनाओं का एक ही जवाब है कि कोई जवाब ही मत दो ,बस मुस्कुराते हुए दी ऐंड कर दो।मेरी तो सारे पतियों से यही इल्तिजा है कि मेरे फ़ार्मूले को आप भी आज़माइए और देखिए कि गृहस्थी की गाड़ी कैसे सरपट दौड़ती है ।
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नौकरी से रिटायर होना या न होना कोई अपने हाथ में तो होता नहीं ।इधर आपने अपनी साठवीं वर्षगाँठ का केक काटा और उधर दफ़्तर वालों ने आपके गले मे हार माला पहनाई और कर ली नमस्ते ।लीजिए आपको दफ़्तर के बॉस से मुक्ति देकर घर के बॉस की सरपरस्ती में डाल दिया गया ।बैसे पत्नी की सरपरस्ती का आग़ाज़ तो शादी के सात फेरो के बाद से ही आरंभ हो जाता है ,फ़र्क़ इतना है कि अब यह फ़ुल टाइम हो जाता है ।अब आपके समस्त क्रियाकलाप पूरे समय निगाहों के राडार पर रहते हैं ।
अब मैं अपने पर थोपी गई दूसरी ज़िम्मेदारी यानी पौत्र को स्कूल छोड़ने और लेने जाने की कुछ चर्चा कर लेता हूँ ।बैसे इस काम के लिए थोपा जाना शब्द सही नहीं होगा क्योंकि अपना बच्चा है तो यह ज़िम्मेदारी मैं ख़ुशी-ख़ुशी उठाता हूँ ।और इसमें मुझे मज़ा भी आता है ।मैंने दुनिया को एक तमाशे की तरह देखने का नज़रिया बना लिया है ।बिना स्वयं को इस तमाशे का हिस्सा बनाए रोज़ एक नया एपिसोड ।इन रंगीन और मज़ेदार एपिसोड का मंच है पब्लिक स्कूल का गेट।
मेरा पौत्र शहर के एक नामी पब्लिक स्कूल में पढ़ता है जो मेरे घर से तीन किलोमीटर दूर पर स्थित है ।मैं सुबह एक्टिवा स्कूटर से अपने पौत्र को छोड़ने जाता हूँ और दोपहर एक बजे लेने जाता हूँ ।दोनों समय स्कूल के गेट पर लेने और छोड़ने वालों का मेला सा लग जाता है ।इस मेले में बच्चों की मम्मियों की बहुतायत होती है ।
माडर्न ड्रेसों में सजी यह मॉम अपने लेटेस्ट कार के मॉडल में आती हैं ।इनकी ड्रेसों को देख कर ऐसा लगता है जैसे कोई फ़ैन्सी ड्रेस शो हो रहा है ।घुटने के उपर फटी नीली जीन्स को देखकर सोच में पड़ जाता हूँ कि पहले गरीब लोग ही मजबूरी में फटे कपड़े पहनते थे पर आज यह फटी जीन्स फ़ैशन बन गईं है ।
स्कूल के बाहर की कार लाइन एक युद्ध क्षेत्र बन जाती है ,जहां ये मम्मियाँ लगातार एक दूसरे से पहले आने की प्रतिस्पर्धा में रहती हैं ।वे इस हद तक जाती हैं कि एक घंटा पहले आकर लाइन में लग जाती हैं ।स्पाट होल्ड करने की होड़ सी लग जाती है ।ऐसे में मैं अपना स्कूटर किसी सेफ़ जगह ही खड़ा करता हूँ ।अन्यथा क्या पता इन चार पहियों की प्रतिस्पर्धा में दो पहिये न रगड़े जाये ।
ये माडर्न मॉम अपने को अन्यों से अलग दिखाने के प्रयास में कुछ ऐसी हरकतें करती हैं जो उनके लिए तो आधुनिकतावाद होता है पर मेरे लिए मनोरंजन का भरपूर मसाला ।मैं अपने को रोक नहीं पाता हूँ तीखे सेंट की ख़ुशबू के झुंड में घुसने से।उस दिन एक मॉम बतला रही थी
कि वह अपने बेटे के टिफ़िन में आर्गेनिक , ग्लूटन-फ़्री, डेयरी-फ़्री ,शुगर-फ़्री स्नैक देती है जबकि मैंने प्रायः उसके मिनी-एलिफ़ेंट जैसे पुत्र को बड़े-बड़े चिप्स के पैकेटों पर हाथ साफ़ करते देखा है ।
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वहाँ एक ईको-वारियर मॉम साइकिल पर ट्रेलर के साथ आती हैं जिसमें वह अपने बच्चे को बिठाकर ले जाती हैं ।वह यह दावा करती हैं कि यही उनका पृथ्वी गृह को बचाने में योगदान है।वह बाक़ी मम्मियों को अपनी गैस छोड़ती एस यू वी के स्टार्ट को हिक़ारत भरी नज़रों से देखती हैं ।जबकि किसी ने बताया कि उनके घर में एक नहीं दो-दो कारें हैं ।अजब तेरी दुनिया अजब तरे खेल।एक और मॉम हैं जो सोशल मीडिया की दीवानी हैं और प्रायः अपने मोबाइल से सेल्फ़ी लेने मे ही लगी रहती हैं ।
मैं निर्लिप्त भाव से इस पब्लिक स्कूल गेट के मंच से तमाशे का लुत्फ़ उठा रहा था कि अचानक तीखी सेंट का एक झोंका मेरे पास आकर ठहर गया।वह गहरे लाल रंग की लिपस्टिक लगे ओठों से मुस्कराती हुई अंकल जी के संबोधन के साथ मुझ से मुख़ातिब हुईं ।जबकि वह उम्र में मुझ से तीन-चार साल ही छोटी रही होंगी ।फ़र्क़ इतना भर था कि उनके केश डाई किये हुए थे और मेरे बग़ैर डाई के खिचड़ी नुमा।
मैंने अंकल संबोधन पर ध्यान न देते प्रश्न वाचक नज़रों से उनको निहारा ।उन्होंने अपने बैग से एक छपा पर्चा मुझे देते हुए कहा कि वह बच्चों के लिए आफ्टर स्कूल प्रोग्राम चलाती हैं ।प्रोग्राम में किंडरगार्टन के लिए रोबोटिक्स ,टॉडलर्स के लिए मंदारिन क्लास जैसे अनेक कोर्स है ।
मुझे अपने बचपन की पाठशाला याद हो आई जब छुट्टी के बाद मूँगफली , चने आदि बेचने वाले हमें घेर लेते थे ।आज यह पब्लिक स्कूल है तो माडर्न विक्रेता हमें विदेशी संस्कृति बेचने मे प्रयास रत हैं।जो भी हो मैं लाल लिपस्टिक के जाल में नहीं फँसा।
एक और मॉम हैं जो हमेशा वर्कआउट-गियर में सजी-धजी रहती हैं ।वह अपने बच्चे का इंतज़ार करते समय पार्किंग में दौड़ लगाती रहती हैं ( पुरुष इस दौड़ को मज़े से देखते हैं, नज़रें बचाकर मैं भी देख लेता हूँ )।वह बाक़ी मॉम को भी बतलाती हैं कि रोज़ाना कितने स्टेप्स ज़रूरी हैं।स्टेप्स यानि कदम-ताल। क़दम-कदम बढ़ाये जा ज़िंदगी के गीत गाये जा।
किंतु हक़ीक़त में कोई क़दम ताल नहीं है और न भाईचारे के गीत।एक दौड़ सी मची है ।सब दौड़ रहे हैं एक अदृश्य से गंतव्य की ओर।बस एक ही धुन है-बच्चे का कैरियर ।मुझे याद है बचपन में कंधे पर बस्ता लटकाए मैं दो मील पैदल स्कूल जाता था।न कोई मुझे स्कूल छोड़ने जाता था और न कोई लेने।स्कूल से लौटते समय कभी झरबेरी के खट्टे-मीठे बेरों से बस्ता भरा होता कभी जंगल जलेबी और शहतूतों के गुच्छों से।तब कैरियर का कोई फ़ंडा नहीं था ।पता ही नहीं चला कि कब गिल्ली-डंडा खेलते-खेलते मेरा कैरियर बन गया………………आज……..
हर चेहरे पे एक मुखौटा है , अजब कैसा ये तमाशा है।
माना कि दौर बदल रहा है यारों ,
पर फ़िज़ाओं में तैरती सी क्यों ये अबूझ सी हताशा है ?
*********समाप्त******** रचयिता—नरेश वर्मा