“बड़े भैया बुआ जी नहीं रहीं !”यह कहकर बल्लू फूट-फूट कर रोने लगा।
“अरे कब हुआ ,,, क्या हुआ अचानक ?”
“कल तक ठीक थी बड़े भैया रात में अचानक की सांस लेने में कुछ ज्यादा ही तकलीफ होने लगी और देखते ही देखते बल्लू आगे कुछ नहीं कर पाया।
वह फूट-फूट का रोने लगा।
“ आप लोग जल्दी आइए!”
“ हां हां बिल्कुल हम तुरंत ही निकलते हैं!” आशीष ने फोन रखते हुए अपनी पत्नी को सारी बातें बताई और सब लोग जल्दी-जल्दी पैक कर अपने गांव के लिए निकल चले।
वहां जाना भी आसान नहीं था। मुंबई से डायरेक्ट फ्लाइट नहीं थी।
पहले दिल्ली उसके बाद लखनऊ और फिर वहां से टैक्सी से अपने गांव मैनापुर। वहां के लिए ट्रेन की सुविधा भी नहीं थी। बस या फिर टैक्सी।
पूर्णिमा देवी यानी आशीष की बड़ी बुआ की मृत्यु बीते दिन हृदयाघात से हो गई थी।
उनके पति फौज में थे। देश सेवा में उन्होंने अपने प्राण निछावर कर दिए थे।
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पति के मरने के बाद उन्हें ससुराल वालों ने कही का नहीं छोड़ा था।
उनकी बुरी हालत देखकर आशीष के दादा जी अपनी बेटी पूर्णिमा और उनके बच्चों को लेकर अपने घर ले आए और उनकी और उनके बच्चों की परवरिश की जिम्मेदारी लें लिया था। वह वहीं हवेली में सबके साथ रहती थी।
मरने से पहले उन्होंने पूर्णिमा को भी अपने जायदाद में हिस्सा दिया था।
धीरे-धीरे हवेली में पूर्णिमा रह गई थी। बाकी लोग नौकरी के लिए बाहर निकल गए थे।
उनके दोनों बेटे बहुत ही नालायक और मतलबी निकल गए थे।
अपनी बुआ की देखरेख का जिम्मा आशीष ने ही उठा रखा था।उसी ने बल्लू और उसके परिवार को हवेली में पूर्णिमा की सेवा करने के लिए रखा हुआ था।
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शाम होते होते पूरा घर परिवार इकट्ठा हो गया।
देखते देखते तेरह दिन बीत गए,पता ही नहीं चला।
पूर्णिमा बुआ के दोनों बेटों ने जीते जी तो कोई सुध नहीं ली लेकिन मरने के बाद उनकी संपत्ति और जेवरों पर अधिकार जमाने वहां पहुंच गए।
“मां ने अपने वसीयत में क्या-क्या लिखा है,यह सबकुछ साफ-साफ हो जाना चाहिए।”
पूर्णिमा का बक्सा खोला गया तो वहां कोई गहना नहीं था।
“अरे मां के बक्से में तो उनका ना कान के झुमके हैं नहीं कंठहार है!!
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सब कुछ कहां गया ?
बल्लू ही यहां रहता था, उसे ही पता होगा।
बल्लू मां के कंठहार और बाकी गहने कहां गए ?”
पूर्णिमा बुआ के बेटों ने बल्लू पर लांछन लगाने लगे।
“भैया हमने कुछ नहीं किया! हमें तो कुछ पता भी नहीं है!! यह आरोप मत लगाइए हमपर गरीब है तो क्या हुआ ऐसे काम नहीं कर सकते हैं हम!”
बल्लू फिर से एक बार रोने लगा।
लेकिन यह सच था कि पूर्णिमा बुआ के साथ सिर्फ बल्लू ही रहता था। उनके दोनों बेटे तो कभी झांकने भी नहीं आते थे।
बल्लू की ईमानदारी पर आशीष को भी शक होने लगा।
बल्लू बार-बार पूर्णिमा बुआ की कसम खाता लेकिन कोई उसपर यकीन नहीं कर रहा था।
2 दिन बाद वकील साहब आए। उन्होंने पूर्णिमा जी के वसीयत को पढ़ते हुए कहा पूर्णिमा जी ने अपने सारे गहनों को अनाथालय को डोनेट कर दिया है और यह घर बल्लू के नाम कर दिया है।
उन्होंने लिखा है कि “मैं यह घर अपने बेटे बल्लू के नाम कर रही हूं।”
वकील साहब का वसीयतनामा पढ़कर पूर्णिमा बुआ के दोनों बेटों के सिर शर्म से झुक गए।
बल्लू ने अपने हाथ जोड़कर कहा “नहीं वकील साहब,हम यह घर अपने नाम नहीं ले सकते।
हमने तो उनकी सेवा की है। उनके नौकर ही भले।यह घर उनके दोनों बच्चों का है।यह उन्हें ही दे दीजिए।”
फिर उसने आशीष से कहा
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“साहब, आपने बुआ जी की जिम्मेदारी दी थी।अब जिम्मेदारी खत्म। हमें अब इजाजत दीजिए।हम यहां से इज्ज़त पूर्वक जाते हैं।”
“नहीं बल्लू! रुको, तुम कहीं नहीं जाओगे। यहीं रहोगे।”यह आवाज पूर्णिमा बुआ के बेटे की थी।
वह शर्मिंदगी से भर कर माफी मांगते हुए कहा
“बल्लू, मुझे माफ कर दो। मैंने तुमपर लांछन लगाया और तुम्हारे साथ गलत किया। वाकई तुम ही मां के असली बेटे हो और इस घर के हकदार भी।”
“नहीं भैया हम यहां नहीं रुक सकते अब,अपना आत्मसम्मान सबसे पहले है मेरे लिए। आशीष भैया ने बुआजी की जिम्मेदारी दी थी वह हमने निभा दिया अब सबको राम राम!”
बल्लू अपने सामान बांध कर अपने परिवार के साथ अपने गांव के लिए निकल गया और सब उसे देखते रहे।
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सीमा प्रियदर्शिनी सहाय
#आत्मसम्मान
पूर्णतः मौलिक और अप्रकाशित रचना