कारगिल_एक_प्रेमकथा (भाग-17) – अविनाश स आठल्ये : Moral stories in hindi

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अब तक आपने पढ़ा- मेजर बृजभूषण पांडे  रेल मार्ग से कटरा से जम्मू पहुँचतें हैं, और फिर  सेना के व्हीकल से सड़क मार्ग से कारगिल तक  का रास्ता तय करते हैं, वह द्रास की एक चोटी को मुक्त कराने वाली 18 सदस्यीय टीम का हिस्सा बनकर इसकी 6 सदस्यीय उप टीम बीटा टीम का नेतृत्व करतें हैं, जहां अल्फा टीम द्रास की उस चोटी पर विजय प्राप्त कर लेती है, वहीं बीटा टीम के सभी 6 सदस्य पाकिस्तानी सेना द्वारा पकड़े जातें हैं, जिनकी अत्यंत अमानवीय तरीके से प्रताड़ना देकर हत्या कर दी जाती है, मेजर पांडे का उनके निवास स्थान उमरिया जिले में ही पूरे राजकीय सम्मान के साथ अंतिम संस्कार किया जाता है।

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अब आगें..

मेज़र पांडे के पिता दाहसंस्कार द्वारा पश्चात घर आ गये..उर्वशी ने उनसे विदा मांगी, मेज़र पांडे के पिता ने भावुक होकर उर्वशी को विदा करतें हुये कहा..अब मेरा बेटा नहीं है, इसलिए तुम्हारे लिये यह बाध्यता तो नहीं है मगर मेरा निवेदन है कि तुम अपने इस पिता से सम्बंध जोड़े रखना.. मुझे तुममें अपने बेटे का अस्तित्व नज़र आता है यहां आती रहोगी तो बेटे की कमी महसूस नहीं होगी।

उर्वशी ने उनसे फिर मिलने का वचन लेकर उनसे विदा ली। उसने पंकज जीजाजी और वन्दना दीदी  के साथ दिल्ली जाने कि बजाय अपने पिता के पास पचमढ़ी के “झिरपा गाँव” जाने का निश्चय किया।

दूसरे दिन के अखबारों में उर्वशी और मेज़र पांडे के बारे में खबर छपी थी..

उर्वशी के ऑफिस स्टाफ ने भी उर्वशी और मेज़र पांडे के प्रेम संबंधों की खबरें समाचार पत्रों में पढ़ी थी, सभी को उर्वशी से गहरी सहानुभूति थी, उर्वशी के बॉस ने स्वयं ही उर्वशी को 15 दिन की छुट्टी दे दी ..

उस बड़े से घर में उर्वशी और उसके पिताजी जैसे तैसे करके अपना वक्त काट रहें थे।

बिना कुछ कहे ही पिताजी उर्वशी की आँखों को पढ़कर उसका दर्द समझ रहें थे..

लगभग एक सप्ताह पिताजी के पास रहकर, उर्वशी दिल्ली आकर वंदना दीदी के पास चली जाती है,  सबकुछ होकर भी उर्वशी को अपने भीतर एक खालीपन सा महसूस हो रहा था, तीन दिन वंदना दीदी के यहाँ रहकर वापस शिमला आकर अपनी ड्यूटी जॉइन कर लेती हैं।

इधर कारगिल युद्ध समाप्त हो चुका होता है, भारत की सेना ने अपनी खोई हुई चोटियों को वापस पाकिस्तान से छीनकर तिरंगा फहरा दिया था। धीरे धीरे देश सैनिकों की शहादत भूलकर कारगिल विजय के उत्साह में डूबने लगा था।

कहतें हैं कि वक्त सभी जख्मों को भर देता है.. मगर उर्वशी के साथ तो उल्टा हो रहा था। वह दिन ब दिन मेज़र पांडे की यादों में खोने लगी थी.. उसे हर पल यही लगता कि अभी मेज़र पांडे पीछे से आकर उसकी आँखों को हथेलियों से ढककर पूछेंगे.. उर्वशी पहचानों जरा मैं कौन हूँ..

सगाई की अंगूठी अब भी उर्वशी को मेज़र पांडे के हाथों का स्पर्श करा रही थी।

रविवार को उर्वशी जब भी अपनी एक्टिवा से घर से निकलती तो न जानें कौन सी अदृश्य शक्ति उर्वशी को खुद ब खुद उन्हीं पहाड़ियों के बीच उस झील तक ले जाती हैं.. जहाँ उर्वशी और मेज़र पांडे ने घण्टों बैठकर प्यार की बाते की थी और अपना एकमात्र वेलेंटाइन डे मनाया था।

वही झील.. वैसे ही सूरज की किरणों से चाँदी के दर्पण का अहसास कराती, वैसे ही चीड़ और देवदार के वृक्षों की छाया उस झील पर पड़ती हुई.. सब कुछ वैसा ही था जैसा उस दिन था.. सिवाय मेज़र पांडे के.. जो अब न जाने किस दुनियां में खो चुका था।

इतने दिनों से ख़ामोश उर्वशी के मुँह  से अचानक आरज़ू फ़िल्म का वह दर्दभरा गीत निकल पड़ा जो वह कभी बचपन में रेडियो पर सुना करती थी।

“बेदर्दी बालमा तुझको मेरा मन याद करता है,

बरसता है जो आँखों से वो सावन याद करता है,

कभी हम साथ गुज़रे जिन सजीली राह्गुजारों से,

फिजा के भेष में गिरते हैं अब पत्ते चनारों से,

ये राहें याद करती हैं ये गुलशन याद करता है

बेदर्दी बालमा…,

कोई झोंका हवा का जब मेरा आँचल उड़ाता है,

गुमां होता है जैसे तू मेरा दामन हिलाता है,

कभी चूमा था जो तूने वो दामन याद करता है

बेदर्दी बालमा…,

वो ही हैं झील के मंज़र वो ही किरणों की बरसातें,

जहाँ हम तुम किया करते थे पहरों प्यार की बातें,

तुझे इस झील का खामोश दर्पण याद करता है

बेदर्दी बालमा…”

उर्वशी सोच रही थी कितना साम्य था लता मंगेशकर जी के गाये इस गीत के बोलों और उसकी इस दशा में मानों यह गीत उसी के लिए लिखा गया हो।

उर्वशी की भूख और प्यास यहाँ तक कि जीवन जीने की लालसा सभी कुछ खत्म हो चुकी थी। उर्वशी अब “जिंदा लाश” बन चुकी थी, उसे “क्रोनिक डिप्रेशन” होने लगा था।

ऑफिस स्टाफ़ के किसी सहकर्मी ने वंदना जी को फोन करके उसे उर्वशी की मानसिक स्तिथि के बारें में बताया.. वंदना और पंकज जी  ने तुरंत ही अपनी कार से शिमला पहूँचकर उर्वशी के ऑफिस स्टाफ़ से मिलने का निश्चय किया।

उर्वशी के बॉस ने पंकज गौतम से उर्वशी का इलाज दिल्ली के किसी अच्छे मनोरोग विशेषज्ञ से कराने की सलाह दी.. तब तक के लिए उसे मेडिकल लीव स्वीकृत कर दी।

लगभग 6 महीनों के इलाज के बाद उस मनोरोग चिकित्सक ने वंदना और पंकज से उर्वशी का विवाह करवाने की सलाह दी, जिससे उसका मन बहल सकें।

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घर आने के बाद वंदना ने उस डॉक्टर की कही बात पिताजी और मेज़र पांडे के पिताजी दोनों से कही। पिताजी ने तो लोकलाज़ के भय से अभी विवाह के लिए हामी नहीं भरी थी, मग़र मेज़र पांडे के माता-पिता दोनों ने ही उर्वशी के सुखद भविष्य के लिए उसके विवाह के लिए फ़ौरन ही अपनी सहमति और आशीर्वाद दिया।

पंकज गौतम के अपार्टमेंट में ही अगली विंग में एक परिवार रहता था उमेश त्रिपाठी जी का..

पेशे से सिविल कॉन्ट्रैक्टर थे और दिल्ली गुड़गांव और नोएडा में अरबों रुपयों के प्रोजेक्ट थे उनके..विनोद त्रिपाठी उनका इकलौता बेटा था.. वह भी अपने पिता के साथ उनके कारोबार में हाथ बंटाता था..उमेश जी को उर्वशी की सभी बातों की जानकारी थी, उन्होंने स्वयं ही पंकज गौतम के फ्लैट में आकर उनसे अपने पुत्र विनोद के लिए उर्वशी का हाथ मांगा..

उर्वशी की मनोदशा ऐसी न थी कोई उसे मेजर पांडे के अलावा किसी और के साथ नाम भी लेकर देख सकता.. मग़र रिश्ता अच्छा है, यह सोचकर वंदना ने अपने पिताजी से बात की और पिताजी ने मेज़र पांडे के पिता से बात करके उनसे इसकी अनुमति ली।

मेज़र पांडे के पिता ने कहा अग़र उर्वशी खुश रहे तो वह भी खुश हैं हर रिश्ते के लिए।

उर्वशी अभी भी किसी से भी विवाह के लिए तैयार नहीं थी. मग़र जब मेज़र पांडे के पिता ने उसे मेज़र पांडे के कहे आखिरी शब्द याद दिलाये कि “यदि वह वापस न आये तो उर्वशी का विवाह दूसरी जगह करवा देना.

इन शब्दों को मेज़र पांडे की अंतिम इच्छा समझ कर ही सही, उर्वशी किसी प्रकार विनोद त्रिपाठी से विवाह करने के लिए राजी हो जाती हैं।

उमेश त्रिपाठी ने अपने सारे संसाधन लगाकर धूमधाम से विनोद और उर्वशी की शादी करवाई.. इस शादी में उमेश त्रिपाठी ने  ससम्मान मेज़र पांडे के पिता को भी आमंत्रित किया कि वह आकर वर-वधु को आशीर्वाद दें।

इस प्रकार उर्वशी पांडे परिवार की बहू बनते बनते त्रिपाठी परिवार की बहू बन गई।

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विवाह के पश्चात उर्वशी ने जब पहली बार त्रिपाठी जी के यहाँ कदम रखें तो वह उनके यहाँ की भव्यता देखकर दंग हो गई, अत्याधुनिक सुविधाओं से युक्त शानदार फ्लैट था वह।

उस फ्लैट में सबकुछ तो था मग़र उर्वशी को सबसे प्रिय मेज़र ब्रजभूषण पांडे नहीं थे.. तो भला उर्वशी कैसे खुश रह सकती थी।

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