दूसरे दिन जब भास्कर राव त्रिवेदी पत्नी सुलक्षणा के साथ, वीरेश्वर मिश्रा से अपने घर दिल्ली में वापस जाने की इजाज़त मांगने के लिए उनके कमरे में गए, तो देखा कि वीरेश्वर मिश्रा अभी-अभी आए एक टेलीग्राम को पढ़ रहे थे।
उनकी आँखों में आँसू देखकर किसी अनहोनी कि आशंका से भास्कर राव त्रिवेदी ने वीरेश्वर से पूछा कि सब कुशल मंगल तो है न? क्या लिखा है इस तार में?
भास्कर राव ने अपने वापस जाने की अनुमति लेना भूल कर, वीरेश्वर मिश्रा से उसके ही बारे में पूछते हुए सवालों की झड़ी लगा दी थी।
वीरेश्वर मिश्रा ने भास्कर राव को गले लगाते हुए कहा, अपनी बेटी अनुराधा का आईएएस में चयन होने के बाद उसे दो वर्षो के लिए ट्रेंनिग में “लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी, मसूरी, उत्तराखंड” जाना है, यह लिखा है इस टेलीग्राम में, अभी अगर उसकी माँ होती तो कितना खुश होती यही सोचकर मेरी आँख से आँसू आ गए थे।
आननफानन में सुलक्षणा ने रसोई घर में जाकर सूजी का हलुआ बना लिया, तब तक अनुराधा जो किसी काम से बाहर गई थी वह भी घर आकर सूजी के हलुए की खुशबू को सूंघते ही खुशी से सुलाक्षणा को पीछे से छोटे बच्चे की तरह झूमते हुए बोली कि क्या बात है… आंटी जी आज किस खुशी में मेरा फेवरेट हलुआ बना है, कहीं आपका या भास्कर अंकल जी का जन्मदिन तो नहीं आज?
यह कहते हुए अनुराधा बच्चों कि तरह, प्लेट में रखे हुए हलुए को खाने के लिए चम्मच बढ़ाया कि सुलक्षणा ने उसे डाँटते हुए बोला इतनी बड़ी हो गई है पर अक्ल नहीं है तेरे को, जा पहले इस हलुये का भगवान् को भोग लगा कर आ और फिर अपनी मन मांगी मुराद पूरी होते देखना।
सुलक्षणा की इस मीठी डांट को सुनकर त्रिवेदी जी और वीरेश्वर मिश्रा जी भी हंस दिए, भगवान को भोग लगा कर अनुराधा ने सबको उस हलुये के प्रसाद को बांटकर सभी का पैर छू कर आशीर्वाद लिया, अभी तक उसे टेलीग्राम की खबर का पता नहीं था।
सूलक्षणा ने अनुराधा के कान पकड़ कर कहा कि तो फिर क्या मांगा तुमने भगवान से? अनुराधा ने सुलक्षणा को गले लगाते हुए कहा कि मैंने तो भगवान से बस यही मांगा है कि मुझे सारी उम्र आपके हाथ का बना हलुआ खाने को मिले, उसके ऐसा कहते ही भास्कर राव, वीरेश्वर मिश्रा और सुलक्षणा खिलखिला कर हंस दिए..
तभी वीरेश्वर जी ने गंभीर होते हुए कहा कि बेटी मुझे बेहद दुख के साथ कहना पड़ रहा है कि तुम्हारी ये मुराद अभी कम से कम दो वर्ष के लिए भगवान ने नामंजूर कर दी है, यह सुनते ही अनुराधा रुआंसी होकर बोली, क्यों अंकल और आंटी इतनी जल्दी घर वापस जा रहे हैं? पापा आप इन्हे यहां और रुकने का आग्रह कीजिए न, आंटी जी के रहने से मुझे अब माँ की कमी महसूस नहीं होती, बोलते बोलते अनुराधा भावुक हो चली थी।
इस पर वीरेश्वर ने टेलीग्राम को आगे बढ़ाते हुए अनुराधा को कहा लो तुम खुद पढ़ लो मैंने ऐसा क्यों कहा।
भयभीत सी होकर अनुराधा टेलीग्राम हाथ में ले कर पढ़ने लगी, और फिर खुशी से उछल पड़ी, अरे मुझे तो ट्रेंनिग का काल आ गया मसूरी जाने के लिए, दो वर्ष के लिए।
फिर अचानक रुआंसी होकर बोली पापा आपके बिना दो वर्ष कैसे रहूंगी? वीरेश्वर मिश्रा ने बेटी को गले लगाकर सिर पर थपकी देते हुए कहा कि जैसे तेरी माँ के बिना मेरे दो वर्ष गुज़र गए है, वैसे ही ये दो साल भी निकल जाएंगे, और वैसे भी बेटियां कभी भी हमेशा के लिए तो अपने पिता के पास थोड़ी ही रहती हैं, एक न एक दिन तो उनको शादी करके अपने ससुराल में जाना ही पड़ता है, तेरी यह ट्रेंनिग नहीं भी होती तो भी तू मेरे पास और भला कितने साल रहती?
पल पल में घर का जो माहौल अनुराधा के ट्रेंनिग में जाने के लिए खुश था, उसके दो साल के लिए घर से दूर होने कि बात से ही दुःखमय हो गया था।
भास्कर राव त्रिवेदी ने सुलक्षणा को कहा कि अपने वापस जाने की बात हम अनुराधा के ट्रेंनिग में जाने के बाद वीरेश्वर से कर लेंगे, अभी वैसे ही वो अनुराधा के जाने के नाम पर दुखी है, तुम अनुराधा की तैयारी में मदद करो, सही समय पर हम वीरेश्वर से बात करके नोएडा चले जाएंगे।
★
सुलक्षणा ने अनुराधा से कहकर कुछ सामान मंगा लिया, और रात भर जाग कर उसने अनुराधा के लिए अचार, मगज के लड्डू, और मठरी आदि बनाकर रख लिए, दूसरे दिन अनुराधा ने सुबह जब यह सब खाने का सामान पैक करते सुलक्षणा को देखा तो एक बार फिर से अनुराधा की आँख में आँसू आ गए, उसने कहा कि सच में जब भी मै किसी ट्रिप पर जाती थी तो माँ भी बिल्कुल इसी तरह मेरे लिए खाने के पव्यंजनों कि तैयारी कर देती थी, आज उनके जाने के बाद, आपने उनकी कमी पूरी कर दी है।
सुलक्षणा ने अनुराधा को प्यार से चिपका कर कहा कि तू भी तो मेरी बेटी जैसी ही है, तू मुझे आंटी न कहकर “माँ “कह सकती है।
अनुराधा को मसूरी जाने के लिए रेलवे स्टेशन छोड़ने के लिए वीरेश्वर मिश्रा और अनुराधा के साथ साथ भास्कर राव और सुलक्षणा भी साथ मे ही चल दिये थे, ट्रेन में बैठने के बाद अनुराधा ने सुलक्षणा से कहा “मां” आप अपना और इन सबका ध्यान रखना।
ट्रेन धीरे धीरे रफ्तार पकड़ रही थी, और उससे भी तेज रफ्तार थी सुलक्षणा के अंतर्मन की, आज सच मे उसने कितने समय बाद “माँ” यह शब्द सुना है, बेटे अरविंद से तो लगभग 6 महीने से कोई बात भी नहीं हुई, अब तो उसको स्वयं भी अरविंद से बात करने का मन नहीं करता, अपना बेटा था तो क्या फिर भी कोई इतना रूखा व्यवहार करता है अपने माता पिता से.. एक यह अनुराधा है, कोई रिश्ता न हो कर भी मेरे मन के कितने करीब हो गई है, जैसे कि मेरी खुद की बेटी हो, सोचते सोचते कब वह लोग वीरेश्वर मिश्रा के घर तक पहुंच गए पता ही न चला।
अगला भाग
कुटील चाल (भाग-4) – अविनाश स आठल्ये : Moral stories in hindi
स्वलिखित
अविनाश स आठल्ये
सर्वाधिकार सुरक्षित