दुनिया का दस्तूर – विभा गुप्ता : Moral Stories in Hindi

   ” माँ- माँ..देखो ना..छोटे को बहुत चोट लगी है।” कहता हुआ बारह वर्ष का आशुतोष अपने छोटे भाई अंकित का हाथ पकड़कर दौड़े अपनी माँ सुनंदा के पास आया।वहीं पर बैठी सुनंदा की माँ आशुतोष के कान पकड़ने लगी तभी सुनंदा ने आकर अपनी माँ का हाथ रोक लिया,” नहीं माँ..आशुतोष को कुछ न बोलो।ज़रूर किसी बच्चे ने..।” कहकर वो अंकित के हाथ से बहते खून को पोंछने लगी।

    ” हाँ माँ..वहाँ मैदान में बच्चे खेल रहे थे ना…छोटा उनकी गेंद लेने लगा तो एक भइया ने उसे धक्का दे दिया।” कहते हुए आशुतोष के चेहरे पर गुस्सा था।सुनकर सुनंदा मुस्कुराई और आशुतोष को अपने पास बुलाकर बोली,” देख तो..तेरे पैर पर भी कितनी खरोंचें आईं हैं..।” कहते हुए वो उसके पैरों पर डिटाॅल लगाने लगी।आशुतोष के प्रति बेटी का दुलार देखकर माताजी भुनभुनाने लगीं,” सौतेला भी कभी अपना हुआ है।”

         आशुतोष के पिता हरिकिशन किसान थे।उनकी पत्नी सुशीला एक सुघड़ गृहिणी थी।आशुतोष जब पाँच बरस का था, तब सुशीला दूसरी बार माँ गर्भवती हुई।सब कुछ ठीक था कि अचानक छठे माह में उसे एक गंभीर बीमारी ने अपनी चपेट में ले लिया जो गर्भ के बच्चे के साथ-साथ उसे भी लील गयी।

      हरिकिशन की दुनिया उजड़ गई..मातृविहिन आशुतोष को अपने सीने-से लगाये वो दिन-रात आँसू बहाते रहते।तब उनकी रिश्ते की बुआ जो इस कठिन समय में आशुतोष की देखभाल कर रहीं थीं, ने उन्हें फिर से विवाह करने की सलाह दी।तब अपने बेटे की खातिर उन्होंने अपने एक परिचित की बहन सुनंदा से विवाह कर लिया।

     कुछ ही दिनों में आशुतोष अपनी नई माँ से हिलमिल गया।दो बरस बाद अंकित का जन्म हुआ तो रिश्तेदार कहने लगे,” दुख की घड़ी में साथ खड़े होने के लिये कोई अपना तो होना ही चाहिए।” आशुतोष का अपने छोटे भाई के लिये स्नेह देखकर सुनंदा अक्सर अपने पति से कहतीं,” ईश्वर दोनों भाईयों के बीच के प्यार को बनाये रखे…विपत्ति की घड़ी में दोनों भाई ऐसे ही एक-दूसरे का हाथ थाम रहे।” 

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    सुनंदा का मायका पास ही में था, इसलिए उनकी माँ  अक्सर ही उनके पास आ जाती थीं।अपनी बेटी का सौतेले बेटे के प्रति अपार-स्नेह देखकर उन्हें बड़ी चिढ़ होती थी।वो आशुतोष को डाँटने के लिये कोई न कोई बहाना ढूँढतीं रहतीं थीं।अपने नाती अंकित को रोते देखीं तो आशुतोष को कसूरवार मान उसके कान ऐंठने लगीं तो सुनंदा ने उन्हें रोक दिया।

       समय के साथ सुनंदा के दोनों बेटे सयाने हो रहे थे।आशुतोष के इंटर-परीक्षा का रिजल्ट निकला था।वो प्रथम श्रेणी से उत्तीर्ण हुआ था।अपने पिता को यही खुशखबरी देने वो घर आया तो देखा कि पिता फ़र्श पर चिरनिद्रा में सोये हुए थे और माँ के साथ छोटे पिता से लिपटकर रो रहा था।उसने अपनी माँ और अंकित को अपनी बाँहों में समेट लिया और बोला,” मैं हूँ ना…हमेशा आपके साथ..।

” उसी दिन से आशुतोष ने अपने पिता की ज़िम्मेदारी अपने सिर पर ले ली।वह स्वयं खेती का काम देखने लगा और अंकित को पढ़ाने लगा।माँ से अक्सर कहता,” देख लेना माँ…एक दिन अंकित बहुत बड़ा आदमी बनेगा और हम दोनों भाइयों का प्रेम गाँव के लिये एक उदाहरण बन जाएगा।” मगर इंसान का सोचा हुआ तो कभी पूरा होता नहीं।

         अच्छी लड़की देखकर सुनंदा ने आशुतोष का ब्याह कर दिया।शहर के नामी इंजीनियरिंग काॅलेज़ में अंकित ने दाखिला ले लिया।बहू का सुख और एक पोते का मुख देखकर सुनंदा ने दुनिया को अलविदा कह दिया।डिग्री मिलते ही अंकित को दिल्ली की एक कंपनी में नौकरी भी मिल गई।

     अंकित का अपनी भाभी जानकी के साथ खूब बनती थी।वो जब भी घर आता तो अपने भतीजे के लिये खिलौने और भाभी के लिये साड़ी या श्रृंगार का सामान लाना कभी नहीं भूलता।एक दिन उसने अपनी भाभी से कहा कि उसके मित्र की बहन है राशि।दोनों एक-दूसरे को पसंद करते हैं और शादी करना चाहते हैं।प्लीज़..आप भईया को मना लीजिये ना..।हँसते हुए जानकी बोली,” तेरे भईया ने कभी अपने छोटे की बात टाली है जो अब टालेंगे।”

     आशुतोष और जानकी ने शहर जाकर राशि को देखा और उसके परिवार वालों से मिलकर अंकित-राशि का चट मंगनी पट ब्याह कर दिये।वर-वधू तीन-चार रुक कर वापस शहर चले गये।उसके बाद से अंकित जब भी आया तो अकेले।जानकी बहू के लिये पूछती तो कहता,” ठीक है..अगली बार आयेगी।”

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      देखते-देखते तीन महीने बीत गये।अब अंकित आता तो भाभी-भतीजे से मिले बिना ही खेत पर भाई से मिलता..दोनों के बीच कुछ बातें होती और वो वहीं से वापस चला जाता।जानकी पति से पूछती तो आशुतोष गंभीर हो जाते।फिर एक दिन अचानक अंकित और राशि आये।जानकी ने खुश होकर पानी देना चाहा तो राशि बोली,” नाटक करने की ज़रूरत नहीं है..पिताजी की संपत्ति का बँटवारा करके हमारा हिस्सा दे दीजिए वरना कोर्ट…।”

  ” बहू…ये क्या कह रही हो…सब कुछ तुम लोगों का ही तो है।बँटवारा’ शब्द कहकर माँ-पिताजी की आत्मा को चोट तो न पहुँचाओ…छोटे, तू चुप क्यों है..बोलता क्यों नहीं है कि…।” जानकी के स्वर काँपने लगे थे।

 ” राशि ठीक ही तो कह रही है भाभी…मेरा आना अब हो न सकेगा..तो..।” घर से आवाज़ें बाहर जाने लगीं तो मौके की तलाश में बैठे लोग आपस में कहने लगे,” ये तो होना ही था।संपत्ति का मोह ही ऐसा है कि जो रिश्ता विपत्ति बाँटने के लिये बनाया जाता है वह खुद संपत्ति बाँटने के चक्कर में बँट जाता है।”

     आशुतोष के लिये यह आघात असहनीय था।खुद को संयत करके बोले,” छोटे..हम तो तीन प्राणी हैं।घर का एक कोना और गुज़ारे भर के लिये ज़मीन का टुकड़ा बस हमें दे दे।किसी को बुलाना मत..ज़मीन के टुकड़े होते देख हमारे पुरखों की आत्मा को चोट पहुँचेगी।” जानकी कलप उठी थी।

       बस उस दिन अंकित और राशि ने आशुतोष को रहने-गुज़ारे भर की ज़मीन देकर बाकी संपत्ति पर अपनी मुहर लगाकर जो गये फिर पलटकर नहीं देखा कि उनके अपने किस हाल में हैं।

        आशुतोष का बेटा आशीष पढ़ने में होशियार था।आठवीं कक्षा के बाद उसे वज़ीफ़ा मिलने लगा।बारहवीं के बाद उसने स्काॅलरशिप से ही इंजीनियरिंग की पढ़ाई की और मुंबई के एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी करने लगा।जानकी ने उसकी पसंद की लड़की से उसका विवाह करा दिया।कभी वो दोनों बेटे-बहू से मिल आते तो कभी आशीष आ जाता।

      आशुतोष का शरीर कमज़ोर होने लगा तो उन्होंने खेती के लिये उसने दो मज़दूर रख लिये।बँटवारे’ का घाव जानकी के सीने में नासूर बन गया था।एक दिन पति से बोली,” सुनिये जी..बहू का सुख भोग लिया..पोता-पोती को भी गोद में खेला लिया…एक बार छोटे को देख लेती तो..।” उस दिन अपना मुँह दबाकर आशुतोष बहुत रोये थे।जानकी चली गई और आशुतोष अकेले रह गये।

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      एक दिन शाम का दीया जलाकर आशुतोष अपनी पत्नी की तस्वीर से बातें कर रहें थें उन्हें किसी के सिसकने की आवाज़ सुनाई दी।कमरे से बाहर निकले तो दालान में उन्हें धुंधली आकृति दिखाई दी।अचानक वो आकृति उनके चरणों से लिपटकर रोने लगी,” भईया..मुझे माफ़ कर दीजिये…अपनी पत्नी और ससुराल वालों की बातों में आकर मैंने संपत्ति के नहीं बल्कि अपने रिश्ते का बँटवारा कर दिया था।आज जब खुद पर…।” 

   ” क्या हुआ छोटे..।” आशुतोष ने अपने भाई के आँसू पोंछे।अंकित अपनी पत्नी, बच्चे और ससुराल वालों के बारे में पूरी बात बताते हुए बोला,” संपत्ति के नशे में चूर होकर जैसे मैं रिश्ते को भूल गया था, आज मेरे दोनों बेटे भी उसी संपत्ति के लिये एक-दूसरे पर चढ़े बैठे हैं।अपने कलेजे के टुकड़ों को बँटते देखा तो भईया मेरा कलेजा छलनी हो गया।उस दिन जो मैंने किया था..आपको, भाभी को,माँ- पिताजी को…।” वह फूट-फूटकर रोने लगा।

आशुतोष बोले,” चुप हो जा छोटे..यही दुनिया का दस्तूर है भाई।जो रिश्ता विपत्ति बाँटने के लिये बनाया जाता है वह खुद संपत्ति बाँटने के चक्कर में बँट जाता है।हम-तुम भी…।” कहते हुए वो अपने कंधे पर रखे गमछे से अपनी आँखों के गीले कोरों को पोंछने लगे।

                                    विभा गुप्ता 

                                स्वरचित, बैंगलुरु     

# जो रिश्ता विपत्ति बाँटने के लिये बनाया जाता है वह खुद संपत्ति बाँटने के चक्कर में बँट जाता है”

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