अमावस की रात, कड़ाके की ठंड दिसंबर का सर्द महीना, सब अपने अपने घरों में रजाइयों में लिपटे बंद, ऐसे घनेरे अंधेरे में सन्नाटे को चीरती रुदन की आवाज ने पूरी गली को झकझोर दिया।कोई न कोई तो अनहोनी हुई है, तभी तो इतनी सर्दी में भी यह रुदन।गली के अधिकांश लोगों की निद्रा के साथ सर्दी भी रफूचक्कर हो गयी,वे सब अपने अपने घर की बाहर की लाइट जला कर गली में आ गये, समझने को आखिर माजरा क्या है,क्या अनहोनी किसके साथ हुई है?
गली में ही सेठ रघुनंदन जी का नौकर बीर सिंह का विलाप दिल दहला देने वाला था।सभी जानते थे बीरसिंह सेठ रघुनंदन जी का नौकर तो बस नाम को था,वे तो उसे बेटे से भी बढ़कर मानते हैं।बीरसिंह को दहाड़ मार कर रोते देख सबने उसे ढाढस बधानते हुए उससे घटना की जानकारी मांगी।
हिचकियों के बीच उसने बताया कि घर मे कुछ लोग घुस आये थे,उन्होंने मुझे और सेठ जी को खूब मारा जिससे मैं बेहोश हो गया।होश में आने पर देखा तो बराबर में सेठ जी की लहूलुहान लाश पड़ी थी।सेठ जी मेरे बाप थे,उनकी यह दशा देख मैं तो कुछ सोच ही नही पाया कि क्या करूँ,मैं तो अनाथ हो गया।भैय्या सुभाष भी दो दिनों के लिये रिश्तेदार की शादी में गये हैं।गली के लोग भौचक्के रह गये।उन्होंने अंदर कोठी में प्रवेश करने से पूर्व पुलिस को सूचित कर दिया।पुलिस के आने के बाद ही पुलिस के साथ गली के कुछ लोग
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अंदर गये।अंदर का दृश्य विभत्स था।सिल बट्टा सेठ जी के शव के पास पड़ा था,इस सिल बट्टे की निरंतर चोट करके उनकी निरशंस हत्या की गयी थी।दृश्य भयानक था,देखना तक मुश्किल था।पुलिस ने अपनी औपचारिकताएं पूरी कर लाश का पंचनामा करके उसे पोस्टमार्टम को भिजवा दिया।
सेठ रघुनंदन जी की उम्र लगभग 82-83 वर्ष की थी।उनके एक ही बेटा सुभाष था जो उसी कोठी में अपनी पत्नी तथा अपने दो बच्चों के साथ रहता था।रघुनंदन जी की पत्नी का स्वर्गवास चार वर्ष पूर्व हो गया था।उनके बेटे ने उनकी देखभाल के लिये बीरसिंह को वेतन पर रख दिया था।बीरसिंह रघुनंदन जी का ध्यान बिल्कुल अपने पिता की भांति रखता था।इन चार वर्षों में बीरसिंह को रघुनंदन जी भी उसे अपना दूसरा बेटा ही मानने लगे थे।रघुनंदन जी ने बीरसिंह का बिस्तर भी अपने कमरे में ही लगवा लिया था।
बीरसिंह रघुनंदन जी को सुबह खुद फ्रेश कराने से लेकर नहलाना,खाना खिलवाना कपड़े बदलना सब बीरसिंह ही करता।24 घंटे वह रघुनंदन जी की सेवा में ही रहता।रघुनन्दन जी को तब बड़ी परेशानी का सामना करना पड़ता जब बीरसिंह एक दो रोज के लिये अपने गावँ चला जाता।रघुनंदन जी को तो परेशानी होती ही थी,उनसे अधिक परेशानी उनके बेटे बहु महसूस करते थे।बीरसिंह के रहते वे अपने पिता की देखभाल जरूरत से बेफिक्र रहते थे।रघुनंदन जी सब समझते थे।
इन चार वर्षों में वे भी बीरसिंह की हर जरूरत का ध्यान रखते।बीरसिंह के गावँ में भी वे कुछ न कुछ भिजवाते रहते।असल मे बीरसिंह उनकी देखभाल करने का ही नही उनके अकेलेपन दूर करने का माध्यम भी बन गया था।एक अनजाना रिश्ता रघुनंदन जी एवम बीरसिंह में स्थापित हो चुका था।
अचानक रघुनंदन जी की हत्या ने सब कुछ समाप्त कर दिया। बीरसिंह तभी तो कह रहा था कि मैं तो अनाथ हो गया।पुलिस अपने तरह से जांच करती ही है,उनकी नजरो में सबसे पहले घर के नौकर ही संदेह के घेरे में होते हैं, सो यहां भी बीरसिंह को ही पूछताछ के लिये थाने में बीरसिंह को बुलाया गया।रघुनंदन जी के बेटे सुभाष ने इंस्पेक्टर साहब से कह दिया कि बीरसिंह उनका विश्वासपात्र है,चार वर्ष का उसका कार्यकाल ईमानदारी और वफादारी पूर्ण रहा है।फिर भी बीरसिंह को बुलाया गया।
पुलिस ने अपने तरीके से बीरसिंह से पूछताछ की।संदेहात्मक बयानों के कारण बीरसिंह पर पुलिसिया सख्ती की तो वह टूट गया।उसने बताया कि वह पिछले छः माह से वह रघुनंदन जी से उनके दूसरे मुहल्ले में स्थित एक मकान को अपने नाम करने की जिद कर रहा था।रघुनंदन जी कभी हां कर देते कभी चुप रह जाते, इससे उसे लगने लगा था कि ये मकान नाम करना नही चाहते।इससे उसके मन मे रघुनंदन जी के प्रति गुस्सा बढ़ता जा रहा था।उस दिन उनका बेटा सुभाष तो किसी शादी में चला गया।
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तभी कोई व्यक्ति 12 लाख रुपये सुभाष को न पाकर रघुनंदन जी को दे गया,जो उन्होंने घर की तिजोरी में रख दिये, यह सब बीरसिंह के सामने ही हुआ था।बीर सिंह बोला बस यही उसकी नियत बदल गयी,उसने सोचा यह बुड्ढा मकान तो देगा नही तो आज मौका इन 12 लाख रुपयों के लेने का है।उसने तिजोरी की चाबियां चुराई और रात में तिजोरी को खोलने लगा तो रघुनंदन जी की आंख खुल गयी और उन्होंने मुझे रुपये तिजोरी से निकालते देख लिया।बीरसिंह बोला साहब मैं घबरा गया और मुझे कुछ नही सूझा तो मैंने ही सिल बट्टे से सेठ जी की हत्या कर दी।
रघुनंदन जी की हत्या की गुत्थी सुलझ चुकी थी।वास्तव में हत्या रघुनंदन जी की ही नही हुई थी,हत्या एक विश्वास की भी हुई थी।अगले दिन पुलिस बीरसिंह को जीप में लेकर मजिस्ट्रेट के सामने पेश करने ले जा रही थी तो रेलवे फाटक पर जीप रुकी।जैसे ही ट्रेन उधर से गुजरने वाली थी तो अचानक ही बीरसिंह सिपाही से छूटकर जीप से कूदकर भाग लिया और जोर से बोला साहब जी मैने पाप किया है पर मैं अपने बाबूजी से ही माफी मांगने जा रहा हूं और रोकते रोकते हुए भी बीर सिंह चलती ट्रैन के आगे कूद गया।दूसरे ही क्षण उसके शरीर के चिथड़े पटरी पर फैले थे।
बालेश्वर गुप्ता,नोयडा
एक सच्ची घटना से प्रेरित एवम अप्रकाशित।
*#जो रिश्ता विपत्ति बाटने के लिये बनाया जाता है, वह खुद संपत्ति बाटने के चक्कर मे बट जाता है*