सुबह से ही राखी की तैयारी कर रही थी रजनी।भद्रा लगने के कारण दोपहर को ही राखी बंध पाएगी।रजनी ने सोचा पकवान तो बना ही लूं।निधि भोर पांच बजे पहुंची है बैंगलुरू से।काम से छुट्टी तो नहीं मिली थी, वर्क फ्राम होम ले लिया उसने।नवीन को तो काम पर जाना था।दोपहर तक आ जाएगा वो।
सुमित ने रजनी के दिए लिस्ट का सारा सामान दो दिन पहले ही खरीद कर रख दिया था।उन्हें ही त्योंहारों का विशेष ध्यान रहता है।चाय पीते हुए तिरछी नजर से रजनी की ओर देखकर पूछा सुमित ने”खीर चढ़ा दी है अगर,तो शांति से तुम भी चाय पी लो साथ में।अभी तो दोनों बच्चे सो रहें हैं।”रजनी चाय का कप लाकर बैठी ही थी कि ,
दूध में उफान आना शुरू हो गया।जल्दी से उठकर चार तेजपत्ते डाले दूध में,तब कलछी लगाकर आई।सुमित ने फिर छेड़ते हुए पूछा”तो कितनी देर में बन जाएगी खीर तुम्हारी?”
पति का चिढ़ाने का तरीका समझती थी रजनी, तुनक कर बोली”खीर बनेगी तो समय तो लगेगा।तीन चार घंटे के पहले मेरी खीर नहीं बनती।धीमी आंच में दूध औंटा कर बनाती हूं।हर बार क्यों टोकते हो तुम?”
सुमित रजनी के गुस्से को भांप कर बोले”नहीं-नहीं मैं टोका-टाकी नहीं कर रहा।तुम पसीने से तर बतर हो रही हो।इसलिए बोला ,जल्दी निपटा लो तो फुर्सत में आकर बैठो।”
रजनी चाय खत्म करके रसोई में चली गई।सूखे मेवे, किशमिश गर्म पानी में भिगोकर रखा।फिर दोपहर के खाने की मैनू बनाने लगी।मलाई कोफ्ता सुमित की पसंद का,वेज मंचूरियन बेटे(नवीन)की पसंद का,और निधि के लिए मेरी मलाई मटर।इन सभी डिश के लिए पहले लंबी तैयारी करनी पड़ती है।रजनी को तो पसंद है खाना बनाना।
इस कहानी को भी पढ़ें:
नवीन बिना कुछ खाए ही काम पर गया।आकर नहाकर राखी बंधवाकर ही खाएगा।सुमित भी आफिस चले गए।हाफ डे में छुट्टी हो जाएगी।मतलब दोपहर तक बाप ,बेटा घर पहुंच जाएंगे।तब तक सभी तैयारियां पूरी भी हो जाएंगी।
मटर उबलने चढ़ा दिए,पनीर को मैश कर लिया,गाढ़ी क्रीम पनीर में मिलाने लगी,तभी भगोने में रखी खीर की खुशबू आने लगी।यह सिग्नल था खीर के बन जाने का।रजनी को उस वक्त बहुत संतोष होता था।ढेर सारे कतरे हुए बादाम,पिस्ता से सजाकर भगोने को सीधे पूजाघर में ही रखने की सोची,तभी छोटे भाई की याद आ गई।
खीर का इतना शौकीन था कि पतले दूध में गुड़ डालकर खीर बताने से खुश होकर खा लेता था।कितने सालों से नहीं खिला पाई उसे अपने हांथ से बनी खीर।यही सोचते-सोचते आंखों से कब प्रेम के नीर बहने लगे,पता ही नहीं चला।
“मम्मी,ये क्या ,आज भी खीर बनाते हुए रो रही हो तुम। अच्छा लगता है क्या, आज के दिन तुम्हारा रोना।?”
निधि उठकर रसोई में मां को रोते देखकर डांट रही थी,प्यार से।
रजनी ने जैसे ही कहना शुरू किया कि तेरे छोटे मामा को पसंद है इसलिए,,,,
निधि ने बीच में ही बात काट दी और बोली”इतना लगाव है,प्यार है तो बुलवा लेतीं उन्हें यहां।तुम राखी भी बांध देती और खीर भी खिला देती।नहीं तो तुम ही चली जाती,बांधने।ऐसे मन मारकर क्यों हमारा त्योहार खराब कर रही हो।”
निधि की बात सुनकर रजनी अवाक रह गई।बोली निधि से”मैं अगर चली जाती तो तुम भाई -बहनों की राखी की तैयारी कौन करता।वह भी नहीं आ पाएगा एक दिन की बस छुट्टी है।मुझे नहीं जाने का अफसोस नहीं है बेटा,बस उसकी पसंद का खीर बनाते उसकी याद आ गई।”
इस कहानी को भी पढ़ें:
अभी तो तुम्हें जीना है हमारे लिए – पूजा शर्मा : Moral stories in hindi
निधि को मां का रोना पसंद नहीं आया।साल भर में आई हूं।आज त्योहार है,उस पर मम्मी का रोना अच्छा नहीं लगता।तब तक नवीन और सुमित भी आ गए।रजनी का सारा खाना तैयार था।निधि को बोलकर टेबल पर सजवा दिया रजनी ने।खुशबू से पूरा घर गमकने लगा।सारा खाना अलग से निकाल कर भगवान को भोग लगाया रजनी ने,राखी बांधी,नेंग में ५००रुपए कानोट कान्हा जी के चरणों में रखा।
खाने की टेबल पर सभी खाने की तारीफ कर -कर के खा रहे थे।बस निधि मुंह फुलाए बैठी थी।सुमित ने कहा निधि से”बेटा ,खाकर देख ,आज तुम्हारी मां ने बहुत दिनों के बाद इतना अच्छा खाना बनाया है।आजकल तेरी मां के जोड़ों में दर्द रहने लगा है।ज्यादा चल-फिर नहीं पाती।”
“हां,पता है मुझे।तभी तो मैंने प्लान किया था जोमेटो से आर्डर करने का।आधे घंटे में आ जाता है।फ़ालतू इतनी मेहनत करने की कोई जरूरत ही नहीं।दिन भर दौड़ती रहेंगी,फिर रात में दर्द से भुनभुनाने लगेंगी।”,निधि ने पापा की तरफ देखकर कहा।रजनी ने कहा “अरे सुनो ,पहले राखी बांध लो,फिर खाना खाना।
“नवीनको आसन में बिठाकर निधि ने महंगी वाली राखी बांधी।गिफ्ट भी दिया ।नवीन ने भी बदले में बहन के हाथों में एक लिफाफा दे दिया।अब आई सुमित को राखी बांधने की बारी।रजनी ने अपनी दोनों ननदों की कूरियर से आई राखी ले आई।निधि ही बुआ के नाम से बांधेगी।
राखी बंध जाने के बाद सभी ने खाना खाया।बाद में दालान में बैठकर सब बतिया रहे थे।निधि और नवीन आपस में बात कर रहे थे”, इसीलिए मैं मना करता हूं मम्मी को घर में ज्यादा कुछ बनाने को।देख पूरा दिन लगी रहीं।थक भी जातीं हैं आजकल।सुनती नहीं है बस किसी की बात
इतने ऑप्शन हैं,कहीं से भी मंगा लो खाना।आप आराम से सिर्फ निकालकर खा लो।”
निधि भी कहां पीछे रहने वाली थी,झट बोली”अरे भाई तूने तो मम्मी का रोना नहीं देखा।हर साल लगातार बनेगी ही खीर और रोएंगी भी मम्मी।मैं तो बोर हो गईं हूं,इस खीर से।कुछ और डेज़र्ट्स मंगवा सकतें हैं ना हम भी।पर नहीं,उन्हें खीर तो बनानी है।”
इस कहानी को भी पढ़ें:
पत्नी के आत्मसम्मान के लिए – अंजना ठाकुर : Moral stories in hindi
तभी नवीन ने कहा”देख,बुआ लोग भी कब से नहीं आती अब राखी बांधने।राखी पोस्ट से आ जाती है।ना मामा लोग आंतें हैं मम्मी से राखी बंधवाने।ना मम्मी जाती हैं उन्हें राखी बांधने।इन लोगों ने तो राखी का सिस्टम ही खत्म कर दिया है।अब पापा-मम्मी दोनों कुढ़ते रहें हैं।अरे जाएं ना मन हो तो।इनका अब मन ही नहीं करता।
रजनी और सुमित दोनों ने बच्चों की बातें सुनीं।हंसी भी आ रही थी और रोना भी।सुमित कुछ कहने को हुए तो रजनी ने मना कर दिया।कहा”आज त्योहार के दिन कुछ मत बोलो जी।मन हम नहीं दुखा सकते अपने बच्चों का।कल बात करेंगे।”
रात को बेटी ने जोमैटो से ही खाना आर्डर किया।४००० का बिल था ,दिया उसने ही।बेटे ने केक और कोल्डड्रिंक मंगवाया।सभी ने खाना खाया।सुमित ने जानबूझकर रजनी से कहा”देखो तो,कितना स्वादिष्ट खाना खिलाया आज बच्चों ने।एक तुम हो कि सुबह से पिरी रहती हो रसोई में।अरे आजकल बच्चों को घर के खाने में वैसा स्वाद कहां मिल पाता है।”
रजनी समझ चुकी थी कि सुमित बच्चों की कल की बात का उचित समाधान करना चाहते हैं।उसने कहा”हां,हम दोनों को ही बाहर के खाने का कितना शौक था।अक्सर हम बाहर ही खाते थे। जैसे-जैसे बच्चे बड़े हुए , जिम्मेदारी बड़ी ,हमने अपने शौक ढंक दिए कल के लिए।पैसा ही कहां बच पाता था, बच्चों को एक मुश्त पैसा भेजना पड़ता था।
जानते हो तुम लोग,तुम्हारे पापा बाजार सिर्फ आलू,प्याज,टमाटर , मिर्च, लहसुन,अदरक ले आते थे।हम उसी से नई -नई डिश बनाकर खुशी -खुशी खा लेते थे।तुम्हारे सामने हमेशा अच्छी डिश ही बनाई है मैंने।पापा तुम लोगों के आने की खबर सुनकर ही पूरा बाजार खरीद लाते हैं।तुम्हारी पसंद की एक -एक चीज बनवाते हैं यह बोलकर कि उन्हें पसंद है।”
मम्मी-पापा की बात सुनकर दोनों बच्चे थोड़ा सकपकाए।समझ गए थे कि उनकी बातें हमने सुन ली।चुप थे दोनों।
तभी सुमित एक भरा हुआ लिफाफा लेकर आए।बच्चों को बोला खोलो।निधि और नवीन ने जब खोला तो उसमें रंग -बिरंगी राखियां और कजलियां रखीं थीं।सुमित ने कहा”ये सब तुम्हारी बुआ भेजती आई है,कई सालों से।राखी पर पहले मैं लिवा लाता था।तब उसके बच्चे छोटे थे।सस्ते उपहार से ही खुश हो जाते थे।बहुत पैसे तो होते नहीं थे
इस कहानी को भी पढ़ें:
हमारे पास।तुम्हारी मां लेकिन अपनी ननद को हमेशा चाहे जैसे भी हो सुंदर साड़ी ,और ननदोई को शर्ट पैंट का पीस देती थी।जब उनके बच्चे बड़े हो गए,तो नहीं आना चाहते थे।अब उनकी डिमांड बड़ी हो गईं थीं।तुम लोग भी बाहर पढ़ते थे।घर पर पैसे बचते नहीं थे। धीरे-धीरे बुआ का आना कम हो गया,
पर उसकी राखी हमेशा राखी वाले दिन मेरी कलाई में जरूर बंधी है।मेरा पांच सौ का मनीआर्डर पाकर आज भी वह पिक्चर देखती है।हम अपनी परिस्थितियों से विवश हैं, इसका मतलब यह नहीं है कि हमारे बीच प्यार नहीं है।”
सुमित का गला भी रुंधा था और आंखें भी भींगीं थी।अब रजनी की बारी थी।रजनी ने दोनों बच्चों के हाथों में अपना हांथ रखकर कहा”हमने कम पैसों में ना सिर्फ तुम्हें पाला बल्कि ससुराल और मायके की जिम्मेदारी भी उठाई।जब छोटे थे तुम लोग ,हांथ पकड़ कर कितने उत्साह से ननिहाल जाते थे।वहां के खलवारा बाजार के पेड़े,दालमोंठ खिलाने मामा कंधे पर नवीन को बैठाकर जाते थे।मौसियां निधि को गोद में लिए -लिए पूरा राखी का मेला घुमाती थीं।नानी अपनी पेंशन बचाकर रखतीं थीं राखी के लिए।
हां कभी ऐसा भी हुआ कि बुआ के आने से मैं नहीं जा पाई।पर इसका कभी अफसोस नहीं रहा।तुम दोनों बड़े होते ही रिश्तेदारों के यहां जाने से मना करने लगे।धनी नहीं था तुम्हारा ननिहाल शायद इसलिए।मंहगे गिफ्ट्स नहीं दे पाते थे दोनों मामा,तो तुम लोगों को बुरा लगने से ज्यादा मैं बेइज्जती महसूस करने लगी थी। धीरे-धीरे हमारा जाना भी कम हो गया,कभी मामा लोग नहीं आ पाए आर्थिक तंगी के कारण।पर पापा और मेरी राखी की रस्में कभी बंद नहीं हुई।हम दोनों एक दूसरे के राखी का अधूरा त्योहार सबके पसंद का खाना बनाकर,उन्हें याद कर मना लेतें हैं।
बेटा ,राखी हो या कोई और त्योहार हो,औरतें मजबूर हो जातीं हैं कभी-कभी ऐसी,कि पहुंच नहीं पाती अपने भाइयों के पास।इस ना पहुंच पाने का दंश जीवन भर भाईयों और बहनों के मन पर चुभता रहता है।खुश रहते हैं हम तुम्हें त्योहार मनाते देखकर,कि हमारे जैसे तुम्हारी आस ना टूटे।जब तक तुम दोनों अविवाहित हो,लूट लो सुख के इन पलों को।हमने राखी में सिर्फ अपने भाईयों की कलाई पर धागा ही नहीं बांधा, बल्कि आस-पड़ोस के सभी लोगों को कजलियां भी देते थें गले मिलकर।बड़ों को प्रणाम करते थे तो ईनाम में दो पांच रुपए मिलते थे।छोटों को हम ईनाम में पैसे(कम ही सही)देते थे।
तुम लोगों के मार्डन जमाने में त्योहार रेडीमेड या ऑनलाइन हो जाता है,हमारे समय खुशियों के पतीलों में पुलाव बनते थे।तो तुम यह कभी मत कहना कि तुम्हारे पापा या मैं राखी नहीं मनाते।बुआ का भी कोई दोष नहीं वैसे ही मामा भी निर्दोष हैं।
हमें हमारी राखी बहुत प्रिय है,चाहे जैसी भी मने।ये धागे आज भी हमें अपने भाई-बहनों से जोड़कर रखें हैं।”
शुभ्रा बैनर्जी