रोशन लाल एक मेहनती और ईमानदार व्यक्ति थे।उनके दो बेटे थे-रमाकांत और सूर्यकांत।सामान्य सी परचून की दुकान से रोशन लाल ने अपने दोनो बेटों की अच्छी परवरिश की और उनकी पढ़ाई लिखाई में कोई कमी न आने दी।दोनो बेटे अपने पिता की मेहनत लगन से अनभिज्ञ तो थे नही,सो पढ़ाई से बचे समय मे पिता का सहयोग करते,इससे रोशन लाल को अतीव प्रसन्ता होती।
बच्चो के सहयोग मिलने से दुकान का काम भी बढ़ने लगा। अब रोशन लाल जी की दुकान छोटी नही रह गयी थी,बड़ी हो गयी थी,अब तो उन्हें दुकान में दो तीन नौकर और मुनीम तक रखना पड़ रहा था। रोशन लाल जी ने महसूस किया कि दुकान के काम मे रमाकांत की अधिक रुचि है जबकि सूर्यकांत की बहुत कम।
पढ़ाई पूरी होने पर सूर्यकांत ने नौकरी ढूढ़नी शुरू कर दी,जबकि रमाकांत ने पिता का सब काम उनके दिशानिर्देश में संभाल लिया।इससे रोशन लाल जी को सुकून इसलिये मिला कि चलो उनके बाद उनका कारोबार बंद नही होगा उनका बेटा संभालेगा।सूर्यकांत की नौकरी दूसरे शहर में लग गयी,वह वहां चला गया।
चूंकि दोनो बेटे कमाने लगे थे,सो अच्छे परिवार और योग्य लड़कियां देख दोनो बेटों की शादियां भी रोशनलाल जी ने कर दी।सब कुछ ठीक चल रहा था पर उम्र के आगे किसका वश चलता है,रोशन लाल जी बीमार रहने लगे।उन्होंने सोच लिया कि जीवन दीपक कभी भी बुझ सकता है,सो उन्होंने अपनी संपत्ति आदि की वसीयत कर दी,
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और पहले ही बेटों को बता दिया कि उनके बाद किसको क्या मिलना है।रमाकांत को दुकान मिली तो सूर्यकांत को मकान और कुछ कैश अधिक मिला।कुल मिला कर पिता की वसीयत से दोनो बेटों को कोई एतराज नही था,दोनो प्रसन्न थे।
और एक दिन दूर के राही रोशनलाल जी अपनी अंतिम मंजिल को प्रस्थान कर ही गये।समय को भला कौन रोक सका है।सूर्य कांत अच्छे पद पर कार्यरत थे,उन्हें किसी चीज की कमी थी नही।रमाकांत अपनी दुकान में बरकत ही कर रहे थे।इसी बीच रमाकांत को पुत्र की तथा सूर्यकांत को एक पुत्र व पुत्री की प्राप्ति हुई।
सूर्यकांत ने अपने भाई को ही पिता की विरासत में मिले मकान में ही रहते रहने का आग्रह पहले ही किया था,सो रमाकांत उसी घर मे रहते थे।
समय चक्र के चलते बच्चे बड़े हो गये।रमाकांत के बेटे दलीप ने अपने पिता के साथ ही रहने का निर्णय लिया और वही एक छोटी फैक्टरी स्थापित कर ली।सूर्यकांत ने बेटी की शादी कर दी।बेटा रूप पिता की तरह ही नौकरी ढूढने लगा।रूप को नौकरी नही मिल पा रही थी ,उसका व्यवहार दिन प्रतिदिन कटु होता जा रहा था।
वह अपने पिता से भी खीझकर बात करने लगा था।सूर्यकांत बेटे के व्यवहार से चिंतित भी थे और अपने को अपमानित भी महसूस करते थे,पर कर कुछ नही पा रहे थे।
एक दिन रूप रमाकांत जी के पास पहुंच गया और उनसे बोला ताऊ जी हमे अब मकान की जरूरत है,या तो खाली कर दे या फिर किराया तय कर ले।रमाकांत जी को रूप के बारे में पहले ही सूचना आ रही थी कि वह अपने पिता से विद्रोही होता जा रहा है।उन्होंने यह भी समझ लिया कि मकान को खाली करने के विषय मे उसे कहे जाने का शायद सूर्यकांत को पता भी ना हो,
पर रमाकांत अपने कारण सूर्यकांत को धर्मसंकट में नही डालना चाहते थे,सो उन्होंने रूप से कहा बेटा बिल्कुल घर तो तुम्हारा ही है,इतने दिन रह लिये,ये भाई का उपकार ही रहा।हम 10-15 दिन के अंदर ही घर खाली कर देंगे।रूप चुपचाप चला आया उसे आशा ही नही थी कि ताऊ जी यूँ ही मान जायेंगे।
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वह तो उनसे झगड़ने आया था,ताकि मकान में रहने के एवज में उनसे कुछ रकम ऐंठी जा सके।रमाकांत जी ने अपने बेटे दलीप से सलाह करके एक सप्ताह में ही घर खाली कर दूसरे स्थान पर किराये पर मकान ले लिया।
कुछ दिनों बाद पता चला कि सूर्यकांत बीमार हैं और उनका बेटा उन्हें उपेक्षित किये हुए है।वे बस रोते रहते हैं।जब सूर्यकांत जी को रूप द्वारा भाई से घर खाली कराने का पता चला तो वे टूट गये, उन्हें गहरा सदमा लगा।तब से ही सूर्यकांत जी ने बिस्तर पकड़ लिया था।उन्हें लग रहा था कि अब कभी भी किस मुँह से भाई का सामना करेंगे।
रमाकांत और उनकी पत्नी सोच रहे थे कि औलाद जब खराब निकल गयी तो इसमें सूर्यकांत का क्या दोष,दोनो की इच्छा थी कि वे सूर्य कांत को अपने यहां लिवा लाये,पर इसके लिये बेटे दलीप की रजामंदी आवश्यक थी।यदि उसके मन मे घर खाली होने की पीड़ा होगी तो वह क्यो चाहेगा?इसी उदेढ बुन में दोनो ही थे।दलीप आज बाहर गया हुआ था,शाम को वापस आना था,तभी उसके मन की टोह ली जा सकती थी।
शाम को दरवाजे की घंटी बजी रमाकांत जी दरवाजा खोलने उठे,वे समझ गये थे कि दलीप आया होगा।दरवाजा खोलते ही सामने दलीप ही था,लेकिन पीछे ही सूर्यकांत और उसकी पत्नी भी थी।रमाकांत ने भावविह्वल हो अपने भाई को गले से लगा लिया,पीछे से रमाकांत की पत्नी भी आ गयी,उन्होंने भी अपनी दौरानी को गले लगा
उन्हें अंदर लिवा लायी।सूर्यकांत और उसकी पत्नी अपने भाई भाभी के व्यवहार से भावुक थे,उनके लिये यह अकल्पित था।दलीप अपने पिता से कह रहा था बाबूजी मैं समझ गया था रूप के कारण चाचा जी असहनीय स्थिति में है,भला उन्हें हम कैसे अकेला छोड़ सकते थे,
बड़ी मुश्किल से चाचा को रजामंद कर ला पाया हूँ,अब चाचा यही रहेंगे।दलीप की बात सुन रमाकांत और उसकी पत्नी अपने बेटे के मुँह को देखते रह गये, कल तक गोद मे खेलने वाला उनका दलीप कितना बड़ा हो गया है।दोनो अपनी आंखों में आये पानी को दलीप से छुपाने में लगे थे,पर भावनायें क्या कभी किसी से छिपी हैं।
कालांतर में दलीप रूप को भी अपने पास अपनी फैक्टरी में ही काम करने को बुला लिया।उसे शर्मिंदगी थी कि जिन ताऊ जी को उसने घर निकाला दिया था,उन्होंने ही आखिर उनके परिवार को संभाल लिया था।
बालेश्वर गुप्ता, नोयडा
मौलिक एवम अप्रकाशित।