अधरों पर निर्झर सी मुस्कान भरे, चंचल हिरणी सी कुलांचे भरती ,कौन जाने कब,कहाँ से प्रकट हो जाती और सब उसे देखते रह जाते। जाने कैसा वशीकरण था उन आँखों में , सीधी दिल में उतर जाती और उसके आकर्षण में बंधे सब उसके गुलाम हो जाते।
वह झरनों का संगीत थी ,बहती धारा थी, खिलता गुलाब थी ,अपनी मादक महक लिए कहीं भी पहुँच कर
फिजाओं में रस घोल देती सब उसका सान्निध्य चाहते।
माँ विहीन बच्ची दादी की विशेष लाडली थी। दादी उसे हीरे की कनी कहती । अक्सर दादी उसे समझाती तू बड़ी हो गई है इस तरह हवा के झोंके सी ,घर से न निकला कर। पर वो भरी दोपहर में भी दादी की आँख लगते ही तितली सी उड़ जाती। किसी के बाग में पेड़ों पर गिलहरी की फुर्ती सी चढ़ती अमरूद तोड़ती, किसी के घर पहुंच खाना खाने बैठ जाती। मोहल्ले के दुष्ट बच्चों के संग शरारत करती, डाँट खाकर भी हँसती हुई
तीर सी भाग जाती थी।दादी को उसकी बहुत चिंता रहती वह बेटे से उसकी शिकायत भी करती पर वो यही कहते बच्ची है ,ठीक हो जाएगी पर दादी का बार – बार यही कहना था लड़की जवान हो गई है मैं कैसे संभालूं इसे। बस अब इसका ब्याह कर दो। अब यह मेरे काबू में नहीं आती। दिनभर बाहर घूमती है। कल को कोई ऊँच -नीच हो गई तो क्या होगा।
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शादी पक्की कर दी गई। उसे तो ठीक से शादी का मतलब भी मालूम नहीं था। उसे बस इतना मालूम था, शादी जब होती है घर में खूब चहल-पहल होती है, अच्छे -अच्छे पकवान बनते हैं, नए-नए कपड़े और बहुत सारी चीजें मिलती हैं। दुल्हन का खूब श्रृंगार किया जाता है और फिर दूल्हा ले जाता है। क्यों ले जाता
कहाँ ले जाता है, उसे आगे कुछ नहीं पता था।
रिश्ता तो तय कर दिया पर पिता और दादी को उसकी चिंता सताने लगी। इसे तो कुछ काम -काज भी ढंग से नहीं आता। 16 साल की हो गई, एक पल भी टिक कर नहीं बैठती। गृहस्थी कैसे संभालेगी ? वैसे तो बेटी के ससुराल वाले जान पहचान के भले लोग थे पर फिर भी बेटी की चंचलता से दादी और पिता की चिंता स्वाभाविक थी।
दादी उसे घर -गृहस्थी की ढेर बातें समझाती पर वह कभी कोई बात ध्यान से नहीं सुनती,’अभी आई’ कह कर एकदम रफूचक्कर हो जाती।
फिर एक दिन तमन्नाओं का इंद्रधनुष आँखों में समेटे वह इस घर से विदा हो,दूसरे घर चली गई और उसकी हिरनी सी कुलाँचों पर अंकुश लगा दिया गया।
ससुराल में कुछ दिन उसके बहुत मस्ती में गुजरे। अपनी मोहकता से उसने ससुराल में सबका दिल जीत लिया। यहाँ भी सबसे हँसती – बोलती पर घर से बाहर अकेले निकलने पर पाबंदी थी। सैर-सपाटा उसे बेहद पसंद था। शुरू में तो पति भी रोज घुमाने ले जाता पर वह देखता ,घर के कामों में उसे कोई रुचि नहीं है। अब गाहे -बगाहे उसे डाँट भी पड़ने लगी।
पता नहीं किस मिट्टी की बनी थी, किसी बात का उस पर असर ही नहीं होता था। डाँट खाकर भी खिलखिला देती। घर के अन्य सदस्य भी उसके हँसमुख स्वभाव के कारण उसे कुछ नहीं कहते बल्कि वह तो उनके घर की रौनक ही थी।
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है। सड़क दुर्घटना में अकस्मात उसके पति की मृत्यु हो गई। पहले तो उसे कुछ समझ नहीं आया और जब समझ आया तो उसे चुप-सी लग गई हँसना-बोलना भूल गई। सास उसे अपनी छाती से लगा कर अपने पास सुलाती। उसका भी जवान बेटा गया था पर बहू की चुप्पी उसे खल रही थी। छोटी सी उम्र में वैधव्य यह कैसे झेल पाएगी। सास की आँखों से आँसू टपकते मगर वह यादों की छतरी ओढ़े , सास के सीने से लगी सो जाती।
वह खाना-पीना, हँसना सब भूल गई। सास-ससुर बहुत दुखी थे, सोचा कुछ दिन मायके भेज देते हैं ,सखी, सहेलियों के साथ शायद इसका मन कुछ बहल जाए। पिता को खबर भेजी गई तो वह लेने आ गए। बेटी की दशा देख उसे सीने से लगाया और अपने आँसू अंदर ही पी लिए।
दादी उसे देखते ही दहाड़े मार कर रोने लगी, वह फटी-फटी आँखों से दादी को देख रही थी। अचानक जाने कौन सा जलजला आया,छाती के सारे बांध तोड़ गले से फूट गया। धरती दहल गई। हृदय विदारक चीत्कार से सारा मोहल्ला इकट्ठा हो गया। सबकी आंख में आँसू थे और जबान पर यही कि हमारी हीरे की कनी पर यह पर्वत-सा दुख क्यों टूटा , क्यों यह कली खिलने से पहले ही मुरझा गई।
सभी बच्चे या बड़े जो उसके साथ खेला करते थे उसे बुलाते, दादी भी कहती ‘जा चली जा’ पर वह कहीं न जाती। दादी और पिता ने निश्चय किया अब उसे ससुराल वापस नहीं भेजेंगे और इसे आगे पढ़ाएंगे । जल्दी विवाह का हमारा एक गलत निर्णय इसकी जिंदगी खराब कर गया। अब हम इसे इस लायक बनाएंगे की यह अपने सभी निर्णय स्वयं भली-भांति ले सके।
बेटी ने पिता की सारी बात सुनी मगर वह चुपचाप उस पर आत्ममंथन करने लगी। उसे वो घर याद आया, जो उसकी ससुराल थी ।पति के साथ गुजारे वो खूबसूरत लम्हें याद आये ,जिसने उसकी जिंदगी बदल दी थी। माँ का वो प्यार याद आया जिसकी छाँव तले वह खुद को सुरक्षित महसूस करती थी। वे माता पिता भी तो कितने असहाय हैं ,क्या इस वक्त उन्हें मेरी जरूरत न होगी। पिता से यह सब कहते हुए वह एकाएक कितनी बड़ी और समझदार हो गई थी। पिता और दादी उसके इस निर्णय पर सजल आँखों से उसके साथ खड़े थे और वह एकाएक उम्र के कई बरस फलांगती हुई ,विश्वास की जमीन पर पैर टिका कर ,दर्द का पुल पार कर गई।
सरिता गर्ग ‘सरि’