गणिका – रीमा महेंद्र ठाकुर

उन्नीस सौ अस्सी दशक की बात है,

सडक पर भारी गहमागहमी, वैसे भी रेड एरिया, राते तो जगमगाती है, और दिन रातो से विपरीत, सन्नाटा मनहूस,

दिन के उजाले में शायद ही कोई, सभ्रांत नागरिक उधर से गुजरता हो,

रोजी रोटी की तालाश में अनजाने ही एक अजनबी उस गली में आ गया था!

कपडे मंहगे थे पर पुराने थे! अचानक सूर्य का ताप न सहन कर पाने की वजह से  उसका उस सूनसान सडक पर मूर्छित होकर गिरना, कौतूहल का विषय था!

भगदड मच गयी,

उस अजनबी ने आंखे खोली, नाक में सुगंधित अगरबत्ती की खूश्बू वातावरण को पवित्र बना रही थी,!

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सामने एक बहुत ही खूबसूरत युवती  उसके पास बैठी उसके सिर पर पानी की पट्टी रख रही थी!

एक नजर मे पवित्र पावन देवी लग रही थी!

अब आप ठीक है महाशय कुछ बताऐ अपने बारे में,

वो मुस्कुराई, उसकी खनकती आवाज, गजब का आकर्षण पैदा कर रही थी!

मै कहाँ हूँ,


आपको नही पता, साहब!

नही,

आप रेड एरिया में हो!

आप कौन हो,

खुद को उस युवती से दूर करते हुए अजनबी ने पूछा,

मै गणिका हूँ!

इतना कहते हुए, वो युवती उठ खडी हुई,

मेरे धंधे का समय हो गया है! सारा सामान आपके पास टेबल पर रखा है!

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बाहर कोई मोटर आकर रूकी थी! हार्न की आवाज उसे आने का संदेश पहुंचा रही थी!

गणिका, अजनबी का मन भाव शून्य हो गया! अब मै यहाँ नही रह सकता, समाज को क्या मुहं दिखाऊंगा, अजनबी ने उठकर भागने की चेष्टा की, पर कमज़ोरी के चलते उठ न सका!

बाप दादा की इज्जत नीलाम हो जाऐगी, एक बार और प्रयास किया उठने का, इस बार लडखडाते कदमों से उठकर बाहर आ गया खुद को घसीटते हुए सडक पर आ गया, बाहर चारों ओर रोशनियों फैली, ठहाके की मिली जुली आवाजे आ रही थी!

वह बहुत दूर भाग जाना चाहता था!

नुक्कड़ पर पहुंचते ही उसके पैर जबाब दे गये वो वही बैठ गया!

कुछ समय गुजरा होगा एक मोटर की रोशनी उसके चेहरे पर पडी, उसकी आंखे चुधियां गयी, मोटर रूक गयी,

एक साया उसकी ओर बढा, अरे ये तो वही युवती है!

वो युवती उसके करीब आ गयी!

उस अजनबी ने इधरउधर देखा, कोई देख तो नही रहा, पर सब ओर सन्नाटा पसरा था, गणिका ने उसका हाथ पकडा, एक कागज का टुकड़ा उसकी मुट्ठी में था!

घर चले जाना, एक मधुर आवाज के साथ युवती मोटर की ओर मुड गयी!

कुछ पल में मोटर आंखो से ओझल हो गयी!


अजनबी को प्यास लग रही थी, वो लडखडाते कदमों से, सामने नजर आ रहे हैडपम्प की ओर मुड गया!

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उसके हाथ में वो कागज का टुकड़ा अब भी था!

अब वो लैम्पपोस्ट के नीचे था!

उसने मुट्ठी खोली, एक कागज के साथ चंद नोट थे!

शायद गणिका की कमाई, उस कागज में कुछ लिखा था!

पढकर उसकी नजरे झुक गयी!

साहब हम भी इज्जत से जीना चाहते हैं! पर हमे जीने कौन  देता है,उस युवती की आंखे भर आयी!ये कमाई मुझे पांच ग्राहकों को खुश करके मिली है!

मैने धंधा छोड दिया था!

मुझे भी घृणा है इस काम से पर आज एक अच्छा कर्म करने के लिए खुदको  न रोक पायी, आप घर चले जाना, मेरे पास मेरी यही अखिरी जमापूंजी है!

समाप्त

श्रीमती रीमा महेंद्र ठाकुर “सहित्य संपादक “

राणापुर झाबुआ मध्यप्रदेश भारत”

ये लघुकथा मेरी स्वरचित है,

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