“बाबूजी आप समझने की कोशिश कीजिए।
मैं आपको सलाह नहीं दे रही हूं बस बता रही हूं आप जो कर रहे हैं वह गलत है। इसमें उसकी क्या गलती है।
वह तो बच्ची है अभी! अभी दिन ही कितने हुए हैं उसके शादी को?”बड़ी बहू मंजूषा को यह कहते हुए जब सुना तो मनोहर बाबू गुस्से से चीख उठे।
“बच्ची है वो तो शादी क्यों की थी? अपने घर में ही रखते?”
“बाबूजी शादी तो घर वाले कर देते हैं! और .. हमारा रज्जो देश के लिए शहीद हो गया तो इसमें कुसुम की क्या गलती है ?
वह तो एक बच्ची है ना !”
“बच्ची है मानते हैं हम मगर वह जो छुप छुप कर अपने आशिक से मिलती है वह क्या वह सही है ?यह भी उसका बचपना है क्या?उसके मां-बाप ने यही संस्कार दिए हैं कि हमारे खानदान की इज्जत उछाले!
उसकी इस हरकत से हमारी इज्जत मिट्टी में मिल जाएगी!
कहीं वह उसके साथ भाग ना जाए!”
“ बाबूजी, अगर कुसुम को भागना होता तो वह पहले ही भाग जाती! यूं मिल कर न आती।
वैसे भी उसने मुझसे पूछा ही था और फिर सुधांशु उसके कालेज का दोस्त है बस और कुछ भी नहीं।
कहीं ना कहीं कुछ कमी हममें भी है तभी तो वह घर बुलाकर अपने दोस्त से हमें नहीं मिलवाई।”
मंजूषा वैसे तो कुसुम की जेठानी थी मगर संगी बड़ी बहन से भी ज्यादा उसका मान रखती थी।
मनोहर बाबू गुस्से में दहाड़ने लगे “बड़ी बहू तुमसे यह उम्मीद नहीं थी। तुम्हें तो संस्कार और इस खानदान के इज्जत की बात करनी चाहिए थी?
आज हमारा बेटा इस दुनिया में नहीं है। उसकी बहू अपने दोस्त से मिलने के लिए माॅल जाती है ? यह कोई बात हुई क्या?”
मनोहर बाबू गुस्से से लाल थे।
“उसके पिता को फोन लगाओ?”
“बाबूजी पहले हमें कुसुम से बात कर लेनी चाहिए।”
मंजूषा ने धीरे से कहा और वहां से हट गई।
मनोहर बाबू चंद्रपुर जिले के एक नामी और प्रतिष्ठित वकील थे। वकालत तो सिर्फ नाम का ही था। वह अपने जमींदारियत के लिए प्रसिद्ध थे।
पूरे चंद्रपुर में उनकी बहुत ज्यादा ही इज्जत थी वहां उनकी धाक चलती थी।
इसी का अहंकार उनमें आ गया था।
उनके परिवार में उनके अलावा उनके तीन बेटे और दो बेटियां थी।
पत्नी की मौत बहुत ही पहले हो चुकी थी।
सभी बच्चों की शादी हो गई थी। दोनों बेटियां अपने ससुराल में थीं ।
तीन में से दो बेटे प्रोफेसर थे और छोटा बेटा रज्जो यानी राजन भारतीय फौज में था।
राजन की लगभग 8 महीने पहले शादी हुई थी।
उसकी शादी की अभी 6 महीने भी नहीं बीते थे कि वह एक आतंकी हमले का शिकार हो गया।
उसकी पत्नी कुसुम के हाथों की मेहंदी भी नहीं छूटी थी कि वह उसके सिर से सुहाग का साया भी छीन गया था ।
कुसुम बहुत ही ज्यादा अकेली हो चुकी थी।अकेले अपने कमरे में आंसू बहाया करती थी।
कुसुम! कहां हो तुम?”मंजूषा के आवाज देने पर
“यहां कमरे में हूं।”कुसुम सिसकते हुए बोली।
“कुसुम क्या हो गया?”
“दीदी आपको भी लगता है कि मैं झूठ बोल रही हूं। मैं तो बस उससे मिलने गई थी वो भी इस लिए कि बाबूजी इस बात के लिए इजाजत नहीं देंगे।”
“कुसुम तुम्हारी गुनाहगार तो मैं हूं।सब गलती मेरी है अब बाबूजी तुम्हारे पिताजी को बुलाने के लिए कह रहे हैं।”
“हे भगवान,ये क्या दीदी अब पापा क्या सोचेंगे मेरे बारे में?”
“डरो मत सब ठीक होगा।”
मंजूषा के जाने के बाद कुसुम अपनी पुरानी बातें सोचने लगी।
पिछले साल की बात थी ।वह और सुधांशु दोनों साथ-साथ ही कॉलेज में मास कम्युनिकेशन की पढ़ाई कर रहे थे ।
वह अंतिम साल था।
सुधांशु ने उससे कहा था “कुसुम मैं हायर एजुकेशन के लिए दिल्ली जा रहा हूं। वहां से आने के बाद मैं तुमसे कुछ कहूंगा।”
कुसुम भी उस अनाम फीलिंग को महसूस कर रही थी मगर उसने भी यह नहीं एहसास होने दिया कि प्रेम के इस एहसास को वह भी महसूस कर रही थी। कुछ दिनों बाद सुधांशु दिल्ली चला गया।
न जाने कैसे कुसुम के पिता को इस बात की खबर लग गई। आनन-फानन में उन्होंने अपने दोस्त मनोहर लाल के छोटे बेटे राजन के साथ उसकी शादी पक्की कर दी।
कुसुम की आंखों में आंसू आ गए ।वह कुछ कह भी नहीं सकती थी। अपनी भावनाओं को अपने मन में दफन कर अपने खानदान की इज्जत का मान रख कर राजन की दुल्हन बनाकर उसके घर आ गई।
मनोहर बाबू गुस्से में विनायक जी को फोन कर बैठे।
विनायक की आनन-फानन में वहां पहुंचे। मनोहर बाबू ने गुस्से में उन्हें सुनाना शुरू कर दिया “आपकी बेटी हमारे खानदान की इज्जत मिट्टी में मिला रही है। अपने आशिक के साथ गुलछर्रे उड़ा रही है। यह सब मैं होने नहीं दूंगा ।”
कुसुम की आंखों में आंसू थे। उसने धीरे से कहा “आप लोग सुधांशु से पूछ सकते हैं।
उसने मेरे बारे में जब सुना तो वह मुझसे मिलने आया था मगर हिम्मत नहीं किया कि वह घर आ पाए इसलिए मैं उससे मिलने मॉल चली गई। बस इतना ही अपराध है मेरा और कुछ भी नहीं ।”
विनायक बाबू रो पड़े। उन्होंने कहा “बेटी मैं ही तुम्हारा गुनहगार हूं। मुझे तुमसे भी पूछना चाहिए था।”
“नहीं नहीं विनायक जी शायद गलती मेरी है।मैंने अपने घर पर इतना सख्त पहरा लगाया हुआ है कि मेरे बच्चे मुंह खोलने में भी डरते हैं।”
“बाबूजी आप इस बात को बेवजह तूल दे रहे हैं। कुसुम को इस तरह जलील करने का हक नहीं है किसी को भी।
वैसे भी वह मुझसे पूछकर ही गई थी।”मंजूषा अपनी बात पर अडिग रही।
“हां बहू, मैं यह गलती सुधारना चाहता हूं।
बेटे तुम उसे फोन लगाओ और घर बुलाओ।”
कुसुम ने डरते हुए फोन लगाया और उसे बुलाया ।
अभी सुधांशु होटल में ही रुका हुआ था।
कुसुम के बुलाने पर वह घर आ गया।
उससे बात कर मनोहर बाबू उससे बहुत ही ज्यादा इंप्रेस्ड हो गए।
उन्होंने उससे कहा
“बेटा, मैंने एक बेटे को खो दिया है क्या मैं दूसरा बेटा मांगने का हकदार हूं?
अपनी बेटी को तुम्हारे हाथ में देना चाहता हूं बोलो मंजूर है?”
“मंजूर है बाबूजी ।”सुधांशु की आवाज नम हो गई।
“हां बेटा मेरे और मेरे परिवार की इज्जत का मान रख लो।”मनोहर बाबू के साथ साथ विनायक जी ने भी सुधांशु को अपने गले से लगा लिया।
प्रेषिका -सीमा प्रियदर्शिनी सहाय
मौलिक और अप्रकाशित रचना
#खानदान की इज्जत