दरवाजा खुलते ही मीना ने देखा कि सामने माताजी भी अपने फ्लैट में वापस आ गई थीं। हैरानी और खुशी से माताजी को मिलने के लिए गई। माताजी उसके सामने वाले फ्लैट में ही अकेली रहती थीं। 10 साल पहले जब सरकारी विभाग में कार्यरत वर्मा जी संसार छोड़ कर गए थे| माता जी के तीन बच्चे हैं, बेटी तो दिल्ली में ही दूसरे छोर पर रहती थी और दोनों बेटे एक भोपाल में और एक हैदराबाद में रहता था।
वर्मा जी के जाने के बाद माताजी एक दो बार तो अपने बेटों के पास गई भी थीं, लेकिन जल्दी ही वापस आ गईं| वह अक्सर यही कहती थीं दूसरे का घर थूकने का भी डर। अपना घर तो अपना ही होता है, हालांकि माता जी के दोनों बेटे और बहुएं माता जी को अच्छी तरह से ही रखते थे| लेकिन फिर भी माताजी अक्सर अपने घर ही लौट आती थी।
अपने फ्लैट में उनका रूटीन तय था। सवेरे ठीक 5:00 बजे उनके कमरे से भजन की आवाज आनी शुरू हो जाती थी। उसके बाद क्योंकि वह नीचे के फ्लैट में ही रहती थी तो सुबह जब भी अपनी चाय बनाती तो बाहर लिफ्ट के पास खड़े गार्ड को भी जरूर देती थी। वैसे तो गार्ड भी उनका बहुत ख्याल रखता था
एक दिन जब माताजी ने 7:00 बजे तक भी अपना दरवाजा नहीं खोला तो सिक्योरिटी गार्ड ने ही बेल बजा कर उन्हें जगाया। उनकी तबीयत खराब थी तो गार्ड ने ही बी ब्लॉक में रहने वाले डॉक्टर साहब को बुलाकर उनका इलाज करवाया। ऊपर वाले फ्लोर में रहने वाली
मिसेज शर्मा की बेटी उनके ठीक होने तक उनके पास सोने आने लगी। माताजी ने मिसेज शर्मा की बेटी को स्वेटर बुनने और कपड़े सिलना भी सिखाया। कभी-कभी उनकी अपनी बेटी भी उनसे मिलने आ जाया करती थी।
माता जी का व्यवहार ही ऐसा था कि धीरे-धीरे कॉलोनी के सब लोग उनके परिवार के जैसे हो गए थे। चाय पीकर 7:00 से 9:00 माताजी कॉलोनी के पार्क में ही योगा और सैर करती थीं। घर आकर अपना खाना बनाती । 12:00 बजे से वह अपनी कामवाली से काम कराती।
जिस भी घर में कीर्तन होता माताजी की मधुर भजनों से आनंद आ जाता था। उन्हें तो सभी बुलाते थे। कीर्तन से घर आने के बाद अगर उन्हें समय होता तो वह अपनी कामवाली के बच्चों को भी पढ़ा दिया करती थी। थोड़ी देर समाचार देखने के बाद वह शाम को अपने लिए अक्सर दलिया खिचड़ी बनाती थी।
संध्या पूजन के बाद वह अक्सर अपने घर के ही बाहर कुर्सी बिछाकर बैठ जाती थी और कॉलोनी के ही बच्चों को अक्सर कहानियां भी सुना देती थी। मीना का छोटा बच्चा तो अक्सर शाम को उनके घर ही खिचड़ी या दलिया खाता था।
अभी कोरोना काल में उनके बच्चों ने उन्हें अकेला छोड़ना मुनासिब न समझा और वे खुद भी अपने बच्चों के साथ ही जाने को उत्सुक थी। जाते समय वह मेंटेनेंस के 1 साल के पैसे भी जमा करवा गई थी कि शायद अब वह अपने बच्चों के साथ ही रहना चाहती थी लेकिन अभी तो 5 महीने भी नहीं बीते थे और माता जी का तो दरवाजा ही खुला हुआ था।
मीना माताजी से जाकर मिली तो माताजी बहुत खुश हुई और मीना की हैरानी को समझती हुई बोली, नहीं बेटा, मेरे साथ में किसी ने कुछ बुरा नहीं किया। बच्चे तो मुझे प्यार ही करते थे लेकिन मेरी समझ में एक बात आ गई कि इस उम्र में कभी भी अपना ठिकाना छोड़कर कभी कहीं नहीं जाना चाहिए।
नई जगह नए माहौल में एक उम्र के बाद एडजस्ट करना बहुत मुश्किल ही हो जाता है। हम एडजस्ट तो खुद नहीं कर पाते और दोष बेटों और बहुओं को देते हैं। उनके जीने का तरीका अलंग है।जरूरी थोड़ी ना है कि उनका भी 5:00 बजे उठने का रूटीन हो। यह भी जरूरी नहीं कि हर कोई शाम को दलिया ही खाए। लेकिन माताजी कभी आपकी ज्यादा तबीयत खराब हो जाए—या– तो !!
माताजी हंसती हुई बोली बेटा तुम ठीक कहती हो पर उस एक दिन के पीछे मैं अपने बाकी बचे साल तो खराब नहीं कर सकती। जीवन में बहुत से अनिश्चितताएं हैं ।वह दिन जब आएगा तब देखा जाएगा। आज तो मैं अपने मन की मालिक हूं। इलाज के लिए वर्मा जी का मेडिकल कार्ड भी और उनकी पेंशन भी मेरे लिए काफी है।
यह घर मेरा और वर्मा जी का ही बसाया हुआ है इसमें सिर्फ मेरी ही मर्जी चलती है| मुझे अपनी कॉलोनी वाले परिवार पर भी पूरा विश्वास है कि वह मेरा ख्याल कर लेगा इतनी ही देर में सिक्योरिटी गार्ड, ऊपर वाली गुड़िया और उनकी कीर्तन वाली सहेलियां सब मिलने आ गई थी। माताजी अपने इस परिवार में पूरी तरह खो चुकी थी।
पाठकगण आपका क्या ख्याल है कि वे बुजुर्ग जो अपने दूर रहने वाले बच्चों के पास ना जाकर अपने घर में अकेले ही आराम से रहता है वह क्या वास्तव में ही दुखी इंसान हैं या कि वह सुख से अपने घर में रह रहे होते है?
मधु वशिष्ठ
# अपना घर अपना ही होता है