” हाय री मेरी किस्मत…धन के लालच में मैंने क्या अनर्थ कर डाला…हीरे को त्याग कर पत्थर घर में ले आई..।” कहते हुए गायत्री जी चाय बनाते हुए रोने लगी और रोते-रोते बस अपनी किस्मत को कोसती जा रहीं थीं।
किशोरी गायत्री के पिता एक अध्यापक थे।उसकी माँ सीमित आय में घर चलाना बखूबी जानती थी और बेटी को भी समझाती रहती थी।लेकिन उसके सपने बहुत ऊँचे थें।छोटी-छोटी चीज़ों के लिये मन मसोसकर रह जाने पर वह कुढ़ जाती थी।वह अमीर घराने में विवाह के सपने देखती थी परन्तु उसका विवाह एक सरकारी मुलाज़िम अश्विनी कुमार से हो गया जो बेहद शरीफ़ और ईमानदार था।पहली तारीख को अपनी तनख्वाह उसकी हथेली पर रख देता था और वो महीना खत्म होने से पहले ही पूरा रुपया खर्च कर देती थी।
एक दिन अश्विनी ने पत्नी से कह दिया,” गायत्री…फ़िजूलखर्ची करने से क्या फ़ायदा.. सीमित आय में घर चलाना सीखो।” तब तो गायत्री ने रोना शुरु कर दिया और रोते-रोते बस अपनी किस्मत को कोसती जा रही थी कि बाप के घर में अपनी इच्छा को मारती आई और अब पति के पास भी…।
” अच्छा-अच्छा…चुप हो जाओ…कर लो अपने मन की।” कहते हुए अश्विनी ने उसके हाथ में कुछ रुपये रख दिये तो उसकी बाँछे खिल गई।
साल भर बाद गायत्री एक बेटे की माँ बन गई…खर्चे बढ़ने लगे…अश्विनी हाथ तंग होने की बात कहता तो गायत्री झगड़ पड़ती जिससे वे मानसिक तनाव में रहने लगे।
बेटा प्रशांत स्कूल से काॅलेज़ में आ गया। दिल्ली के एक इंजीनियरिंग काॅलेज़ से इंजीनियरिंग की डिग्री लेकर वह वहीं की एक कंपनी में नौकरी करने लगा।
अश्विनी जी का स्वास्थ्य गिरने लगा और सेवानिवृत्त होने से छह माह पहले ही हार्ट अटैंक से उनकी मृत्यु हो गई।फिर प्रशांत अपनी माँ को अपने साथ ले आया।
अब अपने अमीर बनने की ख्वाहिश को पूरा करने के लिये गायत्री जी अपने बेटे का विवाह धनाड्य परिवार में करना चाहती थीं ताकि दहेज़ में उन्हें गाड़ी-बँगला मिल सके।अपने परिचितों के माध्यम से उन्होंने कुछ रिश्ते तलाश कर लिये और बेटे को पसंद करने को कहा तब प्रशांत ने उन्हें बताया कि वह प्रिया नाम की लड़की से प्यार करता है और विवाह भी उसी से करना चाहता है।मौके की नज़ाकत को देखते हुए उन्होंने अपने क्रोध पर नियंत्रण किया और बेटे को बोली,” ठीक है, चलकर मिल लेते हैं।”
प्रिया शिक्षित और संस्कारी थी लेकिन उसके पिता नहीं थें।माँ ने अपनी मेहनत से उसे और उसके भाई को पढ़ाया-लिखाया था।गायत्री जी ने जब दहेज़ की बात छेड़ी तो उसकी माँ ने अपनी परिस्थिति बताई।उस वक्त प्रशांत चुप रहा लेकिन घर आकर बोला,” माँ..मुझे कोई दहेज़ नहीं चाहिये…।”
” लेकिन मुझे तो चाहिए।अपनी इच्छा को त्यागकर मैंने तुझे पाला-पोसा, पढ़ाया-लिखाया तो अब क्या वसूलूँगी नहीं…ज़िंदगी भर किराये के मकान में मुझे नहीं रहना..।” गायत्री जी तपाक-से बोली तो प्रशांत दंग रह गया।उसने माँ को फिर से समझाने की कोशिश की तो वह प्राण त्यागने की धमकी देने लगीं।आखिरकार प्रशांत ने घुटने टेक दिये…प्रिया से माफ़ी माँग ली और अपनी माँ की पसंद की हुई लड़की कृतिका से विवाह कर लिया जो दहेज़ में कार के साथ एक फ़्लैट भी लाई थी।
गायत्री जी खुश…बेटे-बहू के साथ के साथ नये फ्लैट में रहने लगी और गाड़ी में घूमने लगी।महीने भर बाद कृतिका ने अपने रंग दिखाने शुरु कर दिये।वह आधुनिक कपड़े पहनकर घूमती-फिरती और देर रात पार्टियों से घर लौटती।एक दिन उन्होंने टोक दिया तो बस…कृतिका ने उन्हें जी भरकर सुनाया और बोली,” ये मेरा घर है…जैसे चाहूँ वैसे रहूँ…आपको परेशानी है तो आप यहाँ से जा सकती हैं।” फिर तो रोज ही उस घर में कलह होने लगे।
माँ कुछ कहती और पत्नी कुछ…इन दोनों के बीच प्रशांत पिसने लगा।धीरे-धीरे वह देर से घर आने लगा।गायत्री जी बेटे के लिये परेशान हो गईं तो एक दिन उसे समझाते हुए बोली,” तू कृतिका को क्यों नहीं समझाता…बात-बात पर मेरे से उलझ जाती है।” प्रशांत बोला,” तो मैं क्या करूँ..कुछ कहता हूँ तो वो मुझे काट खाने को दौड़ती है और इधर आप..।आपकी पसंद की बहू है तो फिर क्या समस्या…।”
इसी तरह से गायत्री जी के दिन कट रहें थें कि एक दिन प्रशांत और कृतिका के बीच बहुत झगड़ा हुआ।प्रशांत दनदनाता हुआ कमरे से निकलकर बाहर चला गया।गायत्री जी ने सोचा कि शाम को आयेगा तो पूछेंगी लेकिन शाम को प्रशांत घर नहीं आया ना ही उसकी कोई खबर मिली।परेशान होकर उन्होंने थाने में रिपोर्ट लिखाई जहाँ आज भी तलाश जारी है।प्रशांत के न आने से गायत्री जी का जीवन तो रुक-सा गया लेकिन कृतिका पहले की तरह ही मस्त।
अब वह कृतिका की सास नहीं बल्कि उसकी नौकरानी बन गई थी।अपने बेटे की प्रतीक्षा में उन्हें बहू की सेवा-टहल करनी पड़ती और उसकी चार बातें भी सुननी पड़ती।
गायत्री जी की चचेरी बहन सुधा की बेटी का ब्याह था।सुधा के आग्रह को वो टाल न सकी और तैयार होकर वहाँ चली गई।लोगों के बीच बैठकर वो थोड़ी प्रसन्न थी तभी सुधा ने मानसी नाम की महिला से उनका परिचय कराया और ‘आप दोनों बातें कीजिये’ कहकर वो काम में व्यस्त हो गई।मानसी उनसे कहने लगी कि हमने भी दो साल पहले अपने बेटे का ब्याह किया था।अब तो हम…।”
” मम्मी…आप यहाँ हैं..।”
” हाँ…इनसे मिलो प्रिया…ये गायत्री जी हैं और गायत्री जी, मेरी बहू प्रिया।ला..बच्ची को मुझे दे दे और इनके लिये कुछ ठंडा ले आ…।”कहते हुए मानसी ने बच्ची को अपनी गोद में ले लिया।
प्रिया को देखते ही गायत्री जी चकित रह गईं।वो तुरंत वहाँ से चलीं आईं।घर में पैर रखते ही बहू ने आदेश दिया,” मेरी सहेलियाँ आ रहीं हैं…पाँच कप काॅफ़ी बनाकर ले आईये…।” काॅफ़ी बनाते हुए उनकी आँखों के सामने प्रिया का चेहरा आ गया..उन्हें अपना बर्ताव याद आया तो वो रो पड़ी और अपने-आप को कोसने लगी।
” काॅफ़ी बनी क्या…? बहू की आवाज़ से उनकी तंद्रा टूटी।कप में काॅफ़ी डालते हुए वह बुदबुदाई, ईश्वर ने तो मुझे अच्छी किस्मत ही दी थी…अच्छा पति और अच्छा बेटा।मैंने ही उनपर अपनी ज़िद थोपकर अपनी किस्मत फोड़ ली है…।मेरे लालच का ही परिणाम है कि पति असमय साथ छोड़ गये और बेटा घर छोड़कर न जाने कहाँ चला गया।हाय री मेरी किस्मत…!
विभा गुप्ता
स्वरचित
#रोते-रोते बस अपनी किस्मत को कोसती जा रही थी”
VD