हॉल में सजे मेडलों को देखकर लालाराम जी बोल उठे..अरे सुहानी! ये तुम्हारे दौड़ में मिले मेडलों से क्य़ा फायदा , तुम पी. टी ऊषा तो बनने वाली हो नहीं फिर क्य़ों दौड़ भाग के चक्कर में पड़ी हो.. अरे शेखर! खिलाड़ी बनाने में क्यों बेटी का समय बर्बाद कर रहे हो। थोड़ी देर बाद कमरे में किसी को न देखकर फिर कहने लगे..
अरे सुहानी! तुम्हारी सौतेली माँ नहीं चाहती कि तुम पढ़कर लिखकर एक कामयाब इंसान बनों.. नहीं मामा जी ऐसा नहीं है कहते हुए सुहानी अंदर चली..
सुहानी जब तीन साल की थी तब असाध्य रोग से उसकी मां इस दुनिया को छोड़कर चली गई..तब उसके पिता शेखर ने अपने बूढ़े माता पिता और छोटी बच्ची की परवरिश को ध्यान में रखते हुए अपनी सहकर्मी वैशाली के साथ जीवन यापन करने का निश्चय किया…
वैशाली का बेटा जब दो साल का था तब उसने भी अपने पति को एक दुर्घटना में खो दिया था… वैशाली एक संस्कारी, ममत्व से पूर्ण सरल हृदय स्त्री थी… वह दोनों बच्चों को एक़ सम्मान समझती उनमें अच्छे संस्कार डालने को कोशिश करती।
घर में किसी को वैशाली से कोई शिकायत नहीं थी। परंतु लालाराम जी, जो सुहानी के रिश्ते में मुंह बोले मामा थे इसी कोलोनी में रहते थे समय बेसमय आकर सुहानी के विषय में अपनी टाँग अड़ाने में आगे रहते थे। घर के पास पुस्तकालय में जाकर पुस्तक पढ़ती,
तो लालाराम जी कहते अरे आजकल पुस्तकालय जाकर पुस्तक कौन पढ़ता है? सब कुछ तो फोन में किंडल पर मिल जाता है… सुहानी को क्रोध तो बहुत आता पर व्यर्थ की बातों में पड़ना नहीं चाहती थी।
एक दिन तो हद ही हो गई … सुहानी कक्षा दस में अच्छे नम्बरों से पास हुई। वह अब बारहवीं कक्षा के बाद बेचलर पत्रकारिता में करना चाहती थी ? माता पिता उसकी इच्छा के अनुरूप मास कम्युनिकेशन में सुहानी के कैरियर को लेकर उत्साहित थे…
तभी एक दिन लालाराम मामाजी अचानक आ धमके..और कहने लगे मैंने सुना है सुहानी बारहवीं में आर्ट विषय ले रही है और बेचलर पत्रकारिता में करना चाहती है.. अरे शेखर जी! यह क्या कर रहे हो..यह ठीक नहीं है। रिपोर्टर बनकर रात बिरात काम करना पड़ता है
यह लड़कियों के लिए सुरक्षित नहीं है। अरे उसे डाक्टर, इंजीनियर बनाओं। अगर पैसों की कमी हो तो मुझे बता देना.. मेरी मुंहबोली बहन की अकेली निशानी है..कोई सौतेली माँ नहीं चाहती कि उसकी सौतेली संतान को उसकी अपनी औलाद से अधिक सफलता मिले।
तभी सुहानी की आँखे लाल हो गई वह बोली.. .बस मामा जी! अब आप मेरे विषय में अपनी टांग अड़ाना बंद कर दीजिए। मुझे क्या बनना है ?क्या करना है ?मुझे अच्छी तरह से पता है। मेरे माता पिता मेरे शुभचिंतक हैं। मेरे लिए उनसे बड़ा हितैषी कोई और नहीं है…
आपको इस विषय में सोचने की जरूरत नहीं हैं। आप जैसे लोगों ने ही सौतेले रिश्ते को अपनी टांग अडाकर लंगडा बना और विषैला रिश्ता बना दिया है… मेरी माँ के दिए संस्कार आपको अनुचित कहने के लिए रोक रहे हैं। यह सुनते ही लालाराम चलते बने।
बेचलर और फिर मास्टर डिग्री करने के कुछ सालों बाद सुहानी एक सफल जर्नलिस्ट बनकर ऊंचाइयों के शिखर को छूने लगी।
जर्नलिज्म के साथ साथ उसने कई प्रेरणादायक पुस्तकें भी लिखी और दौड़ में भी दर्जऩों तमगे उसके दामन की शोभा थे ..अब लालाराम जी जैसे अड़चन डालने वाले लोगों के मुंह पर ताला लग गया था …
स्वरचित मौलिक रचना
सरोज माहेश्वरी पुणे ( महाराष्ट्र)
# टांग अड़ाना ( मुहावरा प्रतियोगिता)