अम्मा ! कितनी देर में आई हो , गाय को रोटी देने गई थी आप। भाभी भी इंतज़ार करते-करते थक कर सो गई ।
हाँ.. वो रास्ते में उषा की दादी मिल गई थी , तुझे तो उषा से मिले कई साल हो गए होंगे ?
उ..षा…. सच्ची अम्मा, उषा तो कई सालों से दिमाग़ में भी नहीं थी । कहाँ है आजकल वो …… सब ठीक तो चल रहा है ना उसकी ज़िंदगी में ?
हाँ…. ठीक है, जैसा उसके साथ हुआ … भगवान किसी के साथ ना करे , बेचारी किस – किस के दरवाज़े गई….. चलो अब ये है कि एक ठिकाना तो मिला ।
कोई बाल- बच्चा है या नहीं ?
मैं भी ना मिली कई सालों से , एक- आध रात को आती है । जब वापस चली जाती तब पता चलता कि उषा आई थी ।
चल , शाम को चलते हैं , मिल आएँगे । फिर मौक़ा मिले या ना मिले ? मन तो करता होगा तेरा कभी मिलने का ? बातचीत तो तुम करती रहती होंगी ?
कहाँ…. अम्मा…. घर के कामों में टाइम ही नहीं मिलता , यहाँ भी फ़ोन करने की सोचते- सोचते कई दिन गुज़र जाते हैं ।
हाँ…. ये तो है । चल …. अब तो तेज धूप फैली है । धूप ढलने पर चल पड़ेंगे । उठ , दो घड़ी लेट ले , नेहा तो लेट गई होगी ?
हाँ अम्मा, भाभी की तो आँख लग गई शायद ….. चलो आपके कमरे में आपके पास लेटती हूँ ।
अम्मा के साथ आकर कुमुद बिस्तर पर आकर लेट जाती है ।
अम्मा….. क्या उषा अभी भी वैसी ही भोली सी होगी ?
पर अम्मा के जवाब के बदले खर्राटों की आवाज़ से कुमुद भी करवट बदल कर लेट गई । नींद कोसों दूर थी , कुमुद स्वयं भी कई सालों पहले किशोरावस्था में पहुँच गई । उषा और उसकी दोस्ती इतनी पक्की थी कि अक्सर घरवाले तो क्या , पड़ोसी भी उन्हें देखकर कहते——
जब देखो… दोनों लड़कियाँ एक साथ…. तुम रात को अपने-अपने घर में जाती हो सोने या एक जगह ही सोती हो ?
उषा उसके सगे ताऊ जी की नहीं, कुटुंब में लगने वाले ताऊजी की बेटी थी । कुमुद के पड़दादा और उषा के पड़दादा सगे भाई थे । परिवारों में तो कोई ख़ास लगाव नहीं था….. हाँ, इन दोनों की दोस्ती के कारण ही कुछ सालों के लिए इनमें दाँत काटी रोटी हो गई थी। दोनों एक साथ स्कूल जाती , एक साथ बैठकर पढ़ती, साथ खेलती …… यहाँ तक कि कभी -कभी एक की गलती के कारण दोनों डाँट भी खा लेती । हफ़्ते में कोई एक आध दिन होता जब अपने- अपने घर सोती वरना कोई ना कोई बहाना बनाकर…कभी कुमुद के घर तो कभी उषा के घर रुक जाती ।
समय गुजरता गया और दोनों बहनों की दोस्ती को देखकर अक्सर परिवार वाले कह उठते ——-
इनके लिए तो ऐसा घर देखना पड़ेगा जहाँ दो भाई एक साथ ब्याहने वाले हों …… जिस घर जाएँगी…. अपने मेल-मिलाप से स्वर्ग बना देंगी ।
ईश्वर की लीला….. जैसे ही कुमुद का रिश्ता तय हुआ तो दबे स्वर में , उसने अपने होने वाले पति से देवर के रिश्ते की बात भी उषा के साथ चलानी शुरू कर दी । फ़ोन पर घंटों बातें करती …. उषा ये … उषा वो ….
पहले- पहल तो पति ने हँसी- मज़ाक़ में लिया पर कुमुद के विवाह की तिथि आने तक देवर के साथ उषा का रिश्ता तय हो गया और दोनों भाइयों का एक ही मुहूर्त में विवाह हो गया ।
सास-ससुर भी ऐसी सोने सी बहुओं को पाकर निहाल हो गए । कुमुद साल भर के अंदर ही एक बेटे की माँ भी बन गई । अभी विवाह को डेढ़ साल ही हुआ था कि उषा के ऊपर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा और उसका पति एक मोटरसाइकिल दुर्घटना में, उसे रोती- बिलखती छोड़कर असमय इस दुनिया से चला गया ।
आश्चर्य की बात थी कि कुमुद के पति ने कुमुद के माध्यम से मायकेवालों पर बहुत ज़ोर दिया कि देवर की तेरहवीं के दिन ही छोटे देवर के नाम की चादर उषा के सिर पर डाल दी जाए ताकि घर की बहू घर में ही रह जाए हालाँकि छोटा देवर उषा से तक़रीबन ग्यारह-बारह साल छोटा था और अभी बी० ए० में ही पढ़ता था ।
ख़ैर सभी का राय मशवरा लेकर कुमुद के सबसे छोटे देवर के नाम की चादर उषा के सिर पर डाल , उसकी माँग भरवा दी गई और एक बार फिर से नए रिश्ते की पहचान के साथ ज़िंदगी शुरू करने की कोशिश की गई ।
पर विधाता के लिखे को कौन मिटा सकता है ? एक दिन कुमुद को अपनी माँ कीं बीमारी के कारण मायके आना पड़ा और देवर अपनी परीक्षा देने के लिए अपने दोस्त के पास शहर गया हुआ था । घर में सास- ससुर , कुमुद का पति और उषा थी । एक रात कुमुद के पति को दूध पकड़ाते समय उषा ने मुस्कराते हुए उसे क्या देखा कि उसकी तो हिम्मत बढ़ गई और वह बेधड़क अपनी मर्ज़ी से उसके कमरे में आने- जाने लगा ।
बूढ़े माता-पिता ने तो आँख- कान मींच लिए पर उषा का पति , भले ही उम्र में कम था , बेरोज़गार था पर अपने स्वाभिमान पर लगे आघात को सह नहीं पाया और तुरंत कुमुद के मायके पहुँच गया ——
भाभी ! मैं तो कल रात ही परीक्षा देकर लौटा हूँ…. उषा तो बुख़ार में पड़ी है और माँ बेचारी घर के काम में बेहाल है…..
कुमुद! तू जाने की तैयारी कर , बेटा । अब तो तुम्हारी माँ की तबीयत ठीक है , अब नेहा अकेली सँभाल लेगी ।
चलो ठीक है बाबूजी…. आई तो थी दो हफ़्तों के लिए पर एक हफ़्ते में ही जाना पड़ रहा है…. उषा ने तो फ़ोन करके बताया भी नहीं….
जब घर से निकलते ही देवर ने उषा और बड़े भाई के नए रिश्ते का खुलासा किया तो कुमुद का चेहरा लाल हो गया । वह सकते में आ गई…… उसने सोचा भी नहीं था कि जिस बहन को वह अपना अभिन्न अंग समझती है, वह इस तरह उसके ही पति …… छिः छिः ……
गाड़ी से उतरते ही कुमुद ने बेटे को ससुर के पास बिठाया और सीधे अपने कमरे में गई । वहाँ उषा और अपने पति को एक ही बिस्तर पर बैठे खिलखिलाते देख सन्न रह गई , चीखी- रोईं पर पति ने कहा—-
तुम तो हमेशा उषा को अपना हिस्सा कहती थी तो जो तुम्हारा है … उसे मिल बाँटकर रहो ।
पर स्त्री सब कुछ बाँट सकती है, अपने पति को नहीं । इस तरह कुमुद और उषा की दोस्ती एक ही झटके में चकनाचूर हो गई । बेचारा कुमुद का छोटा देवर , जब उसने देखा कि भाई के ऊपर
भाभी की बातों का कोई असर नहीं हुआ तो वह ग़ुस्से और अपमान से तमतमाया गाड़ी उठाकर निकल गया और शाम ढले घर में यही सूचना आई कि एक ट्रक के साथ उसका एक्सीडेंट हो गया । चश्मदीद गवाहों के अनुसार, ऐसा लगता था …. मानो उसने मौत को स्वयं गले लगा लिया हो ।
आज फिर विधवा के रूप में उषा को देखकर लोगों के मन में उसके प्रति सहानुभूति थी सिवाय कुमुद और उसके सास-ससुर के । सबकी ज़बान पर एक ही प्रश्न था कि अब उषा का क्या होगा….. बेचारी के साथ ईश्वर ने ऐसा क्यों किया ? उषा के मायकेवाले तेरहवीं के दो दिन पहले ही उसकी ससुराल पहुँच गए थे और दबे स्वर में कहने लगे——
बचपन से आज तक कभी कुमुद और उषा ने कोई चीज़ अलग नहीं रखी …. रह लेंगी दोनों बहने एक साथ । अगर सास- ससुर को कोई दिक़्क़त ना हो तो कुमुद की गारंटी हम लेते हैं । और फिर हमारा तो इतिहास ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है, जहाँ दो बहनों का एक ही पति होता था ।
चुपचाप कुमुद सुनती रही …. सास-ससुर से उम्मीद रखनी बेमानी थी ….. वे तो दो जवान बेटों की मृत्यु के बाद बुत बन गए थे । पूरा घर रिश्तेदारों और जान-पहचान वालों से भरा हुआ था …… आज वह स्वयं अपना निर्णय लेगी ।
हवन और ब्रह्म-भोज के बाद शोक- सभा थी , जिसमें उषा के भविष्य को ध्यान में रखते हुए चर्चा की संभावना थी । कुमुद कनखियों से हर एक व्यक्ति के चेहरे को पढ़ने की कोशिश कर रही थी । सहसा रिश्तेदारी में सबसे बुज़ुर्ग मामाजी खड़े हुए और उन्होंने कुमुद को बाहर एकत्रित लोगों के सम्मुख उपस्थित होने के लिए कहा ——
बहू ! उषा के मायकेवाले का कहना है कि उषा तुम्हारी बहन है और तुम्हें कोई आपत्ति नहीं होगी , अगर उषा की ज़िम्मेदारी अरविंद को सौंप दी जाए । मैंने तुम्हारे माता-पिता से इस बारे में बात की तो उनका भी यही कहना है कि कुमुद और उषा तो , कहने के लिए दो अलग शरीर हैं पर दोनों में एक दूसरे की जान बसती है , बेटा ! तुम इस नए रिश्ते को……..
नहीं मामाजी , दोस्ती अपनी जगह है पर ज़िंदगी अपनी जगह । मैं उषा को अपनी सौतन के रूप में हरगिज़ स्वीकार नहीं कर सकती …. फिर अभी उसकी उम्र भी क्या है , सही रहेगा कि उषा को आज ही उसके माता-पिता के साथ भेज दिया जाए ताकि उसे अपने दुखों की यादों से छुटकारा पाने में आसानी रहे और कुछ समय बाद उसके पुनर्विवाह के बारे में सोचा जाए ।
अरविंद को तो करंट सा लग गया पर लोगों से भरे पंडाल में उसके मुँह से एक शब्द नहीं निकला । वह चाहकर भी कुछ नहीं कह सका और उसी शाम उषा अपने माता-पिता के साथ मायके लौट आई । बस यहीं से कुमुद और उषा के परिवारों के बीच की मधुरता समाप्त होने लगी ।
छः महीने के भीतर ही उषा का विवाह एक विधुर से कर दिया गया जिसका पूरा खर्चा दान दहेज समेत, कुमुद के कहने पर , उसके ससुर ने उठाया क्योंकि उषा के मामले को लेकर कुमुद और उसके पति में काफ़ी लड़ाई झगड़ा हुआ था और क़ई महीनों तक , दोनों ने बातचीत भी नहीं की पर भगवान की दी हुई ताक़त थी कि कुमुद ने पति के सामने सिर नहीं झुकाया । उषा के विवाह के बाद, जब उषा को बुलाने की आशा समाप्त हो गई तब कहीं जाकर कुमुद और उसके पति के बीच धीरे-धीरे बातचीत शुरू हुई ।
सब अपनी -अपनी ज़िंदगी जी रहे थे कि एक बार फिर उषा पर वज्रपात हुआ , उषा के तीसरे पति की कैंसर से मृत्यु हो गई और एक बच्ची को गोद में लेकर वह मायके आ गई । कुमुद को अपनी माँ से इसके बारे में पता चला—-
कुमुद ! अभागन उषा को क़िस्मत ने फिर धोखा दे दिया । वो आजकल आई है, तेरा नंबर माँग रही थी….. उससे तो मैंने पूछा नहीं पर क्या तुम दोनों के बीच बातचीत नहीं होती ? कोई कहासुनी हो गई क्या ?
माँ , आप नंबर मत देना । मैं खुद फ़ोन कर लूँगी । वो शायद सदमे में हैं इसलिए मेरा नंबर ना होने की बात कह रही है । आप चिंता ना करें …..
बस …… उस हादसे के बाद उषा के भाई ने भागदौड़ करके राजस्थान के किसी गाँव में उसका चौथा विवाह करवा दिया और उसके बाद से तो ……. आज कितने सालों बाद उषा का ज़िक्र आया था ।
कुमुद…. उठ जा ! चल उषा से मिल आते हैं । धूप ढल चुकी है। फिर रात के खाने का समय हो जाएगा ।
चलो माँ….. उस अभागन से मिल आती हूँ जिसने रिश्तों की कद्र नहीं की …..
मतलब ….
चलो माँ , ये कहानी बाद में सुनाऊँगी । ये थोड़ा सामान भी ले चलती हूँ….
जैसे ही कुमुद ने अपनी माँ के साथ उनके घर में प्रवेश किया तो उसकी नज़र लहँगा- ओढ़नी पहने हड्डियों के ढाँचे जैसे शरीर पर पड़ी ….. कानों में वही आवाज़ आई—-
कु….मु…..द… तू यहाँ…
उषा …. तू उषा है ? ये कैसी हालत हो गई ? कुछ खाती-पीती..
कुमुद और उसकी माँ काफ़ी देर बैठी बातें करती रही । उन्हें हैरानी हुई कि ना तो कुमुद ने अपनी ससुराल के किसी व्यक्ति का ज़िक्र किया और ना ही उषा ने कुछ पूछा । दोनों के बीच एक ऐसी गहरी खाई थी जिसे केवल कुमुद की माँ की अनुभवी आँखों ने भाँप लिया था ।
कुमुद ने लौटते समय उषा को दो सूट और उसकी बेटी के हाथ पर पाँच हज़ार रुपये रखे । उषा की आँखों में आँसू थे , शायद वह कुछ….. या शायद बहुत कुछ कहना चाहती थी पर माफ़ी माँगने के लिये, उसके पास शब्द ही नहीं थे ।
घर के दरवाज़े से बाहर निकलते समय कुमुद की माँ ने उषा के सिर पर हाथ रखकर सौ रुपये देते हुए कहा——
मेरी बेटी तुझे सौतन के रूप में भी, रानी बनाकर रखती पर तू बड़ी अभागन निकली क्योंकि दोस्ती में ग़द्दारी की कोई माफ़ी नहीं होती ।
आज पहली बार कुमुद ,माँ की गोद में सिर रखकर जी भरकर रोई क्योंकि इतने सालों का ग़ुब्बार दिल में भरा पड़ा था और माँ अपने आँचल से अपने आँसुओं को पोंछती अपनी समझदार बेटी के सिर पर हाथ फेर रही थी ।
करुणा मलिक