मैंने शादी के बाद पूरी ज़िंदगी अपने पति और उनके परिवार के नाम लिख दी थी। घर क्या था, सर्कस था, जिनमें हम जानवर थे, और मेरे ससुरजी रिंगमास्टर। वह सभी को नचाते लेकिन कोई उनके खिलाफ न बोलता था। रसोई की जिम्मेदारी धीरे-धीरे सारी मेरी होती चली गई! सासुमाँ तो बस कभी कमर, कभी सर, कभी बाहर; घर के कामों से सन्यास ही ले लिया उन्होंने।
ससुरजी, जिन्हें सब बाबूजी कहते थे, गाँव के जमींदार थे तो उनसे मिलने वालों का तांता लगा रहता और मेरा रसोई से निकलना ही दूभर हो जाता था। कभी चाय, कभी शर्बत इन सब से मैं पागल हो जाती मगर सासुमाँ झांक कर भी राजी न होतीं और ननद का तो पढ़ाई का पक्का बहाना रहता था। खैर, एक सहायिका के सहारे ये दिन भी गुजारे।
फिर मंझले देवर, जीतेंद्र की शादी हुई तो पर्दापण हुआ देवरानी का। बहुत सुंदर, पढ़ी-लिखी, पैसेवाले घर की। कहना न होगा कि सारा घर लट्टू हो गया। मुझे भी बहुत प्यारी लगी और मैंने पूरा स्नेह लुटाया। कुछ दिन बाद जब मैंने चाहा कि वह मेरी रसोई में मदद करे, लेकिन वह बहानेबाजी करके काम से बचने लगी।
शादी से पहले मुझे शायरी का बहुत शौक था। ग़ज़लें बहुत खूब कह लेती थी, शादी के बाद सब ठप्प। ससुराल में मनमर्जी कहाँ होती है भला! मेरी ख्वाहिशें सिमट गईं और फ़र्ज़ का शामियाना तन गया। अनछुई किताबें रैक पर सज गईं, कलम खो गई और उसके साथ मैं भी। घर के काम ही ग़ज़लें बन गईं और मेरी हसरतें, नज़्में।
एक दिन एक किसी पत्रिका के कागज़ में लिपटी कुछ सामग्री खोली तो कागज़ पर एक ग़ज़ल छपी दिखी। उसे पढ़ कर बहुत मन किया तो दोपहर को मैंने एक डायरी निकाली। उसमें एक अधूरी ग़ज़ल दिखी जो अब के हालात को पेश कर रही थी। एक शेर उस पर फिट बैठता दिखा, मैं वही लिखने लगी।
लिखते-लिखते किसी काम से रसोई में गई तो डायरी भी हाथ में चली गई। फिर एक के बाद एक काम सामने आते गए और मैं डायरी के बारे भूल ही गई। रात को कुछ अलफ़ाज़ और ज़ेहन में गूँजे तो डायरी याद आई। रसोई में लेने गई तो वह वहाँ से गायब थी। उस डायरी का किसी को क्या करना, एक तो पुरानी और भरी हुई? सीधा शक़ देवरानी की ओर गया।
“नीरू,” मैंने बेचैनी में आवाज़ देने के साथ ही उनके कमरे का दरवाजा भी खटखटा दिया।
“नीरू, तुमने रसोई से मेरी डायरी उठाई क्या?” दरवाजा खुलते ही मैंने सीधा सवाल दागा।
वह जवाब देने की जगह पलट कर अंदर की ओर देखने लगी। मैंने भी भीतर देखा तो जीतेंद्र के हाथ में डायरी थी और वह एक-एक पेज फाड़ कर, लिखे हुए शब्दों का माखौल उड़ाते हुए चिंदियां उड़ा रहा था।
मैं क्रोधावेश से काँपने लगी—
“आपको क्या अधिकार है, मेरी डायरी यूँ पढ़ने का और फिर उसे फाड़ने का?”
“हमारे खानदान में कोई कविता-वविता नहीं लिखता। खानदानी लोग हैं हम,” जीतेंद्र ने एक पृष्ठ मेरे सामने ही फाड़ा और उसकी चिंदियाँ करने लगा।
नीरू के चेहरे पर कुटिल मुस्कान खेल रही थी। मैंने जीतेंद्र के हाथ से डायरी लेनी चाही तो वह बदतमीजी करने लगा—
“ये तो बाबूजी के पास जाएगी अब,” जीतेंद्र ने डायरी हवा में उछाली और खड़े होकर लपक ली।
“वैसे तो कविता लिखना कोई बुरी बात नहीं है। लेकिन फिर भी, आपकी भाभी का घर में अपमान हो आपको अच्छा लगेगा क्या, देवरजी?”
“बात सच की है, जो बाबूजी के सामने आना चाहिए,” अब नीरू बोली तो मुझे समझ आया कि वे मुझे नीचा दिखाने की योजना बना चुके थे।
मैं चुपचाप अपने कक्ष में आ गई। मैंने अपने पतिदेव से इसके विषय में बताया तो वह मुझ पर ही भड़क उठे—
“मैंने तुम्हें पहले ही बता दिया था कि इस घर की औरतें ऐसे काम नहीं करतीं। मैंने तुम्हें सिर्फ इस शर्त पर रोका नहीं कि तुम्हारी शायरी की डायरी इस शयनकक्ष से बाहर न जाएगी। तुम डायरी को रसोई तक ले कर जाओगी तो हंगामा होगा ही”।
“ठीक है, हंगामा होगा मगर जब हम जवाब देंगे तो आप चुप रहना,” मैंने शायद पहली बार अपने पति को यूँ जवाब दिया था।
वह चुप होकर मोबाइल में कुछ देखने लगे और मैं सेफ के लॉकर में कुछ तलाशने लगी। बाबूजी अक्सर दालान में पंचायत लगा कर लोगों के घरों के झगड़े सुलझाया करते थे और अपनी कठोरता के कारण जाने जाते थे। साल भर पहले छुपा कर रखे गये एक पैकेट को देख कर मेरा मन संतुष्टि से भर गया और महसूस हुआ कि अब इसका समय आ गया है।
पाँच मिनट बाद ही बुलावा आ गया, ससुर जी ने अपने कक्ष में बुलाया था। मैंने वह पैकेट अखबार में लपेट कर अपने बाएं हाथ में लिया और पतिदेव के साथ चल दी। बाबूजी की कठोर प्रवृत्ति के बचपन से जानकार, वह बहुत व्याकुल दिख रहे थे। वहाँ पहुँचे तो कक्ष में सभी मौजूद थे। जीतेंद्र मेरे बहाने बड़े भाई पर जीत की मुद्रा में और नीरू कुटिल मुस्कान लिए खड़ी थी। सासुमाँ अवश्य कुछ चिंतित लग रही थीं और बाबूजी तटस्थ भाव से डायरी में बची-खुची कविताएं, ग़ज़लें पढ़ रहे थे।
“ये सब तुमने लिखी हैं, बहू?” बाबूजी का सवाल आया।
“जी, बाबूजी,” मैंने सत्यतापूर्वक स्वीकार किया।
“भई बहुत अच्छा लिखा है तुमने, बहू। वाह, आनंद आ गया इतनी प्यारी कविता पढ़ कर। मुझे दुःख है इस नालायक ने कई पेज फाड़ डाले हैं,” बाबूजी ने खड़े होकर मेरे सिर पर स्नेह से हाथ फिराया।
सबके चेहरे ऐसे हो गए, जैसे विश्व का आठवाँ आश्चर्य सामने हो। खुद मैं तो भावावेश में रो ही पड़ी।
मुझे रोते देख कर बाबूजी द्रवित होने के साथ ही क्रुद्ध भी हो उठे—
“माफी माँग भाभी से, नालायक!”
“लेकिन बाबूजी, आपको ग़ज़ल/कविता कहाँ पसंद है?” जीतेंद्र को बदली हवा में साँस लेना भी मुहाल हो गया था।
“हाँ, पसंद नहीं हैं, क्योंकि इतनी अच्छी कविताएं कभी सामने नहीं आईं। इनसे कोई कैसे मुँह मोड़ सकता है? मुझे गर्व है मेरी बहू ने ये लिखी हैं। हमारे खानदान में कोई तो लेखक हुआ और वह भी इतना अच्छा लिखने वाला, चल माफ़ी माँग, और ऐसे नहीं, पैर छूकर!”
जीतेंद्र शर्म से सिर झुकाए, मुँह लटकाए खड़ा रहा और नीरू जैसे कहीं छुप जाने की जगह ढूँढती सी लगी। डायरी फटने के दुःख और सुखद आश्चर्य से मैं इतनी हतप्रभ थी कि बस रोए जा रही थी। तब हैरान सी खड़ी सासुमाँ ने आगे बढ़ मुझे गले से लगा लिया। बाबूजी ने और कविताएं पढ़ने के लिए डायरी अपने पास रख ली और मैं इनके साथ कक्ष में वापस आ गई।
“भई मुबारक हो। तुम्हारी कविताएं तो पत्थर को भी पिघलाने के क्षमता रखती हैं,” इन्होंने मुझे बाहों में कसा, तो मेरे हाथ में पकड़ा पैकेट नीचे गिर गया।
“ये क्या है?” उन्होंने आश्चर्य से भर कर पूछा।
“कुछ नहीं,” मैंने कहा और गंदी तस्वीरों वाली वह पत्रिका पैर से पलंग के नीचे खिसका दी, जो एक साल पहले जीतेंद्र का कमरा संभालते हुए मुझे मिली थी। उस पत्रिका के कई पेजों पर उसने अंग्रेजी रोमांटिक ज़ुमले लिखे हुए थे।
—TT (तरन्नुम तन्हा)