अब आगे ••••••
संदलपुर के एक अति धनी और वैभवशाली परिवार में एक वृद्ध जानकी रमण जीवन की अन्तिम यात्रा की ओर बढ़ रहा था।
आज उसने अपने जीवन के पिचहतर वर्ष पूर्ण कर लिये थे। वार्ध्क्य उसके केशों से भले ही प्रकट हो रहा था
लेकिन उसके चेहरे और ऑखों में तेज दमक रहा था। पुत्रों और पौत्रों से परिपूर्ण उस सन्तुष्ट वृद्ध की कोई आकांक्षा शेष नहीं थी।
एक रात्रि भोजन के पश्चात जानकी रमण ने अपने पुत्र कमलाक्ष को अपने कमरे में ठहरने को कहकर सबको सोने के लिये भेज दिया और कुछ ऐसा बताना प्रारम्भ किया जिसके सम्बन्ध में जानकी रमण के अतिरिक्त कोई नहीं जानता था। यह रहस्य भी एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के मुखिया को हस्तांतरित किया जाता था।
धर्मान्ध कट्टरता के कारण रामलला का मन्दिर तोड़ा जा रहा था। जनता और श्रद्धालु छटपटा रहे थे कि अब वे कभी रामलला के दर्शन नहीं कर पायेंगे। उनके इतने वर्षों के पूजित रामलला के विग्रह के टुकड़े टुकड़े कर दिये जायेंगे। मन्दिर तो दुबारा बना लेंगे, लेकिन महारानी मोहना द्वारा प्रतिष्ठापित रामलला कहॉ से आयेंगे?
सन्ध्या होने वाली थी। रामलला के मन्दिर से करीब दस कोस दूर अपने घर में वैद्य शिवाकान्त शुक्ल बेचैनी से टहल रहे थे। शिवाकान्त का नाम आसपास दूर दूर तक फैला था। असाध्य रोगियों को भी स्वस्थ करने की उनमें विलक्षण क्षमता थी लेकिन वह अपने रोगियों को स्वस्थ करके ही प्रसन्न थे। उनके समीप लक्ष्मी का आगमन नहीं हो पाता था। थोड़ी सी भूमि पर ही उनका और उनके परिवार का गुजारा होता था।
आज बहुत से घरों में खाना नहीं बना था। उनकी पत्नी कालिन्दी गोद में तीन वर्ष के सोते हुये बेटे को लिये बैठी थीं। अचानक शिवाकान्त घर के बाहर जाने के लिये कपड़े पहनने लगे तो कालिन्दी प्रश्न भरी दृष्टि से उन्हें देखने लगी।
कपड़े पहनकर शिवाकान्त आकर कालिन्दी के पास बैठ गये। एक हाथ से उन्होंने कालिन्दी का हाथ अपने हाथ में ले लिया और दूसरा स्नेह से सोते हुये पुत्र के सिर पर रख दिया – ” कालिन्दी, मैं प्रभु कार्य के लिये जा रहा हूॅ। यदि सुबह तक मैं वापस न आ सकूं तो समझ लेना कि मैंने प्रभु कार्य हेतु अपना बलिदान दे दिया है और तुम पुत्र को लेकर मायके चली जाना।”
कालिन्दी के नेत्रों से ऑसुओं की धार गिरने लगी तो शिवाकान्त ने कहा – “:प्रभु कार्य हेतु जा रहा हूॅ, ऑसू गिराकर अपशकुन मत करो। जाओ, दही – चीनी खिलाकर खुशी खुशी विदा करो।”
” जब इस आततायी के समक्ष कोई कुछ नहीं कर पा रहा है तो आप क्या करेंगे?”
” अभी कुछ नहीं जानता लेकिन जिन्होंने यह प्राण और शरीर दिया है, उनके लिये उसे बलिदान तो कर ही सकता हूॅ।”
” मेरा और इस पुत्र का क्या होगा?”
” जिसने जन्म दिया है वही पालनहार है।” कालिन्दी में उठकर खड़े होने की भी क्षमता नहीं बची थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह पति से क्या कहे? जाने से रोके तो कैसे रोके? और जाने दे तो कैसे जाने दे? शिवाकान्त जी स्वयं रसोई तक गये लेकिन शायद घर में दही था ही नहीं,
इसलिये वह गुड़ का एक टुकड़ा लेकर कालिन्दी के पास आये और उसके हाथ में गुड़ का टुकड़ा पकडाकर स्वयं ही उसका हाथ अपने मुंह तक ले जाकर वह गुड़ का टुकड़ा खा लिया। इसके बाद बिना पीछे मुड़े घर से निकल गये।
रात का पता नहीं कौन सा प्रहर था, शायद सुबह चार या पॉच बजे के आसपास समय रहा होगा लेकिन सर्दी के मौसम के कारण घना अंधेरा था। उस समय बिजली तो थी नहीं इसलिये लोग जल्दी ही सो जाते थे।
अचानक द्वार की सांकल बज उठी। कालिन्दी तो रोते रोते बेटे को सीने से लगाये लेटी थी। उसके गालों पर ऑसू सूख गये थे। पता नहीं कल का सूरज उसके लिये कौन सा संंदेश लेकर आयेगा।अपनी तो उसे चिन्ता नहीं थी लेकिन पुत्र का भविष्य उसके समक्ष विकराल रूप में सामने खड़ा था।
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एक भूल …(भाग-19) – बीना शुक्ला अवस्थी : Moral Stories in Hindi
बीना शुक्ला अवस्थी, कानपुर