बचपन से ही और लड़कों की तरह शुभा का बेटा भी मां के आगे -पीछे ही घूमता रहता था।पापा के ड्यूटी से आते ही दौड़कर दादी के पास चला जाता था।बहन इसके विपरीत अपनी पापा की ज्यादा लाड़ली थी।शुभा को सासू मां अक्सर कहती”यही होता आया है हमेशा से बहू,बेटा मां का और बेटी पापा की होतीं है।अपने पति को ही देख लो,आज भी अपने पिता के सामने ज्यादा बात नहीं करता।”
शुभा मन ही मन खुश भी होती कि अच्छा है अपने पापा के जैसा गुस्सैल नहीं हुआ मेरा आरव।शांत रहता है,लड़ाई -झगड़े से कोसों दूर।कभी गुस्सा आ भी जाए तो चुप हो जाता है,चिल्लाने नहीं लगता।कभी -कभी तो कह भी दिया करती थी
वह सासू मां से”देख लो आप,मेरा बेटा आपके बेटे से सौ गुना अच्छा है।मेरी हर बात मानता है।देखना जब इसकी बीवी आएगी ना,बहुत खुश रहेगी।आपके बेटे जैसा जिद्दी और लड़ाकू नहीं है मेरा बेटा।”वो भी कहां हार मानने वाली थीं,झट कहतीं “हां तो,अपने दादा जी पर गया है बिल्कुल।”शुभा निरुत्तर हो जाती।यह अच्छा है पोते -पोतियों की सब विशेषताएं दादा-दादी की तरह ही होती है।ननिहाल के कोई लक्षण हो ही नहीं सकते।
जब आरव बारहवीं में था,पिता बीमार रहने लगे।इस आकस्मिक आपदा ने बहुत अच्छे अवसर को जन्म दिया।बेटा जितना पापा से दूर रहा करता था ,अब उतना ही करीब आ गया था।यहां तक कि अब बाप-बेटे मिलकर शुभा का ही मजाक बनाते।
शुभा मन ही मन खुश भी हो रही थी कि बाप -बेटे के बीच की खाई पट रही है।अपने पापा की तबीयत से लेकर बाजार,किराना,बैंक और भी सारे दायित्व आरव ने ले लिए थे।जो बच्चा खुद से कभी एक गिलास भरकर पानी नहीं पीता था ,वह अब अपने पापा को जबरदस्ती डांट कर दवा दे रहा था।
एक चमत्कार यह भी हुआ कि हमेशा तुम्हारा बेटा ,तुम्हारा बेटा कहने वाले पंकज भी अब मेरा बेटा कहने लगे थे।कुछ चीजों में अब भी बेटे की पसंद अपने पापा से भिन्न थी,जैसे-समोसा खाना,पान खाना,रोज़ फुल्की लाना, दाल-चावल ना खाना।
शुभा को इसी बात की तसल्ली थी कि पापा की अस्वस्थता को देखकर आरव स्वयं के स्वास्थ्य के प्रति काफी जागरूक हो चुका था।
इक्कीस साल के आरव को देखकर अब सभी यही कहते”बिल्कुल दादा(पंकज) की फोटोकॉपी है।बस रंग भाभी जी का मिला है।लंबाई में अपने दादाजी पर गया है।”शुभा अक्सर चिढ़ जाती थी ऐसा सुनकर।
पंकज के आखिरी दिनों में आरव ने अकेले अस्पताल में रहकर बहुत सेवा की थी।शुभा ने कभी सोचा भी नहीं था कि ऐसा कर सकेगा वह।उसकी आंखों के सामने ही डॉक्टर ने वैंटीलेटर से हटाया था पंकज को।उसे ही सबसे पहले यह खबर दी गई थी
कि अब पंकज नहीं रहे।पंकज का पार्थिव शरीर अकेले एंबुलेंस में लेकर आने वाला आरव अपनी मां की फोटोकॉपी ही था।हर मुश्किल वक्त में सहज रहना तो शुभा का विशेष गुण था।
पापा की जगह नौकरी करने लगा था अब आरव।थोड़े ही समय में एक अलग ही व्यक्तित्व निखर कर सामने आ रहा था उसका। धैर्य पूर्वक पिता की अनुपस्थिति में परिवार की जिम्मेदारी कुशलता पूर्वक निभाने लगा था अब वह।
तनख्वाह मिलते ही अपनी छोटी बहन को सबसे पहले पैसे भेजता था,जबकि वह भी नौकरी कर रही थी।एक दिन शुभा ने पूछा भी”उसे सबसे पहले पैसे क्यों भेजता है रे?वह तो खर्च भी नहीं करेगी कंजूस।”
उसने गंभीर होकर कहा”पापा अपनी तनख्वाह मिलते ही सबसे पहले बहन को पैसे भेजते थे।मैं तब चिढ़ता भी था,पर अब समझ सकता हूं।बाहर रहती है वह।कब किस चीज की जरूरत पड़ जाती होगी,क्या पता?वह मांगेगी तो नहीं
कभी मुझसे।मैं हूं उसका बड़ा भाई।मेरी जिम्मेदारी है वह।मेरी कमाई नहीं सोच लो पापा भेज रहें हैं उसे पैसा।”शुभा अवाक रह गई।ये तो सचमुच पापा की फोटोकॉपी ही बन गया है।उस आदमी ने ज़िंदगी भर अपनी जिम्मेदारियों को महत्व दिया।
यहां तक कि अपने ससुराल के प्रति अपनी जिम्मेदारी भी निभाई।कभी किसी चीज के लिए मना नहीं किया।एक बार मुंह से कुछ मांग ले कोई,कैसे भी करके लाकर देते थे।कितनी बार इसी बात पर लड़ाई भी हो चुकी थी,
कि कम कुछ क्यों नहीं लाते?पर वो तो अपने आप में ही दुर्लभ थे।बच्चों को भी कभी चीजों की कीमत का ताना नहीं दिया था।आरव और उसकी बहन हमेशा यही कहते हैं”हमारे पापा ने दिल खोलकर हमें खिलाया है। जरूरत मंदों की मदद करना सिखाया है।अपने दायित्वों को निभाना सिखाया है।”
नौकरी करने हुए लगभग साल भर हो गया था।आरव में अब बहुत सारे परिवर्तन दिख रहे थे।ख़ुद ही कहता”मम्मी,मुझे आजकल सभी कहने लगे हैं कि पापा के जैसा रौबदार हो गया है। गुस्सा भी आने लगा है अब मुझे।काम पर मैं खुद में पापा को
अनुभव करता हूं।अब पहले जैसे चुपचाप किसी की ग़लत बात नहीं मान पाता मैं।”शुभा ख़ुद भी तो देख रही थी बेटे को अचानक से पुरुष बनते।स्वाभिमान को चोट लगे तो पंकज भी कभी चुप नहीं रहते थे।
आज बेटे से सुबह ही कहा शुभा ने”आम और खरबूजे खत्म हो गए हैं बेटा।आतें हुए लेते आना।थैला दे दूं क्या?”
आरव ने थैला देने के लिए मना किया।शाम को नौकरी से लौटते हुए दो बड़े-बड़े थैलों में भर-भरकर फल खरीद लाया।शुभा को बहुत गुस्सा आया।इतने सारे फल फ्रिज में रखे-रखे सड़ जातें हैं।इतना सारा कौन खा सकेगा?गुस्साते हुए कहा उसने”ये कोई तरीका है
खरीदारी करने का।हनुमान जैसे पूरा पर्वत उठा लाया तू।कुछ दिनों में ही खराब हो जातें हैं आजकल फल।एक किलो या आधा किलो नहीं खरीद सकता था।यही आदत तेरे पापा की भी थी,अब खुद भी वैसा ही बन गया है।”
आरव ने स्पष्ट शब्दों में कहा”हां,मैं तो हूं ही पापा का बेटा।ये थोड़ा-थोड़ा खरीदना मुझसे नहीं होता।सारा दिन आप और दादी मिलकर खाओ कंदमूल,और क्या।”
शुभा ने खिसियाते हुए कहा”एक दम अपने पापा की फोटोकॉपी बनने की कोशिश मत कर समझा।”
उसने भी चुटकी लेते हुए कहा”अपने पापा की फोटोकॉपी हूं ही मैं,बनने की कोशिश क्यों करूंगा?”
वाह!!!!!आज तो सचमुच प्रमाणित हो गया कि बेटे बचपन से चाहे जितना अपनी मां के आगे-पीछे चूमे,बड़े होकर जैसे ही पुरुष बनते हैं, स्वाभाविक रूप से अपने पापा की फोटोकॉपी ही बन जातें हैं।शुभा मन ही मन हंसते हुए बड़बड़ा रही थी।
शुभ्रा बैनर्जी