रोटी – मुकुन्द लाल : Moral Stories in Hindi

अपने गांव के पड़ोसी टोले से मांगी गई रोटियाँ कारी के लिए अनमोल थी। अपने दो बच्चों के साथ तीन शाम तक भूख से लड़ने के बाद गिड़गिड़ाने और आरजू-मिन्नत करने के बाद उसे रोटियाँ नसीब हुई थी, उस टोले के सचिन की मांँ की मेहरबानी से।

   नौरंगी जब जिन्दा था तो कारी रानी का सुख तो नहीं भोग रही थी पर इतना जरूर था कि उसको और उसके दोनों बच्चों मोहरा और पुतुल को दोनों शाम भरपेट अनाज मयस्सर हो जाता था।। हालांकि उसको इसके लिए खेतों में सुबह से शाम तक पसीना बहाना पड़ता था किसान की निगरानी में। 

   एक रात नौरंगी की हैजा से मृत्यु हो गई उचित इलाज और दवा के अभाव में। उसकी अकाल-मृत्यु ने कारी के जीवन में अकाल-कुसुम उगाह दिये थे। उसकी घर-गृहस्थी में आग लग गई। उसके छोटे से कुनबे की हालत वही हो गई जो पतवार विहीन नौका की होती है।

   जब तक नौरंगी जीया जी-तोड़ मेहनत करके अपनी मेहरारू कारी और अपने बच्चों का पेट भरता रहा, पर अब वह सपना था। कारी एक शाम खाती तो दूसरे शाम की चिन्ता सताती उसे। कभी-कभी तो फांके पड़ने की भी नौबत आ जाती।

   जब किसी के घर में बासन-बर्तन , गोबर-गोइठा करती तो दो कौर अनाज नसीब होता वह भी नियमित नहीं। गांव में जब किसी के घर शादी-विवाह, छठ्ठी-छिल्ला या मरनी-हरणी होती तो कारी की बुलाहट होती। दो-चार दिनों के बाद फिर वही बदहाली और मुफलिसी के संग उसे रोटी की लड़ाई लड़नी पड़ती थी।

   इधर एक सप्ताह से कारी जड़ैया बुखार से पीड़ित थी। होम्योपैथिक की फकीरी इलाज से जब उसे मुक्ति मिली तो कमजोरी ने उसे धर दबोचा। किसी के घर बासन-बर्तन मांजना, झाड़ू-पोछा करना उसके वश के बाहर की बात हो गई थी। कुछ दूरी तय करने पर वह हांफने लगती। उसकी सांँस धौंकनी की तरह चलने लगती थी कठिन काम करने पर। ऐसी परिस्थिति में भूखे बच्चों का रुदन-क्रंदन उसके सीने को चाक करके रख देता था। मथने लगती थी उसके कलेजे को भूखे मोहराऔर पुतुल की तड़प।

   वह निकल पड़ी विवश होकर अड़ोस-पड़ोस में रोटी मांगने के लिए डगमगाते कदमों से।

   अपने पड़ोसी भागवत के घर गई थी तो उसकी मेहरारू ने लाल झंडी दिखा दी थी, तब उसके कदम अनायास ही मुड़ गये गजाधर की हवेली की ओर। उसने कई बार बासन-बर्तन मांजने का काम किया था उसके यहाँ ।

   उसकी हवेली में दाखिल होते ही कारी ने गजाधर की पत्नी मालती को कलपती आवाज में अपनी आप-बीती सुनाई फिर अपने भूखे बच्चों का वास्ता देकर उसने रोटी की याचना की।

   मालती पल-भर मौन रही फिर आंगन में रखे बर्तनों के पहाड़ की ओर इशारा करते हुए उसने कहा, ” रोटी मिलेगी… पहले बर्तन मांज दे…”

   उसने कारी के चेहरे की ओर देखते हुए आगे कहा,

“मेरी नौकरानी भी न जाने कहाँ मर गई है… अभी तक पता नहीं है…” इसके साथ ही उसकी आंँखों में कठोरता छा गई थी।

   “बहुत कमजोर हूँ मालकिन।… दो-चार रोज बाद रोटी के बदले काम कर दूंँगी।… आज रोटी दे दो… तेरा भला होगा… बच्चे भूख से बेहाल हैं… बर्तन मांज देती।… पर क्या करूँ थोड़ा भी काम करने पर चक्कर आने लगता है…” उसके चेहरे पर  गिड़गिड़ाहट थी। 

   ” चक्कर आता है तो घर में आराम कर!… हाथ पसारे क्यों चल रही है।… हम तेरे बच्चों का ठेका ले रखे हैं क्या? ” तल्ख आवाज में मालती ने कहा। 

  ” रहम कर मालकिन।… दो रोटी ही दे दो… “

  ” दो रोटी?… रोटी क्या हराम में आती है।… पांच रुपये में एक रोटी आती है… “

   देह में कूबत आते ही रोटी के बदले खट दूंँगी मालकिन” हाथ जोड़ते हुए उसने कहा। 

   “चल हट यहाँ से दाय-लौड़ी का कौन भरोसा… “

  ” ऐसा मत कहो मालकिन!… कुछ खाने को दे दो… थोड़ा आटा ही दे दो…” 

   ” मेरा मगज मत चाट!… यहाँ क्या खैरात बट रहा है… हमारे दरवाजे पर तो दिन-भर में दस भिखमंगे आते हैं… क्या सबको रोटी बना-बनाकर बांटती रहूंँ” हाथ नचाते और मुंँह बिचकाते हुए उसने कहा। 

  ” ऐसा मत कह बहिन!… “

  ” मैं तेरी कैसी बहन रहूँगी… रिश्ता मत जोड़ हमसे..

चली जा यहाँ से… बक-बक कर रही है… “बड़बड़ाती मालती हवेली के अन्दर चली गई। 

   कारी आसमान से गिरी। वह निराश होकर चल पड़ी थी गजाधर की हवेली से। 

   दो-चार कदम आगे बढ़ी ही थी कि उसकी आंँखों के आगे अंधेरा छा गया।  

   उसको भी अन्न के दर्शन किए हुए तीन शाम हो गए थे। भूख से उसकी आंतें जल रही थी। वह त्रस्त थी पेट के दहन के उत्ताप से। उसके आगे बढ़ने की शक्ति जाती रही। वह बैठ गई धम्म से गली के चबूतरे पर धराशाई होते जीर्ण वृक्ष की तरह। 

   थोड़ी देर बैठने के बाद उसे कुछ राहत मिली, पर दूसरे ही क्षण कारी की आंँखों के आगे रोते-विलखते मोहरा और पुतुल के चेहरे नाचने लगे। वह व्याकुल हो उठी। आंँखें भर आई उसकी। आंँचल से अपनी आंँखों को पोंछते हुए वह चबूतरे से नीचे उतरी। वह खड़ी रही थोड़ी देर तक किंकर्तव्यविमूढ़ सी। उसने अपने मोहल्ले की ओर देखा, जहाँ चतुर्दिक श्मशानी सन्नाटा छाया हुआ था। 

   उसके मन में विचार आया कि ऐसा जीवन जीने से क्या फायदा? क्यों नहीं वह किसी कुएंँ या तालाब में डूबकर आत्महत्या कर ले, पर दूसरे ही पल अपने बच्चों की ममता की सघन परत ने ढक लिया था खुदकुशी के विचार को। 

   उसे लगने लगा था कि उसे जिन्दा रहना पड़ेगा अपने बच्चों के लिए। आत्महत्या के बाद अपने बेटे के पालन-पोषण व दुर्दशा का ख्याल आते ही उसकी आत्मघाती सोच खंडित हो गई। 

   जिजीविषा ने उसके कदम बढ़ा दिए रोटी की जुगाड़ करने के लिए गांव के दूसरे टोले की तरफ। 

   उसकी दयनीय स्थिति पर रहम खाकर सचिन की मांँ ने उसे रोटियाँ दी तो उसकी आंँखें खुशी से चमक उठी। हर्षातिरेक में उतावली वह रोटी की छोटी-सी थैली हाथ में दबाये चल पड़ी थी अपने झोपड़ीनुमा घर की ओर। 

   उसके चेहरे पर रोटी पाने के बाद ऐसी खुशी झिलमिला रही थी जो किसी बादशाह के चेहरे पर छप्पन प्रकार के व्यंजनों का स्वाद लेने के बाद भी शायद ही नसीब होगी। 

   अभी दो-चार कदम ही आगे बढ़ी थी कि उत्सुकता ने उसे धर दबोचा। पोलिथीन की थैलियों से झांकती रोटियों ने उसकी ललक की लौ को भड़का दिया था। क्षण-क्षण उसकी नजरें रोटी की ओर मुड़ रही थी। रोटी का सम्मोहन उस पर छाने लगा। 

   वह असमंजस में पड़कर एक पुलिया पर बैठ गई। उसने थैली से रोटियों को निकालकर उसकी गिनती की। थैली में एक अचार के टुकड़े के साथ चार रोटियाँ थी। खाने वाले तीन थे। कारी ने सोचा दो रोटियाँ वह खा लेगी, एक-एक रोटी मोहरा और पुतुल को खिला देगी। 

   अचानक उसकी आत्मा रोटी के इस वितरण पर उसे धिक्कारने लगी, ” छीः!… मांँ होकर ऐसा सोचती हो… एक-एक रोटी से उनका पेट भरेगा?… नहीं!… नहीं! वह चारों रोटियों को बच्चों में बांट देगी। वह किसी दूसरे घर से चिरौरी करके अपना पेट भर लेगी या पानी पीकर अपने पेट में उठते भूख के शोलों को कुचल देगी।” 

   रोटी और भूख के द्वन्द ने उसके अन्तस्तल में खलबली मचा दी। चारों रोटियों ने कारी के चारो खानें चित करके रख दी थी। वह उधेड़-बुन में पड़ गई थी कि रोटी वह खाए या बच्चों को खिलावे। परेशानी में डूब गई वह। उसके चेहरे पर पसीने की बूंँदें चुह-चुहा आई। उसने आंँचल से अपना चेहरा पोंछा। 

   उसकी आंँखों के आगे भूख से बिलबिलाते व चीत्कार करते बच्चों के चेहरे नाचने लगे। उसने चारों रोटियों को थैली में डाल दिया, लेकिन अचार का स्वाद लेने का लोभ वह संवरण नहीं कर सकी । 

   अचार चखते ही उसके मुंँह में पानी भर आया। खट्टी-चटपटी व मसालेदार अचार ने उसके मुंँह का जायका बदल दिया। उसके मुंँह से लार टपकने लगी। रोटी और अचार की समवेत महक ने उसकी भूखी अतड़ियों की आग को भड़का दिया और उस आग की ज्वाला में रोटी वितरण की योजना झुलसने लगी थी। उसकी सोच में बदलाव आने लगा। क्षरण शुरू हो गई उसकी द्दढ़ता में। उसके सब्र का बांध टूट गया। 

   भूख के वशीभूत होकर उसने एक रोटी थैली से निकाली। कुछ ही पल में अचार के साथ चटखारे ले-लेकर खा गई। 

   एक रोटी ने पेट की आग में घी का काम किया। उसने दूसरी रोटी थैली से निकाली। क्षण-भर उसने उलट-पलट कर उसे देखा फिर खाना शुरू कर दिया उसने। 

   जठराग्नि ने उसकी सोच को जलाकर राख कर दिया था। वह विवश थी भूलने के लिए कि उसके बेटे भी भूख की ज्वाला में जल रहे हैं। उस पर जुनून सवार हो गया था अपनी क्षुधा शान्त करने की। भूख के नुकीले और पैने दांतों की चुभन की पीड़ा से मुक्त होने की लालसा ने विराट रूप अख्तियार कर लिया था। जिसने सारी सामाजिक और नैतिक मान्यताओं को दरकिनार कर दिया था। 

   जब चार  में से दो रोटियों को कारी ने अपनी भूख की बलिबेदी पर कुर्बान कर दिया तो उसे भूखे पुतुल और मोहरा का उसे ख्याल आया, पर तत्क्षण ही भूख की ज्वाला ने धूमिल कर दिया उसके जेहन में उभरते पुत्रों की छवि को। 

   अनायास ही उसका हाथ  थैली की ओर बढ़ने लगा तीसरी रोटी निकालने के लिए। अचानक उसकी आत्मा धिक्कार उठी, ” छीः!… कैसी मांँ हो… अपने भूखे बच्चों को खिलाने के बजाय अपना पेट भर रही हो।… तुम मांँ नहीं डायन हो… चुड़ैल हो…” 

   दूसरे ही पल उसका खाली हाथ थैली से वापस लौट आया। 

   क्षण दो क्षण के बाद ही उसे यह विचार कुरेदने लगा, ” मैं भी तो तीन शाम से भूखी हूँ।… तीन शाम की भूख दो रोटियों से शान्त हो सकती है? नहीं न!… चारो रोटियों को खाने के बाद फिर कहीं न कहीं से मांग-चांग कर रोटी का इंतजाम कर ही दूंँगी उनके लिए।

   तर्क-कुतर्क के घात-प्रतिघात से आहत और अशांत अंतस को इस विचार ने पल-भर के लिए सांत्वना की शीतल छाया प्रदान की। 

   कुछ क्षणों तक रोटियों की थैली को गिद्ध दृष्टि से देखती रही। फिर उसके मन का द्वन्द त्वरित होने लगा। पेट की आग ने उसकी अतृप्त इच्छाओं को बल प्रदान किया। अतृप्त इच्छाओं ने उसकी आत्मा की आवाज को अनसुनी कर दी।

   बुभुक्षा की सघन चादर में ममता मुंँह छिपाकर सिसकियाँ लेने लगी। 

   कारी का हाथ रोटी की ओर पुनः बढ़ने लगा जैसे हिंसक पशु आहिस्ता-आहिस्ता शिकार की ओर बढ़ता है। 

   उसने तीसरी रोटी निकाल ली थैली से। फिर उसके जेहन में भूखे मोहरा और पुतुल की आकृति उभरी। मन ने कुतर्क के वार से उस आकृति को क्षतिग्रस्त कर दिया, जबरन ढकेल दिया सोच के हाशिये पर। 

   तीसरी रोटी का आधा हिस्सा ही वह खा पाई थी कि अचानक उसने देखा कि मोहरा रोता-बिलखता ‘मांँ-मांँ’ कहता चला आ रहा है। 

   मोहरा को देखते ही जैसे वह आसमान से गिरी। उसका आवेश शान्त पड़ गया। हाथ में बची आधी रोटी उसने थैली में डाल दी। 

  कुछ ही पलों के बाद  बिलखता मोहरा अपनी माँ के सामने आकर खड़ा हो गया। 

   मांँ ने तल्ख आवाज में कहा, ” अरे!… तू पुतुल को घर में अकेला छोड़कर चला आया।” 

   क्षण-भर के लिए वह सिर झुकाकर मौन खड़ा रहा अपराधी की तरह। क्षणांश बाद उसने धीमी आवाज में कहा, ” मांँ!… कुछ खाने को दो मांँ… अब माड़ पीकर नहीं रहा जाता।… रघु की मांँ माड़ भी नहीं देना चाहती है… डांँटती है… ।”

    बेटे की फरियाद मांँ के कलेजे में बरछी की तरह चुभी। अपराध-बोध की भावना के नीचे दबी उसने   उसको सांत्वना दिया, ” अरे!… उसी का तो उपाय करने गई थी।… ले रोटी! “

   मोहरा को दो दिनों के बाद रोटी नसीब हुई थी। उसने न आव देखा न ताव झटके से थैली में हाथ  डाला और रोटी निकालकर खाने लगा। तभी अपनी माँ के हिदायती स्वर उसके नन्हे दिल में बुझे हुए तीर की तरह चुभने लगे, ” सुन!… एक रोटी तू खा लेना और आधी रोटी पुतुल को खिला देना…” दूसरे ही क्षण रोटी की तरफ देखती हुई उसकी माँ ने कहा, ” अरे!… तू तो आधी रोटी अभी ही चट कर गया।” 

   मोहरा के हाथ सहसा रुक गए। उसकी थैली में मात्र एक रोटी बची थी जो मोहरा के लिए चुनौती थी। 

   कुछ पल तक  मांँ और बेटे एक-दूसरे  के बेबस,  भूख से झुलसे हुए चेहरे को भींगी आंँखों से निहारते रहे। 

   अपने को संयत करते हुए मांँ ने कहा,” मुंँह क्या ताक रहा है?… जा!… पुतुल को आधी रोटी खिला देना… वह भी सुबह से ही खाने के लिए रो रहा था।” 

   “अच्छा!” बुझे हुए स्वर में मोहरा ने कहा। 

   “हम जा रहे हैं कोई जुगाड़ करने… जिससे शाम में कुछ खाने को मिल सके।” 

   मोहरा चल पड़ा था रोटी की थैली हाथ में दबाये अपने घर की ओर। उसका दिल कचोट रहा था। क्षोभ की लकीरें उभर आई थी उसके चेहरे पर। 

   रास्ते में भूख की ज्वाला उकसाती रही मोहरा को अपनी माँ के आदेश का उल्लंघन करने के लिए। 

   घंटे-भर बाद निराश होकर खाली हाथ कारी लौटी तो पुतुल को विलख-विलख कर रोता पाया उसने। मांँ को देखते ही पुतुल दहाड़ मारकर रोने लगा। मांँ ने फुर्ती से उसे अपनी गोद में उठा लिया। वह उसको दुलारने-पुचकारने लगी, फिर भी वह चुप नहीं हो रहा था। मांँ ने पुतुल को गले लगाकर उसके मुंँह को चूमते हुए कहा, ” क्या हुआ मेरे लाल को… मेरे राजा बेटा को, रोटी खाया न…” 

   “नहीं!” विलखते हुए पुतुल ने कहा। 

   “मोहरा रोटी खाने को दिया न रे!” 

   “भैया रोटी नहीं दे…” रोते हुए पुतुल ने कहा। 

   पुतुल की बातें सुनकर कारी की आंँखें गुस्से से लाल हो गई। उसके नेत्र से अंगारे बरसने लगे। पुतुल को अपनी गोद से नीचे उतारते हुए वह चीखी,” मोहरा!… अरे!… सुन यहाँ।” 

   मोहरा जो कोठरी के अन्दर दुबका हुआ था, आकर अपनी माँ के सामने सिर झुकाकर खड़ा हो गया। 

   “अरे!… हम कितना समझाये थे कि आधी रोटी पुतुल को खिला देना और तू…” दांँत भींचते हुए मांँ ने कहा। 

   मोहरा गुम-सुम अपराधी की तरह मौन खड़ा रहा। 

  ” अरे बोलता क्यों नहीं… तू क्यों खा गया?… यहाँ क्या रोटी का ढेर लगा है रे?… अब क्या खिलावें

 पुतुल को तेरा कलेजा… ऐं ।” और एक करारा तमाचा रसीद कर दिया था मोहरा के गाल पर। 

   वह दूसरा तमाचा मारना ही चाह रही थी कि अचानक उसकी आंँखें मोहरा की निरीह आंँखों से जा टकराई। उसका उठा हुआ हाथ एक झटके से नीचे आ गया। मोहरा की आंँखें जलप्रपात बन गई थी। 

   कारी का दिल फट पड़ा। वह फफक-फफक कर रोने लगी। उसने सिसकते हुए मोहरा को अपने सीने से लगा लिया। 

     स्वरचित 

©® मुकुन्द लाल

        हजारीबाग(झारखंड)

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