अपना अपना धर्म – बालेश्वर गुप्ता : Moral Stories in Hindi

अपना नाम सुन वीरेन ठिठक गया।दरवाजा खुला था,सो पहले की तरह वह अंदर चला गया।धीरेंद्र अपनी पत्नी को समझा रहा था, देखो वीरेन की नौकरी भी कोविड के समय चली गयी है, इस समय बेरोजगार है,जरूरतमंद है,पता नही मिलते ही क्या डिमांड कर दे,मैं तो इसीलिये उससे मिलने से कतराता हूँ।ध्यान रखना मेरे पीछे आये तो उसके बोलने से पहले ही अपनी आर्थिक परेशानी बताने लग जाना।

      वीरेन ने कभी धीरेंद्र के बारे में  ऐसा सोचा भी नही था कि वह उससे ऐसा व्यवहार करने की कल्पना भी कर सकता है।वीरेन वही से वापस हो लिया।उसे अपने पर ही क्रोध था कि वह व्यक्ति पहचान में चूक क्यो कर गया?

      सामान्य परिवार के वीरेन और धीरेंद्र बचपन से ही एक दूसरे के घनिष्ठ मित्र थे।साथ साथ स्कूल जाना ,खेलना कूदना,पढ़ना प्रतिदिन का क्रम था। इस बीच धीरेंद्र के पिता एक दुर्घटना में घायल हो गये तो परिवार पर आर्थिक संकट छा गया।धीरेंद्र की पढ़ाई का खर्च वहन करना भी मुश्किल था,

ऐसे में वीरेन और उसके पिता ने अपनी सीमित आय होते हुए भी धीरेंद्र के परिवार की सहायता की।वीरेन तो स्कूल तक मे भी धीरेंद्र से अपना लंच बॉक्स तक साझा करता।वीरेन सोच रहा था कि उसने तो कभी धीरेंद्र से कोई अपेक्षा दर्शायी तक नही तब उसकी इस प्रकार की सोच क्यों बन गयी?आज भी

वह तो अपने दोस्त के पास मात्र सलाह करने आया था कि नौकरी छूट गयी है तो क्या वह मेडिकल स्टोर खोल ले?धीरेंद्र से उसे पैसे की दरकार नही थी,वह उसने पिता के समय के एक 100 गज के प्लाट बेचने से व्यवस्था कर ली थी,बाकी बैंक से लिया जा सकता था।

       दुःखी मन से वीरेन वापस आ कर अपने मेडिकल स्टोर को खोलने के प्रयास में जुट गया।ईश्वर की अनुकंपा से वीरेन मेडिकल स्टोर खोलने में सफल हो गया।दुकान भी उसे एक ऐसे स्थान पर मिल गयी जहां चार पांच डॉक्टर प्रैक्टिस करते थे।वीरेन ने अपने स्टोर में तमाम दवाइयों के अतिरिक्त उन दवाइयों को रखने में प्राथमिकता दी

जिन दवाइयों को वे डॉक्टर्स अक्सर लिखते थे।उसने दवाइयों पर डिस्काउंट भी देना शुरू कर दिया था।परिणामस्वरूप वीरेन की बिक्री अच्छी खासी होने लगी।उसे लगने लगा था कि नौकरी से अच्छा अपना यह काम करना रहा।धीरे धीरे संपन्नता आने लगी।धीरेंद्र से कभी कभी मुलाकात हो जाती थी पर वीरेन ने कभी भी उस दिन की सुनी बात का उससे कोई जिक्र नही किया, वरन वह उससे सहज भाव से ही मिलता।

      अनहोनी तो किसी के साथ कभी भी किसी भी रूप में हो सकती है।धीरेंद्र जिस इंडस्ट्री में काम करता था,उसका मालिक अपने कारखाने को बंद कर विदेश चला गया,कर्मचारियों को दो दो माह का अतिरिक्त वेतन अवश्य देकर गया।धीरेंद्र के सामने  भविष्य में क्या होगा का प्रश्न खड़ा हो गया।

वीरेन के प्रति उसके  संकट काल मे अपने मन मे रखे विचारों के कारण धीरेंद्र अपराधबोध से ग्रस्त था,जबकि उसे यह ज्ञात भी नही था कि उस दिन वीरेन ने पति पत्नी की अपने विषय मे बातचीत सुन ली थी।धीरेंद्र की हिम्मत वीरेन से अपने रोजगार के विषय मे बातचीत करने की हो ही नही रही थी,क्योकि उसने कभी भी वीरेन के संकटकाल में उससे उसके दुःख दर्द की बात भी साझा तक नही की थी।

      एक दिन धीरेंद्र की पत्नी वीरेन के यहाँ आयी।इत्तेफाक से वीरेन भी तभी घर खाना खाने आया था।धीरेंद्र की पत्नी ने बताया कि कैसे वे आर्थिक संकट से गुजर रहे है,धीरेंद्र को नयी नौकरी मिल नही रही है,व्यापार लायक पैसे नही है,लगता है हमे आत्महत्या करनी पड़ेगी।वीरेन ने धीरेंद्र की पत्नी को ढांढस बंधा कर धीरेंद्र को उसके पास भेजने को बोल दिया।

      दो दिन बाद धीरेंद्र उदासी लिये उसके पास आया पर कुछ बोल नही पाया।वीरेन को सब स्थिति पता थी,उसने सब सोच भी लिया था।वीरेन ने धीरेंद्र से कहा भाई मुझे बिल्कुल पराया कर दिया,ऐसे संकट में है और मुझे बताया भी नही।देख मैंने दूसरे बाजार में एक दुकान तेरे लिये किराये पर ली है, मेरी साख पर तुझे दवाइयां उधार मिल जाया करेगी।जा अपनी नयी जिंदगी शुरू कर मेरे भाई।

     अवाक सा धीरेंद्र वीरेन का मुँह देखता रह गया।यह वह वीरेन था जिसकी परेशानी के समय उसने कन्नी काट ली थी और यह वीरेन उसके सामने देवदूत बना खड़ा था।ऐसा व्यवहार तो उसने सपने में भी नही सोचा था।

       आंखों में पानी लिये कृतज्ञ भाव से धीरेंद्र ने वीरेन के हाथों को पकड़ चूम कर अपने माथे से लगा लिया।

बालेश्वर गुप्ता, नोयडा

मौलिक एवं अप्रकाशित

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