ज्ञानदास विद्वान था, लेकिन स्वभाव का गुस्सैल। किसी से नहीं पटती थी। अपने स्वभाव के कारण कई जगह से नौकरी छोड़ चुका था। अपने पर बहुत काबू करने का प्रयास करता, लेकिन फिर भी क्रोध हावी हो ही जाता।
घर में पत्नी से लड़ता रहता। नियमित नौकरी न होने से घर में तंगी रहती थी। वह जब भी घर खर्च के लिए पैसे माँगती तो उससे झगड़ने लगता।
कहता, “तुम्हें पता है कि मेरे पास पैसे नहीं है। फिर भी क्यों माँगती हो?”
एक सुबह घर में इसी बात पर झगड़ा हुआ तो ज्ञानदास गुस्से में भरकर घर से निकल पड़ा। सोचता जा रहा थ, “इस राज की किच-किच से कैसे पार पाऊँ।” अपनी धुन में डूबा ज्ञानदास चला जा रहा था।
दिन चढ़ गया था। धूप तेज हुई तो प्यास लगने लगी। ज्ञानदास ने देखा थोड़ी दूर पर प्याऊ है। वह प्याऊ के पास जा पहुँचा। छायादार पेड़ के नीचे बैठकर सुस्ताने लगा। ध्यान आया सुबह से कुछ खाया नहीं, ऐसे ही घर से निकल पड़ा। अब क्या हो? पास में ही एक छाबड़ी वाला गुड़-चने लिए बैठा था। लेकिन उसकी जेब खाली थी ।
उसने पानी पिया और मुँह पोंछता हुआ चलने को हुआ, तभी एक साधु वहाँ आकर रुके। उन्होंने अपने कमंडल में जल भरकर पिया और एक तरफ बैठ गए। छाबड़ी वाले ने साधु को मुट्ठी भर गुड़-चने दिए। उन्होंने आँखें मूँदकर ध्यान लगाया फिर ज्ञानदास से बोले, “लो भैया, खा लो।”
ज्ञानदास को लेने में संकोच हुआ। बोला, “आप खाइए महाराज!”
साधु हँसकर बोले, “संकोच न करो। मुझे पता है, तुमने सुबह से कुछ नहीं खाया है। ले लो।”
ज्ञानदास ने गुड़-चने ले लिए और खाने लगा। छाबड़ी वाले ने साधु को और दे दिए। वह भी खाने लगे।
ज्ञानदास ने पूछा, “महाराज, आपको कैसे पता चला कि मैंने सुबह से कुछ नहीं खाया है?”
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साधु बोले, “हर बार भोजन करने से पहले मैं ध्यान लगाता हूँ कि मेरे आस-पास कोई भूखा तो नहीं है। और मुझे पता चल जाता है। बस, उसी तरह तुम्हारे बारे में जान लिया मैंने।”
“यह तो चमत्कार है महाराज!” ज्ञानदास बोला।
“यह चमत्कार नहीं, मन की शक्ति है।” साधु बोले।
सुनकर ज्ञानदास को अच्छा लगा। बोला, “क्या यह शक्ति मेरे मन में भी आ सकती है?”
“हाँ, आ सकती है। नियमपूर्वक ध्यान लगाना पड़ेगा। पर तुम यह नहीं कर सकते।”
“क्यों नहीं कर सकता?”
“क्योंकि तुम्हारे मन में इतना क्रोध भरा है कि किसी दूसरी बात के लिए वहाँ स्थान ही नहीं है।”
ज्ञानदास चमत्कृत हो उठा। साधु बाबा तो उसके मन का राई-रत्ती हाल जानते थे। अपने दुखी जीवन के बारे में सोचकर उसकी आँखों में आँसू भर आए। साधु के चरण छूकर बोला, “बाबा, मुझे अपने साथ ले चलिए, अपना शिष्य बना लीजिए।”
“क्या सचमुच तू मेरे साथ चलना चाहता है? मेरा शिष्य बनना चाहता है?”
“हाँ, महाराज!”
“तो मेरे कमंडल में गुरु दक्षिणा डाल दे। समझ ले तू मेरा शिष्य बन गया। फिर मैं तुझे अपने साथ ले चलूँगा।”
ज्ञानदास ने आँखें झुका लीं। बोला, “मैं आपकी सेवा में कुछ भी नहीं दे सकता। मेरे पास चने खरीदने तक के लिए तो पैसे थे नहीं। फिर भला…”
“अरे, साधु को पैसा नहीं चाहिए। तेरे मन में क्रोध का विष है। संकल्प कर मेरे कमंडल में डाल दे। वादा कर चाहे कैसी भी परिस्थिति हो, तू क्रोध नहीं करेगा। क्रोध को अपने सिर पर नहीं बैठने देगा। तभी तू चल सकेगा मेरे साथ।” कहकर साधु ने ज्ञानदास के सिर पर हाथ रख दिया।
2
ज्ञानदास ने कहा, “मैं प्रण करता हूँ महाराज! क्रोध नहीं करूँगा।”
साधु उठ खड़े हुए। बोले, “चल मेरे साथ।”
“कहाँ?”
“अब तू मेरा शिष्य हो गया। मन में विश्वास रख, और चला आ।” कहते हुए साधु बढ़ चले। सोच में डूबा ज्ञानदास भी पीछे-पीछे चला। अब उसे घर की याद आ रही थी।
थोड़ी देर बाद साधु के पीछे-पीछे अपने घर के बाहर जा रुका। हैरान होकर बोला, “लेकिन यह तो मेरा घर है। यहाँ से मैं गया था सुबह।”
“गया था लड़-झगड़ कर, बिना कुछ खाए। मेरा सच्चा शिष्य वही है जो मुसीबत से डरकर भागता नहीं, उसका सामना करता है। जा घर में जा। और ध्यान रखना, क्रोध तू मुझे दान कर चुका है। कुछ दिन बाद मैं फिर आऊँगा।” कहकर महात्मा वहाँ से चले गए। ज्ञानदास हड़बड़ाया-सा खड़ा रहा फिर घर में चला गया।
घर में घुसते हुए उसे लग रहा था जैसे वह कुछ कमाई करके लौटा हो। मन में शांति थी और कुछ कर दिखाने का विश्वास था।
(समाप्त )