गृहस्थी की डोर – शुभ्रा बैनर्जी  : Moral stories in hindi

विवेक जी रिटायरमेंट के बाद नागपुर में ही घर बनवाकर रह रहे थे।दोनों बेटियों की शादी कर दी थी।इकलौता बेटा दीपक डॉक्टर बना था।पोस्टिंग मध्यप्रदेश में हुई।मां का लाड़ला पहली बार घर से दूर जा रहा था।मां, सुमित्रा जी को सबसे ज्यादा चिंता बेटे के खाने की थी। ज्वाइनिंग का समय नजदीक आते ही विवेक जी से बोली”सुनिए ना,गुड्डू कैसे संभाल पाएगा ख़ुद को।मेरे हांथ के बने खाने की आदत है इसे।चलिए ना हम यह घर बेचकर उसी के साथ रहते हैं।”

विवेक जी ने समझाया”अभी नई-नई नौकरी है।पहले सब व्यवस्थित कर लें,तब जाना ठीक होगा।नई जगह,नया माहौल समझने दो उसे।तुमने अपनी गृहस्थी संभालने में अपनी पूरी उम्र बिता दी।अब बेटे को अपनी गृहस्थी संभालने का मौका दो।जब उसे हमारी जरूरत होगी,तब देखेंगे।”

सुमित्रा जी को पति की यह बात बिल्कुल पसंद नहीं आई।दीपक से कहा भी”बेटा,अपने पापा को समझा,साथ में ही रहने के लिए।हम यहां अकेले और तू वहां अकेला रह जाएगा।खाने पीने का ध्यान कौन रखेगा?”दीपक मां की बात से सहमत तो था,पर पापा से आज तक पहले कभी बहस नहीं की थी।उसने मां को ही समझाया”मां,अभी मुझे वहां जाकर रहने की व्यवस्था कर लेने दो।जल्दी ही बुलवा लूंगा आप लोगों को।”

दीपक को अस्पताल से बड़ा क्वार्टर मिल गया।अब तो सुमित्रा जी का नागपुर में रहना दूभर हो गया।विवेक जी ने घर बेचने से मना कर दिया।किराए पर अपना घर देकर ,बेटे के पास आ गए पति-पत्नी। सुमित्रा जी ने आकर अब बेटे की गृहस्थी जमा दी।जल्दी ही डॉक्टर बहू भी मिल गई।बहू भी सुबह बेटे के साथ निकलती,शाम को वापस आती।

थके -हारे बेटे बहू की जतन से देखभाल कर रहीं थीं सुमित्रा जी। देखते-देखते पोता भी हो गया।विवेक जी ने कई बार पत्नी से कुछ दिनों के लिए अपने घर चलने को कहा।सुनते ही भड़क कर कहतीं”कैसे दादा हैं आप,पोते का मोह ही नहीं।छोटा दीपक है।बहू भी घर पर नहीं रहती।नौकरानी के भरोसे कैसे छोड़कर चली जाऊं?

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“विवेक जी समझ रहे थे,कि पत्नी का मोह बढ़ता ही जा रहा है।एक दिन मौका देखकर दीपक से ही बोला उन्होंने “बेटा,मैं सोच रहा हूं जाकर घर देख आंऊं। किराएदारों के भरोसे कब से पड़ा है घर अपना।”दीपक को भी अपनी मां की आदत पड़ चुकी थी।पापा को ही समझाने की कोशिश की”पापा,आराम से तो हैं यहां आप दोनों।

दोनों दिन भर अपने पोते के साथ खुश रहतें हैं।अब इस उम्र में क्यों अकेले रहेंगे?मैं अगले महीने लेकर चलूंगा आपको नागपुर।आप चिंता मत करिए।”बेटे के प्यार पर तनिक भी संदेह नहीं था विवेक जी को।बहू भी सुलझी हुई मिली थी।ना जाने क्यों उनके मन में बेचैनी सी हो रही थी।

रात को अचानक पानी का बॉटल भरने रसोई घर की तरफ जाते हुए बहू के कमरे से आवाज़ सुनाई दी”दीपक,एक डॉक्टर होकर इतना मसाले दार खाना कैसे खाते हो तुम?हर सुबह तुम्हारी नई -नई फरमाइशें ,और मम्मी जी की तैयारी।इतना मिर्च -मसाला मैं नहीं खा पाती।कब से बोला रहीं हूं,एक बाई रखने के लिए। मम्मी मानती ही नहीं।

“दीपक बिफर कर कह रहा था”मालती,मेरी मां के हांथ के स्वाद में अमृत है।बचपन से मेरी पसंद की हर डिश मां ने मुझे बनाकर खिलाई है।मुझे ही क्यों?तुम्हारा भी तो कितना ख्याल रखती है वह।तुमसे यह उम्मीद नहीं थी मुझे।हम लोग खाने के शौकीन हैं।पापा को भी ऐसे ही खाने की आदत है।तुम्हें भी तो चार साल हो गए।तुम तो तारीफ भी करती हो उनके मुंह पर खाने की।अब यह नई तकरार क्यों?”

मालती दीपक को समझा रही थी”दीपक, मम्मी ने जिस तरह से मुझे और हमारे बेटे को संभाला‌ है,शायद मेरी सगी मां भी नहीं कर पाती।आजकल उनके आंखों में भी तकलीफ़ रहती है।घुटनों का पुराना दर्द है सो है।अब भी हम सबके लिए सारा दिन वो खटती रहें,यह मुझे अच्छा नहीं लगता।हमारे रवि के पीछे सारा दिन घूमती रहतीं हैं चकरघिन्नी की तरह।

मैं भी थकी रहतीं हूं।उनकी आराम करने की उम्र है अब।मैं बस यही चाहती हूं कि,खाना बनाने के लिए किसी को रख लें।उनकी भी मदद हो जाएगी,और मेरे लिए कम मसाले वाला खाना भी बन पाएगा।उनसे तो नहीं कह सकती ना,कि मेरे लिए अलग से सब्जी बनाए।मैं टिपिकल बहू नहीं हूं दीपक।एक समझदार औरत भी हूं।”

दीपक भी पत्नी की मंशा समझ चुका था।मालती को समझाते हुए कहा”ठीक है,मेरी समझदार बीवी।जब मां से नहीं होगा,वह खुद ही कह देंगी बाई लगाने के लिए।उन्हें रसोई से दूर मत करना तुम।तुम अपनी सब्जी बना लिया करो ना कभी-कभी।”

विवेक जी को बड़ा संतोष हुआ अपने बेटे-बहू के बीच तकरार खत्म होता देखकर।बहू सच ही तो कह रही थी। सुमित्रा की भी तो उम्र हो रही है।मैं तो बाहर के काम में मदद कर देता हूं,पर वो तो पूरा घर संभाल कर मेरी भी सेवा करती है।बहू समझदार है तो,आजतक तकरार हुई नहीं।

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कल गलती से कुछ इसके मुंह से निकला,तो श्रवण कुमार गलतियां गिनवाने बैठ जाएगा अपनी पत्नी की। नहीं-नहीं,अब इससे पहले कि घर में बेटे-बहू या सास बहू में तकरार बढ़े,उन्हें ही कुछ समाधान निकालना होगा।रसोई में जाते हुए विवेक जी बड़बड़ा रहे थे अपने आप।रसोई में जाकर पानी भरने लगे,तब नज़र फ्रिज के पास गई।

हे भगवान!भरवां बैंगन बनाने की पूरी तैयारी कर रखी थी,मां ने।सोचने लगे थे वे,ये औरतें रसोई को ही अपनी गृहस्थी मानकर पूरी ज़िंदगी खपा देतीं हैं। उम्र बढ़ने का असर होता है पर अनदेखा कर देतीं हैं।इनके लिए बच्चे कभी बड़े ही नहीं होते।और एक हम पुरुष हैं ,जो रिटायरमेंट के बाद सहज ही अपनी जवाबदारियों से मुक्त होकर,बेटे को जवाबदार होता देखकर संतुष्ट हो जातें हैं। तिनका-तिनका जोड़कर पढ़ाते लिखातें हैं।घर बनाते हैं ।

शादियां करवातें हैं। नाती-पोते के साथ खेलकर ही खुश हो जातें हैं।औरतें बेटों के खाने -पीने को लेकर मरने तक चिंता करती रहतीं हैं।स्वीकार ही नहीं कर पातीं कि अब बहू है,बेटे की देखभाल करने के लिए।बहू अगर कुछ बोल दे तो, स्वाभिमान पर चोट भी लगती है,और घर का माहौल भी बिगड़ता है।मैं यह होने नहीं दूंगा।

विवेक जी कमरे में आकर सोने लगे तो पत्नी का मासूम चेहरा देखकर खुद ही हंस दिए”वाह रे मां!!!बेटे को उसकी पसंद का खाना खिलाना ही इनका पुण्य बन जाता है।

अगली सुबह चाय पीते हुए सुमित्रा जी को देखकर  विवेक जी बोले”और सुमित्रा जी,क्या बन रहा है नाश्ते में आज?”

“दीपक के लिए इडली,रवि के लिए चीले,बहू के लिए  सोच रही हूं उत्तपम बना लूं,आप भी तो पसंद करते हैं ना उत्तपम?”सुमित्रा जी चहकते हुए बोलीं।विवेक जी ने कहा”हां-हां क्यों नहीं।

नाश्ते की टेबल पर उत्तपम का पहला कौर खाते ही विवेक जी चिल्लाते हुए बोले”बाप रे!ये उत्तपम है या कंडा?आरी ले आओ सुमित्रा,कांटा चम्मच की जगह।”दीपक और मालती चौंक गए,ये क्या हो गया पापा को।खाते समय कभी पहले ऐसा व्यवहार नहीं देखा था। बहुत ही शांति से संतुष्ट होकर खाना खाते थे।

नमक ना हो या ज्यादा हो,बड़े प्यार से बताते थे।मालती तो कहती भी थीं दीपक से कि पापा से सीखिए कैसे सपोर्ट करतें हैं अपनी पत्नी को।आज अचानक यह रूप देखकर बच्चों के सामने सुमित्रा जी भी हैरान रह गईं।विवेक जी ने एक उत्तपम खाया और बाहर चले गए। सुमित्रा जी को आज दुख कम अपमान ज्यादा लगा।

बात नहीं की उन्होंने पति से।दोपहर को भी खाना खाते समय वही सब दोहराया विवेक जी ने तो दीपक से रहा ना गया।बोल ही दिया “पापा,कितने अच्छे भंरवा बैंगन बनाए हैं मां ने।आप जबरदस्ती क्यों बेस्वाद बता रहें हैं इन्हें?बेचारी को कितना बुरा लग रहा है?”

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विवेक जी ने मन ही मन सोचा अच्छा,मां बेचारी हो गई। उन्होंने भी नहले पर दहला मारा”दीपक ,अब मेरी उम्र हो रही है।पिछले पैंतीस सालों से एक ही मसाले का स्वाद चढ़ा है जीभ में।कभी बाहर से कुछ खाने नहीं दिया।जो भी डिश बोलो,तुरंत ख़ुद ही बनाने बैठ जाती है।अरे ,शैफ तो नहीं है ना।

अब इस उम्र में इतना तीखा खाकर मरना है क्या मुझे?सारा दिन रसोई में घुसी रहती है,बुलाओ तो फुर्सत ही नहीं।अब दवा देने के लिए एक बाई को रखना पड़ेगा।साड़ी से तक मसालों की खुशबू आती रहती है।ना कहीं आना ना जाना,बस खाना-वाना।मैं तंग आ गया।”सुमित्रा जी का पारा सातवें आसमान पर चढ़ गया।

लगी चिल्लाने “यही ईनाम मिलना बाकी था, बेटे-बहू के सामने।पूरी जवानी खपा दी अपनी तुम्हारी सेवा में।तुम्हारी गृहस्थी संभालने में।अब बुढ़ापे में इतना बड़ा लांछन लगाते शर्म नहीं आती।इतना बुरा लगता है ,तो लगवा लीजिए बाई।मेरा बेटा तो मेरे हांथ का ही खाएगा।”

“अच्छा ,तो बुढ़ापे में गृहस्थी तुड़वाने का पाप भी मेरे मत्थे मढ़ोगी तुम?बेटे की गृहस्थी उन्हें ही संभालने दो। तुम्हारी उम्र हो गई ,मानती क्यों नहीं?दिन भर ऊटपटांग काम करती रहती हो,फिर रात को राग अलापती हो अपनी तबीयत ना चलने का।तुम औरतों को ना,रसोई में घुसकर टाइमपास करने का बहाना चाहिए।

मोहल्ले में देखा है किसी को,अपनी तरह रसोई घर में घुसी रहते।मंदिर जाने की उम्र है,पर नहीं।रसोई का मोह छूटेगा नहीं।जो बना दो, चुपचाप खा लें सब ,तो ठीक।”विवेक जी और चिढ़ाने लगे सुमित्रा जी को।

दीपक और मालती ने समझाया”पापा,लोग सुनेंगे तो क्या सोचेंगे?हमारे घर में आज तक कभी किसी प्रकार की तकरार नहीं हुई।सभी कितना सम्मान करतें हैं आपका और मां का। प्लीज़ चुप हो जाइये।क्या चाहतें हैं आप,बताइये?”

विवेक जी को इसी पल का इंतजार था,झट से बोले”दीपक ,एक खाना बनाने वाली रख लो बेटा।अब तुम्हारी मां के बस का नहीं खाना-वाना बनाना।”जैसा विवेक जी ने सोचा था,ठीक वैसा ही हुआ।स्वाभिमानी सुमित्रा जी ने पानी के गिलास से अपनी अंजुली में पानी लेकर प्रतिज्ञा की”आज के बाद यदि मैंने कभी भी खाना बनाया तो,मेरा—-“विवेक जी बीच में ही बात काटकर बोले”अब बुढ़ापे में यह प्रतिज्ञा लेने की जरूरत नहीं।तुम मान लो कि अब गृहस्थी नहीं चलती तुमसे बस।”।

सुमित्रा जी हांथ झाड़कर अपने कमरे में पहुंच कर दरवाजा बंद कर चुकी थीं।विवेक जी मन ही मन मुस्करा दिए।पगली अब तक पुरानी आदतें छोड़ी नहीं।कुछ देर ख़ुद ही मुंह फुलाकर रहेगी,फिर अपने आप ही सब भुलाकर सामान्य हो जाएगी।

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शाम को काम वाली बाई आई तो विवेक जी जैसे ही  बाहर निकलने लगे, सुमित्रा का आदेश सुनाई दिया”देख कामिनी,खाने में कोई भी समझौता मैं बर्दाश्त नहीं करूंगी।समय से सब बनाना होगा।सब्जी बनाकर दो जगह निकाल दिया करना।मेरे और बेटे के लिए।मैं मिर्च अपने हिसाब से मिला लूंगी।बाकी सब काम चल मैं समझा देती हूं।”

आज विवेक जी सचमुच आश्वस्त हुए।पत्नी की बढ़ती उम्र और थकावट दिखती थी उन्हें।साथ ही बहू की तारीफ करने का मन हुआ।उसकी बातों से ही तो यह भान हुआ कि,अब सुमित्रा के छुट्टी लेने का समय आ गया है।पति,बेटे अब पोते की पसंद के चक्कर में भविष्य में परिवार में कब तकरार शुरू हो जाए पता नहीं।

गृहस्थी बेटे-बहू की है,उसमें ज्यादा दखल देना ठीक नहीं।शादी के बाद से अपनी पसंद से हमेशा समझौता करके गृहस्थी सजाने में लगी रही।अब और कितने ही दिन बचें हैं?अब कहीं घुमाने ले जाऊंगा,तो गुस्सा कम हो जाएगा।पति के ऊपर गुस्सा करे ,तो वह बर्दाश्त कर लेंगे पर उनकी पत्नी अपने बहू-बेटे के बीच तकरार की वजह नहीं बननी चाहिए।

शुभ्रा बैनर्जी 

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