पुजारी शंभुनाथ की उम्र जब ढलने लगी तब बुढ़ापा के कारण उनकी शक्ति क्षीण हो गई, घुटनों के दर्द के कारण चलना-फिरना भी मुश्किल हो गया तो ऐसी परिस्थिति में दैनिक पूजा-पाठ की जिम्मेदारी अपने युवा पुत्र भुवनेश को सौंप दी।
झूलन, जन्माष्टमी और शिवरात्रि जैसे व्रतों और अन्य त्योहारों में ही वे आते थे किसी प्रकार। ऐसे मौकों पर मंदिर में भीड़ बहुत होती थी। काम में बढ़ोत्तरी भी हो जाती थी। अपनी क्षमता के अनुसार शंभुनाथ पूजा-पाठ व प्रसाद वितरण में सहयोग प्रदान करते थे।
भुवनेश सुबह पौ फटते ही उठ जाता। दैनिक क्रिया-कर्म से निपटने के बाद स्नान करके मंदिर चला जाता।
जहाँ मंदिर और गर्भ-गृह की सफाई आदि के बाद पूजा-पाठ की तैयारी में जुट जाता। इसी क्रम में चंदा प्रतिदिन भर डलिया फूल पूजा हेतु देने आती थी।
चंदा का बापू अधेड़ उम्र का था। वह अपने बाग में वृक्षों और पौधों की सिंचाई व साफ-सफाई के कामों में हमेशा व्यस्त रहता था। उसका भाई शादी होने के बाद अपनी पत्नी को लेकर शहर चला गया, वहीं किसी बड़े व्यावसायिक फर्म में नौकरी करके अपने परिवार के साथ जीवन-यापन करने लगा। उसकी मांँ घरेलू कामों में जुट जाती थी। ऐसी स्थिति में जहाँ-जहाँ फूल पहुंँचाने की बात होती थी, चंदा ही पहुंँचाती थी।
भुवनेश को सबसे पहले मंदिर में आते-जाते चंदा पर नजर पड़ ही जाती थी सुबह में।
उस दिन सुबह भुवनेश बाल्टी में पानी लेकर उस कक्ष में जहाँ देवी-देवताओं की मूर्तियां थी, धोने की नीयत से उसने प्रवेश किया ही था कि फूल देने के लिए आई हुई चंदा ने अचानक तेज आवाज में कहा, ” पुजारीजी!… कमरा से तुरंत बाहर निकलिए , लगता है कमरे के कोने में कोई सांँप कुंडली मारकर बैठा हुआ है।….”
भुवनेश के हाथ की बाल्टी घबराहट में हाथ से छूटकर गिर गई। वह तेजी से बाहर आ गया यह कहते हुए कि ‘अरे, हमको तो दिखा ही नहीं।’
‘सांँप-सांँप’ का शोर मचा गया। पड़ोस के लोग, कुछ भक्त-गण लाठी लेकर दौड़ पड़े मारने की नीयत से। भक्तों की टोली ने कहा कि मारो मत, जीव-हत्या मत करो, देवी-देवता ही तरह-तरह के रूप धर कर धरती पर आते हैं…. ताली बजाकर मंदिर से बाहर कर दो।
जितना मुंँह उतनी बातें। खैर कुछ लोग ताली बजा-बजाकर सांँप को निकालने की प्रक्रिया में जुट गए।
पुजारी भयभीत होकर मंदिर के ओसारे में बैठ गया, उसने चंदा को शाबाशी दी ऐन मौके पर सतर्क करने के लिए।
उस दिन से चंदा भुवनेश की कृपा-पात्र बन गई। वह चढ़ावों में आने वाले प्रसादों, कपड़ों व अन्य आने वाली सामग्रियों का कुछ हिस्सा चंदा को भी दे देते।
चंदा भी अपने बाग के अच्छे, सुन्दर व ताजे फूलों को लाकर देने लगी। कभी-कभी अपने बाग के आम, अमरूद या शरीफा… आदि भी भुवनेश को देने लगी।
वह कहता भी कि क्यों वह इतना कष्ट उठाती है, इन फलों को बाजार में बेच देने से कुछ पैसे भी हो जाते। तब वह कहती कि पैसे ही सब कुछ इस दुनिया में नहीं है और दस-पांँच आम-अमरुद बेच देने से दोलत जमा होने से रहा, अगर मेरे बाग के आम-अमरुद खाने से किसी को संतुष्टि मिलती है तो इससे बड़ा पुण्य का काम और क्या हो सकता है। वह भगवान की सेवा में दिन-रात लगे रहते हैं और हम किसी भी रूप में थोड़ी आपकी सेवा कर दें तो ईश्वर की कृपा मुझ पर भी तो होगी।
उसकी दलील उसके दिल को छू जाती और उसके मुंँह पर ताला लग जाता।
इस तरह की बात-चीत दोनों के बीच होने लगी।
वैसे चंदा फूल सिर्फ मंदिर में ही नहीं बल्कि उस कस्बेनुमा गांव के कई दुकानों, व्यावसायिक प्रतिष्ठानों और उस कस्बे के गणमान्य लोगों के घरों पर भी देने जाती थी। इस क्रम में उसे अनेक तरह के लोगों से वास्ता पड़ता था। फूल वितरण करना पेशा था उसके बापू का जो चंदा के सहयोग से ही चल रहा था। इसके अलावा बाग के कुछ मौसमी फलों को बेचने से भी कुछ आय हो जाती थी।
भुवनेश्वर के गौर वर्ण, सुगठित देह, करीने से कटी हुई मूंछें, बगुले के पांख सदृश पहनी हुई सफेद धोती, देह पर धवल जनेऊ, उन्नत ललाट पर लाल चंदन का टीका को देखकर भक्तगण मंत्र मुग्ध होकर उसकी ओर खिचे चले आते थे। इसी वेशभूषा में वे जब भगवान की आरती घंटी बजाते हुए करते तो लोग मानो जादुई शक्ति से उसकी ओर खिचे चले आते थे। तब ऐसा महसूस होता मानों उसके शरीर से पुरुषार्थ फूट रहा हो।
भुवनेश जितना सुन्दर था, उतनी ही उसकी बोली से भी मध चूता था। इसके साथ ही वह वाक-पटु भी था। कुछ मिनटों तक वह किसी से बातें कर ले तो वह उसकी ओर आकर्षित हुए बिना नहीं रहता था।
चंदा की भी कुछ इसी तरह की विशेष छवि थी। उसका रूप-रंग भी आकर्षक था। बिना स्नो-पाउडर और आधुनिक सौंदर्य प्रशाधन के इस्तेमाल किये बिना उसके चेहरे में ऐसी प्राकृतिक चमक थी जो दूसरों को आकर्षित करने में सक्षम थी।
इधर चंदा दो-तीन दिनों से मंदिर में फूल देने नहीं आ रही थी। भुवनेश ऊहापोह की स्थिति में था। पूजा करने में फूलों की कमी को पूरा करने के लिए उसने मंदिर में आने वाले भक्तों से अनुरोध किया फूलों की व्यवस्था करने के लिए, तब पूजा संपन्न होती।
चंदा के दो-तीन दिनों से नहीं आने के कारण भुवनेश बेचैन रहने लगा। खोया-खोया सा वह रहने लगा।
विवश होकर वह उसके घर चला गया। उसने देखा कि उसका बापू खाट पर पड़ा कराह रहा था। उसके पैर में पट्टी बंधी थीऔर चंदा उसकी सेवा में लगी हुई थी। पूछने पर पता चला कि उसके बांये पैर की हड्डी टूट गई थी आम तोड़ने के क्रम में वृक्ष पर से गिर जाने के कारण। अगल-बगल के लोगों नेउसके बापू का प्राथमिक उपचार करके छोड़ दिया था भगवान भरोसे। पैसे की घोर किल्लत थी।
चंदा ने रो-रोकर अपने बापू के साथ घटी घटना की दुख-दर्द भरी कहानी सुनाई। उसकी कहानी सुनकर पुजारी भी व्यथित हो गया। उसने हर संभव सहायता करने का वादा किया।
उसने उसके बापू को भी सहानुभूति से लबरेज संवादों के द्वारा सांत्वना दिया। उसको हौस्पीटल में भर्ती करवाया। जहाँ उसके टूटे हुए पैर का प्लास्टर हुआ। उसका इलाज सुचारू रूप से शुरू हो गया। उस छोटे से कुनबे के संपर्क में भुवनेश तब तक रहा जब तक कि उसके बापू का पैर ठीक नहीं हो गया
पुजारी के आर्थिक और शारीरिक सहयोग की बदौलत वह पुनः चलने-फिरने लगा।
चंदा पुनः प्रति दिन मंदिर में पूजा के फूल पहुंँचाने
लगी।
भुवनेश सुबह में दैनिक क्रिया-कर्म से निवृत होने के उपरांत स्नानादि करके चंदा द्वारा फूल लाने की प्रत्याशा में बैठा रहता । उसके आते ही उसके अंतस्तल में स्थित पुष्प भी खिल उठते। उसके चेहरे पर हर्ष की लकीरें उभर आती। तेजी से चंदा के पास जाता फूल के बहाने। दिन शुरू होते ही उसका दीदार करना, उसकी दिनचर्या का जरूरी हिस्सा बन गया था।
चंदा भी भुवनेश के आकर्षण को नजरअंदाज नहीं कर पाती थी। पुजारी उसके घर के सुख-दुःख में बेहिचक भाग लेता था।
आपसी संवाद खुलकर नहीं होने के बाद भी दोनों एक-दूसरे की आंखों की भाषा समझ रहे थे।
पुजारी की शिष्टता से परिपूर्ण आचरण चंदा को प्रभावित कर रहा था। उसने कभी भी और कहीं भी उसके साथ ओछी या निंदनीय हरकत नहीं की, चाहे मंदिर का कैम्पस हो, हौस्पीटल हो या उसका अपना ही घर क्यों न हो। वह असमंजस की स्थिति में थी। उसे ऐसा लग रहा था मानो उसके दिल पर कोई बोझ हो।
उस दिन सुबह में फूलों से भरी डलिया मंदिर में रखकर जाने लगी तो उसने उसको रुकने के लिए कहा।
वहां पहुंचने पर उसने अगल-बगल देखकर कहा,
” चंदा!… तुम्हारे बिना मुझे जीना मुश्किल सा लगता है… कैसे बताऊंँ कि तुम मेरे लिए क्या हो?… ईश्वर ने शायद तुमको मेरे लिए ही बनाया है…”
“नहीं पुजारी जी!… मैं आपके काबिल नहीं हूंँ” उसने गंभीर स्वर में कहा।
“ऐसा नहीं है चंदा!… प्यार अमीर-गरीब, जाति-पाति, ऊँच-नीच कुछ नहीं देखता है… सच्चे प्यार में ईश्वर का वास होता है, प्रेम ही पूजा है… “
” सब सही है लेकिन मैं सही नहीं हूँ, मैं पवित्र नहीं हूँ… मैं बासी फूल हूँ, कुछ वर्ष पहले एक दबंग ने जबरन मेरे साथ अपना मुंह काला किया” कहते-कहते वह वहां से तेज गति से चली गई थी।
वह यह कहकर रुकने के लिए कहता रह गया कि इसमें उसका कोई दोष नहीं है कि आत्मा और भावना पवित्र होना चाहिए कि तुम पवित्र हो…”
वह रुकी नहीं।
भुवनेश गंभीर होकर उसको देखता रह गया। उसके चेहरे पर भावों का उतार-चढ़ाव स्पष्ट रूप से झलक रहा था।
दो दिनों के बाद ही जब चंदा का बापू पड़ोसी शहर में कुछ घरेलु काम से गया हुआ था तो वह उसके बाग में मिला। हाल-समाचार पूछने की औपचारिकता निभाने के बाद उसने चंदा के सामने जीवन-साथी बनाने का प्रस्ताव रखा।
प्रारंभ में वह इनकार करती रही यह कहते हुए कि पारम्परिक विचारों को मानने वाले उसके माता-पिता स्वीकृति देंगे हम दोनों के रिश्ते को… खामखा वह बखेड़ा खड़ा कर रहा है, वैसे भी तहलका मचा जाएगा गांव में… “
” तहलका मच जाए, चाहे तूफान आ जाए, चाहे जमाना बागी हो जाए, मैंने द्दढ़ निश्चय कर लिया है कि मैं जब शादी करूंँगा तो तुम से ही, इसके लिए मुझे जो मुसीबतें झेलनी पड़े, बिरोधों का मुकाबला करना पड़े, सब के लिए वह तैयार है बशर्ते कि तुम मेरा साथ नहीं छोड़ना, समाज को हम समझ लेंगे… “
” कैसे हम दोनों शादी करेंगे?… तुम्हारे माता-पिता अपनी सहमति देंगे तब न… “
” वे सहमति दे या न दें… कोई फर्क नहीं पड़ता है।… हम दोनों बालिग है… हम दोनों की शादी में किसी को भी रुकावट डालने का कोई हक नहीं है। “
इसके बाद चंदा मुस्कुरा उठी। उसके इन्कार में भी सकारात्मक भाव साफ झलक रहा था। उसका चेहरा लज्जा से लाल हो गया।
जब चंदा ने कहा कि एक फूलवाली के साथ शादी करने पर समाज उसको मंदिर में पुजारी के पद पर स्वीकार करेगा।
तब उसने बेबाकी से कहा,” समाज में समझदार लोगों की कमी नहीं है… हम कोई पाप नहीं कर रहे हैं, कोई अत्याचार नहीं कर रहे हैं, दरिंदगी से युक्त किसी कारनामें को अंजाम नहीं दे रहै हैं, हम तो स्वेच्छा से दो प्राणी साथ-साथ इस जीवन रूपी भवसागर को पार करने की शपथ ले रहे हैं… तुमसे विवाह करने पर अगर किसी को पुजारी पद पर रहने में आपत्ति होगी तो मैं पद का सहर्ष त्याग कर दूंगा। ”
वातावरण में सन्नाटा छा गया, उसको भंग करते हुए उसने कहा,” ईश्वर द्वारा इस सृष्टि में बनाए गए प्राणियों, जीवों व सकल संरचनाओं से प्रेम करना भी तो ईश्वर की अराधना है और ऐसे पवित्र कार्यों को संपन्न करना प्रेम-पुजारी का ही काम है। मैं कोई गलत काम नहीं कर रहा हूँ, मैं भी प्रेम कर रहा हूँ।”
दो-चार दिनों के बाद ही लोगों ने देखा कि प्रभात की बेला में जब सूर्योदय हो रहा था भुवनेश और चंदा ने सादगी के साथ मंदिर में भगवान के सामने एक-दूसरे को सुगंधित फूलों की माला पहनाई। मंदिर की घंटियाँ बजने लगी। शंखनाद होने लगा।
इसी समय भुवनेश ने चंदा की मांग में सिंदूर भर दिया।
भक्तों, गांव के बड़े-बूढ़ों और महिलाओं का झुंड देखता रहा किन्तु किसी ने बिरोध नहीं किया।
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# छठवीं बेटियाँ जन्मदिवस प्रतियोगिता
दूसरी कहानी
स्वरचित, मौलिक एवं अप्रकाशित
©® मुकुन्द लाल
हजारीबाग(झारखंड)