डैप्युटी कमिश्नर ऑफ पुलिस मिष्टर सत्यकाम दुबे घर के दरवाजे पर दस्तक देने ही वाले थे कि उन्हे भीतर से किसी पुरुष के फुसफुसाने के स्वर सुनाई दिये। उनका पुलिसिया दिमाग तुरंत सचेत हो गया और उन्होने कोट की जेब में पड़ी पिष्टल हाथ में ले ली। दरवाजे को ज़ोर का धक्का दिया तो सरकारी आवास की दुर्बल सिटकनी टूटकर भड़ाक से दरवाजा खुल गया।
अचानक एक बदहवास सा यूवक उनके बैडरूम से निकला। सामने वर्दीधारी पुलिस अधिकारी के हाथ में पिष्टल देखकर भय से उसकी आँखें फ़ैल गईं और वो वहीं स्थिर हो गया। कुछ ही पल में भीतर से साड़ी संवारती हुई उनकी पत्नी अनया भी बाहर निकली। शहर से बाहर गए पति को अप्रत्याशित रूप से सामने देखकर उसका चेहरा फ़क सफेद पड़ गया था।
कई पल मिष्टर दुबे बारी बारी से दोनों का चेहरा देखते रहे। उन्हे ऐसा लगा कि दिमाग में दो संकाय आपस में दो नक्षत्रों की तरह टकरा गए हैं भीतर बहुत कुछ टूट फूट गया है। एक मजबूत प्रस्तर शिल्प भरभराकर रेत के घरौंदे की तरह बिखर गया है और उसके तीक्ष्ण तंतुओं की चुभन से मस्तिष्क की शिराओं में रक्तस्त्राव हो रहा है। कानों में शून्य की सीटी सी बज रही थी। जैसे… मधुर सम्बन्धों का रस घटक टूटकर उसकी किर्चियाँ हृदय को लहूलुहान किए डाल रही थीं। उन्होने एक लंबी सांस ली और स्वयं को सहज प्रदर्शित कर पिष्टल वाला हाथ नीचे करते हुए बोले “एक फिल्म याद आ गई। आ…. क्या नाम था उसका। हाँ ‘अचानक’। विनोद खन्ना एक फौजी था। उसने अपनी पत्नी और उसके प्रेमी को इसी अवस्था में देखा तो उसने दोनों को शूट कर दिया था। हौलट फौजी। हा हा हा। भला किसी की इच्छाओं को तुम कैसे कुचल सकते हो। किसी को जबर्दस्ती स्वयं से प्रेम करने को मजबूर किया जा सकता है क्या।” उनके अंतिम शब्दों में गहन वेदना झलक रही थी। कहते कहते वे सोफ़े पर बैठ गए।
फिर हाथ में थमी पिष्टल सेंटर टेबल पर रखते हुए भय से काँप रहे यूवक से मुखातिब होते हुए बोले “तुम… तुम शायद अब जाना चाहोगे। आ… जा सकते हो।”
यूवक ऐसे भागा जैसे पिंजरे से छूटकर चूंहा भागता है। दुबे साहब ने सोफ़े से कमर टिकाकर आँखें मूँद लीं। पत्नी अभी तक वैसे ही स्तब्ध खड़ी थी। कुछ देर बाद पत्नी का स्वर फूटा। “मुझे माफ कर दो सत्या। दरअसल…।”
वाराणसी निवासी सत्यकाम बचपन से ही अंतर्मुखी स्वाभाव के थे और सामान्य छात्रों से अलग भी थे। किशोरावस्था में सत्यकाम घंटों दर्शन और अध्यात्म की पुस्तक पढ़ते रहते। कभी किसी मंदिर के पुजारी से तर्क वितर्क में उलझ जाते तो कई बार अनपढ़ पोंगा पंडित उन्हे धर्म विरोधी बताकर मंदिर से बाहर धक्का भी दे दिया करते। किन्तु गुरुकुल के आचार्य और आर्यसमाज के विद्वान, सत्यकाम की अनोखी जिज्ञासा और तर्कों से प्रभावित हुए बिना भी नहीं रह पाते थे। उनका मानना था कि स्वामी विवेकानंद, ईशवर चंद विद्यासागर और राजा राम मौहन राय जैसे लोगों ने सनातन धर्म में पर्याप्त सुधार करने का प्रयास किया किन्तु अभी बहुत शोधन की आवश्यकता शेष है। हिन्दू धर्म की सुधारों के प्रति सहज स्वीकार्यता के चलते ये असंभव भी नहीं है।
सत्यकाम दुबे कभी पुलिस की नौकरी नहीं करना चाहते थे। छात्र जीवन से ही उनकी इच्छा दर्शन शस्त्र और मनोविज्ञान का प्रोफेसर बनने की थी किन्तु इकलौते बेटे के लक्षण देखकर पिता को लगा कि कहीं बेटा सन्यासी ही न बन जाये और मेरी वंशबेल यहीं रुक जाए। इस भय से पिता ने उन्हे आगे की शिक्षा के लिए वाराणसी के धार्मिक वातावरण से दूर उनकी बुआ के पास इंदौर भेज दिया। वहाँ अपने फुफेरे भाई बहनों के साथ प्रतियोगिताओं की दौड़ ने पहले प्रयास में ही सत्यकाम को भारतीय पुलिस सेवा का अधिकारी बना दिया था। इसके उपरांत भी धर्म और दर्शन के प्रति उनका आकर्षण समाप्त नहीं हुआ। आज भी उनकी स्टडी दुनिया भर के विद्वानों की किताबों से भरी रहती और अपने कार्यक्षेत्र के विपरीत वे किताबों का गहन अध्ययन करते रहते।
जाहिर है कि लड़का आईपीएस हो तो दुनिया भर के शानदार रिश्तों की लाइन लग जाती है किन्तु सत्यकाम ने इस क्षेत्र में पिता श्री के समक्ष एक प्रकार से समर्पण कर रखा था और दुनियादार पिताजी के मापदंड दार्शनिक पुत्र से अलग होना स्वाभाविक ही था। सो दिल्ली के आधुनिक वातावरण में जिंदगी की अलग फिलौसौफ़ी लिए पली बढ़ी अनया देशपांडे एक रुआब और ग्लेमर से भरी नौकरी वाले पति के सपने देखते हुए उनके जीवन में अवतरित हो गईं।
“खड़ी क्यूँ हो अनया। बैठ जाओ।” उन्होने सहज भाव से कहा।
“इतना सब देखने के बाद भी तुम… सत्यकाम। नफरत करो मुझ से। गालियां दो मुझे। धक्के मारकर घर से बाहर भी निकाल सकते हो।”
“नहीं। वैसा नहीं है जैसा तुम सोच रही हो। हिंसा और क्रोध इसका समाधान नहीं हो सकता। हालांकि इस पल मैं भी सहज स्थिति में नहीं हूँ। मेरे भीतर भी एक सामान्य पुरुष बसता है न अनया और ऐसे हालात में कोई पुरुष स्थिर मस्तिष्क नहीं रह सकता। दिमाग में जैसे कई ज्वालामुखी एक साथ फट पड़े हैं और उनका धधकता मलवा चारों तरफ फ़ैल गया है। इस समय मेरे भीतर भी एक भारी अंतर्द्वंध चलना स्वाभाविक ही है। मगर… मेरा अंतरमन इस दुरूह स्थिति से सहज बाहर निकलने का कोई ऐसा रास्ता तलाश कर रहा है जिस से तुम्हें भी कोई नुकसान न हो और मैं भी…।”
“मुझे क्षमा कर दो सत्या। मैं तुम्हारी अपराधी हूँ।” अनया ने बेहद मासूमियत से कहा। उसका चेहरा देखकर ऐसा आभास हो रहा था जैसे क्षणिक दैहिक सुख के लिए चारित्रिक मानकों से फिसल जाने का और सत्यकाम जैसे व्यक्ति से बेवफाई करने का अब उसे भारी पश्चाताप हो रहा है।
“अपराध… हाँ कथित तौर पर उन्नत होती सभ्यताओं ने तो इसे अपराध ही घोषित किया है। भारतीय दंड संहिता में… किन्तु अनया, क्या इस सब के लिए तुम अकेली दोषी हो। कहीं न कहीं ये मेरी भी तो ये असफलता है ना। हम एक दूसरे के पूरक नहीं बन पाये। मैं अपनी ही धुन में तुम्हारी सहज प्राकृतिक वृति (स्टिंक्ट) को समझ नहीं पाया। तुम्हारे जीवन की प्रार्थमिकताएं…।”
“ऐसा मत कहो सत्या। मैं ही तुम्हारी वैचारिक ऊंचाइयों को छू नहीं पायी। मुझे… मुझे एक सामान्य इंसान की दरकार थी शायद। एक अतिमानव की नहीं।” अनया बीच में ही बोल पड़ी।
“नहीं मगर… हालांकि एक दूसरी दृष्टि से ये बेहद चिंतनीय है। एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी के घर में बल्कि बैडरूम तक किसी अजनबी का पहुंचाना कितना खतरनाक हो सकता है इसकी चिंता तुम्हें करनी चाहिए थी। खैर… बड़ी सुस्ती सी हो रही है। जरा एक कप चाय ही पिला दो अनया जी।”
ऐसी भयानक सिचुएशन को भी सहज होता देखकर अनया तेजी से रसोई में चाय बनाने चली गई। लौटी तो उसकी आँखें लाल थीं। लगता है रसोई में जाकर खुलकर रोयी है। न जाने उनके मन में अपराध की ग्लानि थी, घर बिखरने की चिंता या पकड़े जाने का पश्चाताप।
“क्या हम दोबारा एक सामान्य जिंदगी नहीं गुजार सकते सत्यकाम।” उसने चाय का कप रखते हुए कहा।
“असंभव भी नहीं था, यदि मैं सभी नैसर्गिक मानवेतर दुर्गुणों और पूर्वाग्रहों से स्वयं को दूर कर पता तो।” उन्होने चाय का एक घूंट भरते हुए कहा।
“किन्तु फिर ऐसा व्यक्ति सांसारिक जीवन नहीं बिता सकता। जो एक बार सत्य की तह तक पहुँच गया वो तो सन्यासी ही हो जाएगा न। तो… जीवन के उतार चढ़ाव के चलते मैं आध्यात्म के उस सिरे को छू भी नहीं पाया जहां निर्विकार हो पाऊँ।” कहते हुए वे गंभीर हो गए। कई पल मौन रहे। फिर बोले “सुनो, वो जो लखनऊ में हम ने फ्लैट खरीदा था न। वो तो तुम्हारे ही नाम है ना। उसे तुम ले लो। और…।” उन्होने फिर कुछ सोचते हुए एक लंबा सिप लिया।
“सुनो सत्या, तुम अपने मन में तनिक भी आत्मग्लानि या अपराधबोध मत रखना कि तुम जिस लड़की को अपनी जीवन संगिनी बनाकर लाये थे उसे मेरे कारण या… मेरे किसी कठोर निर्णय के कारण परित्यक्ता होना पड़ा। दरअसल मैंने जिस वैवाहिक जीवन की कल्पना की थी या जिस परिवेश में मैं पलकर बड़ी हुई तुम उस से बिलकुल अलग थे। मेरी जीवन साथी की कल्पना के विपरीत। मेरी वैवाहिक जीवन की कल्पनाओं में था महंगी शौपिंग, पार्टियां, घुमक्कड़ी, क्लब, फैशन, सैक्स, धन वैभव का प्रदर्शन और अभिमान से इतराती हुई जिंदगी। और तुम … तुम इस अल्प आयू में ही दर्शन और अध्यात्म की गहराइयों में जीवन का सत्य तलाश कर रहे थे। तुम ने भी तो…।” उसने एक हिचकी ली और चुप हो गई। फिर दोनों हाथ आँखों पर रखकर सोफ़े पर बैठ गई। कुछ पल के बाद दोबारा बोलने लगी। “तुम ने भी तो अपने अनुकूल जीवन साथी तलाश करने का प्रयास नहीं किया। क्या इस सब के लिए मैं अकेली दोषी हूँ सत्या।”
“मैं तुम्हें दोष कहाँ दे रहा हूँ अनया। किन्तु भले ही मैं अपनी भावनाओं को प्रगट नहीं कर पाया पर… मेरे जीवन का प्रथम प्रेम तो तुम ही थीं। कहीं न कहीं तुम्हारी अपेक्षाओं पर खरा न उतर पाने की आत्मग्लानि तो मुझे जीवन भर कचोटती रहेगी।”
फिर कुछ देर मौन रहकर बोले “तीस हजार या पैंतीस हजार रुपये महीने पर्याप्त होंगे तुम्हारे लिए? जब तक कि तुम ठीक से सैटल नहीं हो जातीं।” उन्होने दोबारा कहा।
“तुम कैसी बातें कर रहे हो सत्या। मुझे कुछ नहीं चाहिए। अब… बस। ज़िदगी के इस मोड के बाद… शायद एक नई दिशा तय करनी होगी।” सुलभा ने रुग्ण से स्वर में कहा।
“सारे रास्ते खुले हुए हैं तुम्हारे लिए जिंदगी के। जैसे मर्जी आए जियो,किन्तु… क्षमा चाहता हूँ। जैसा कि मैंने पहले भी कहा, सारी इंसानी कमजोरियों से भरा हुआ एक आम इंसान हूँ। उस बिस्तर पर अब मैं सो नहीं सकता जिस पर कोई दूसरा पुरुष तुम्हारे साथ… उफ़्फ़। अब इस विषय को यहीं बंद करते हैं जो हम दोनों को चाकू की नौक की तरह कुरेद रहा है। कल या आराम से परसों तक तुम अपनी नई जिंदगी शुरू कर सकती हो। किन्तु तुम्हारे दोबारा सैटल होने के लिए कुछ फंड की व्यवस्था करना भी मेरा कर्तव्य है। वो मैं करूंगा।”
“मुझे ये सब नहीं चाहिए सत्यकाम। अपराध मैंने किया है। तुम मेरे पापा को फोन करो और उन्हे मेरी करतूत बताते हुए कह दो कि मैंने तुम्हारी बेटी को छोड़ दिया है। मैं नहीं चाहती कि समाज इस विलगाव के लिए तुम्हें दोष दे।” अनया ने एक हिचकी ली।
“अरे… तुम कोई मेरी दुशमन हो गई हो जो तुम्हारी आगामी जिंदगी में भी कांटे बो दूँ। सुनो अनया जी। किसी को कुछ बताने की आवश्यकता नहीं है। और वैसे भी जो कुछ कथित अपराध या गलती तुम ने की है ऐसी गलतियाँ तो पुरुष वर्ग के आधे से अधिक लोग रोज करते हैं इस के उपरांत भी शान से गर्दन उठाकर अपनी पत्नी के साथ जिंदगी गुजारते हैं। मैंने तो ऐसे केस भी देखे हैं जहां स्त्री को अपने पति के अवैध सम्बन्धों का पता होता है किन्तु वे परिवार बचाने के लिए जहर का घूंट पीकर ग्रहस्थ जीवन जीती रहती हैं। ये तो कुछ भी नहीं अनया जी। मैंने तो अपनी पुलिस लाइफ में ऐसी औरतें भी देखी हैं जो अपने पति के दूसरी औरत से संबंध बनवाने को पति की सहायता करती हैं। किन्तु… किन्तु एक पुरुष नारी जितना सहनशील और महान नहीं हो सकता। सुनो अनया। मेरे द्वारा जीवन में तुम्हारा कोई अहित नहीं होगा। जब तक तुम चाहो मेरे नाम का स्तेमाल कर सकती हो। जब चाहो अलग होने के किसी भी दस्तावेज़ पर दस्तखत करवा सकती हो। जब तक तुम्हारी नैतिकता तुम्हें अनुमति दे इस घर में भी रह सकती हो।
अनया जी, हमारे समाज में नारी का सम्मान कच्चे धागे सा संवेदनशील और कमजोर होता है। तुम चाहो तो हमारे अलगाव का दोष मुझे देकर सम्मान के साथ नई जिंदगी शुरू कर सकती हो किन्तु गलती से भी आज की घटना का कहीं जिक्र मत करना अन्यथा तुम्हारे जीवन के रास्ते में इतने कांटे उग आएंगे कि… किन्तु क्षमा चाहता हूँ, मैं इस देह को दोबारा हाथ नहीं लगा पाऊँगा। मैं इसी पल तुम्हें मेरी पत्नी होने के अधिकार से मुक्त करता हूँ।” फिर वे मौन हो गए।
एक पल बाद ओबरा बोले “और सुनो यार, वो जब मैंने सिगरेट पीना छोड़ा था न तो उस डिब्बी में तीन सिगरेट बची हुई थीं। जरा देखना। मेरी किताबों के पीछे।”
“इस घर में रहना तो दूर की बात है सत्या, इस घटना के बाद मैं तुम से आँख मिलाने का भी ताव नहीं ला सकती। और सुनो। तुम ने मेरे कहने पर सिगरेट छोड़ी थी स्त्यकाम। बस जाने से पहले तुम से यही मांगती हूँ कि अपराधिनी मैं हूँ। मेरे गुनाहों की सजा मुझे मिलनी चाहिए। तुम्हें नहीं। बस बिखरना मत। कोई व्यसन मत पालना। पूरी करोगे न मेरे अंतिम इच्छा।” उसने सजल आँखों से सत्यकाम की ओर देखते हुए कहा। फिर आगे बढ़कर दोनों बाहों में लेकर सत्यकाम का माथा चूम लिया। टेबल पर पड़ी गाड़ी की चाबी उठाई और आँसू पौंछते हुए बाहर निकल गई।
रवीन्द्र कान्त त्यागी