नीरजा की कॉलोनी में मां काली और दुर्गा मां का एक पुराना मंदिर, शनिदेव महाराज का एक मंदिर और ठाकुर बाबा की मढ़िया है।मंगल वार और शनिवार को मंदिरों में काफी भीड़ रहती थी।हर शनिवार सुबह-सुबह दीन -दुखी शनि महाराज के मंदिर के बाहर कतार बनकर बैठे दिखते।
ना जाने कितने श्रृद्धालु खाना,कपड़ा और पैसे आकर दे जाते थे इन्हें।बदले में ढेर सारी दुआएं लेकर जाते।शाम होते-होते मंदिर के बाहर डिस्पोजल प्लेट,कटोरियां ,ग्लास और पॉलीथिन का अंबार लग जाता था।रविवार सुबह एक भी कचड़ा नहीं होता था वहां।नीरजा अक्सर सोचती,कौन यहां साफ करता है,बिना नागा।
इस शनिवार अकस्मात घर के पीछे ठाकुर बाबा जी की मढ़िया के पास एक जाना-पहचाना स्कूटर दिखाई दिया। उत्सुकता वश दरवाजे पर ही रुक गई नीरजा।उसका अंदाजा बिल्कुल सही था।स्कूटर अशोक की ही थी।अशोक उसी के विद्यालय में साफ-सफाई का काम करता था।नीरजा ने उसके हांथों में सफाईकर्मी वाली झाड़ू देखकर आश्चर्य से पूछा”अशोक,तुम इतनी रात को यहां झाड़ू क्यों लगा रहे हो?”
“अरे !मैडम जी,मैं रोज़ रात को आता हूं यहां।सुबह -सुबह लोग पूजा करने आते हैं ना।मैं रात को सफाई कर देता हूं।कई वर्षों से यह करता हूं मैं।आपने आज देख लिया।”उसने सामान्य होकर उत्तर दिया।
नीरजा ने फिर पूछा”वो शनि महाराज वाले मंदिर में भी क्या तुम ही?”वह बात बीच में ही काट कर बोला”रहने दीजिए ना मैडम जी।समाज में रहकर हम अलग से कुछ नहीं कर पाते।पैसा कमाने और रोटी का जुगाड़ करने में ही ज़िंदगी बीत जाती है।हम जैसे मामूली लोग कहां किसी के काम आते हैं?अपने मन की शांति के लिए ही ऐसा करता हूं मैं।आप भी तो विद्यालय में बच्चों को पढ़ाकर अपना दायित्व निभाती हैं।मैं भी मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं के प्रति अपना दायित्व समझकर सफाई कर देता हूं।आप किसी से कहिएगा मत।”
नीरजा उसके निःस्वार्थ दायित्व की कायल हो गई।जिज्ञासावश उसने पूछ ही लिया”किसी को क्यों बताऊंगी, अशोक?तुम्हें शर्मिंदगी महसूस क्यों करवाऊंगी मैं?”
अप्रत्याशित रूप से उसने हंसकर कहा”नहीं-नहीं मैडम जी,इसमें शर्मिंदा होने की क्या बात है?मैं तो इसलिए कह रहा था कि, लोग फिर चंदा करके मुझे तन्खवाह देने की बात करेंगे।मुझे पैसे नहीं चाहिए मैडम जी।”नीरजा ख़ुद को अशोक के सामने बौना महसूस कर रही थी।
ये कैसे मायाजाल में जी रहें हैं हम? निस्वार्थ सेवा और प्रेम से बड़ी और क्या भक्ति हो सकती है?मंदिर के बाहर बैठे दीन-दुखियों को अन्न-धन,वस्त्र दान कर हम अपने अहं को संतुष्ट करते हुए अक्सर यही सोचतें हैं कि,समाज में जरूरतमंद लोगों की सेवा कर हम अपना दायित्व निभा रहें हैं।
अपने दायित्व निर्वहन का ढिंढोरा पीटने में भी हम कहां पीछे रहतें हैं?दान देते हुए सैल्फी,मंदिर प्रांगढ़ में भगवान की मूर्ति के सम्मुख सैल्फी,दान सामग्री की फोटो विधिवत खींचना और पोस्ट करना नहीं भूलते हम।रंगोली डालना,दीप जलाना,जल चढ़ाना एक प्रतिष्ठित प्रतियोगिता हो गई है हमारे लिए।वहीं सफाई के प्रति सजग एक सामान्य सा कर्मचारी अपने व्यक्तिगत दायित्व का नहीं बल्कि सामाजिक दायित्व का निर्वहन बिना किसी लाग-लपेट के संपूर्ण निष्ठा से कर रहा है।
अशोक की इज्जत नीरजा के मन में बहुत बढ़ गई।एक -दो जान-पहचान वालों से जब इस बात का जिक्र किया तो वे निर्विकार रह कर बोले”आप तो सामान्य सी बात को इतना महिमा मंडित कर रहीं हैं।आजकल लोग ऐसा कर के महान बनने का अवसर खोजते हैं।पैसों की कोई कमी तो है नहीं, फ्री में क्या दिक्कत आएगी सफाई करने में।ये कोई दायित्व -वायित्व नहीं ढकोसले हैं।”
नीरजा के विचारों से वैसे भी बहुत कम लोग सहमत होते थे।किसी की प्रशंसा करने में कभी कोताही नहीं बरती थी उसने।यह बाकी लोगों के लिए ऊटपटांग आदत थी।
विद्यालय में पता चला कि अशोक की पत्नी जो कि कैंसर से पीड़ित थी, स्वर्ग सिधार गई। सहकर्मियों के साथ नीरजा भी गई थी उसके घर।दो बच्चों के साथ शांत बैठा था।आज फिर शनिवार की रात अचानक ही पीछे के द्वार में जाकर सोचने लगी नीरजा कि अब कुछ दिनों के लिए अशोक नहीं आ पाएगा।सच में वह नहीं आया था।
रविवार सुबह सैर में जाने की परंपरा का निर्वाह करने महिलाओं के दल के साथ मंदिर के पास चलते हुए वही स्कूटर दिखाई दिया।नीरजा ने चाल तेज कर दी ।इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता नीरजा अशोक को देखकर चिल्लाते हुए बोली”क्यों रे अशोक!आज एक दिन हुआ ,फिर भी तुम घर से बाहर निकल आए।अभी तेरह दिन तो मानना था ना।”
वह अपनी ही धुन में बोला “मैडम जी,वो भी मेरा दायित्व थी,यह भी मेरा दायित्व है।”नीरजा निरुत्तर होकर अपने दल की सदस्याओं की तरफ देखकर बोली”देखा ,असली दायित्व दिखावे से दूर होतें हैं।”
शुभ्रा बैनर्जी
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