दिव्या, जैसा नाम, देखने में वैसी ही दिव्य। बड़ी बड़ी आँखें, मुस्कुराता चेहरा, सुतवां नाक, दूध की तरह गोरी, गोल मटोल छोटी तीन साल की दिव्या..मनमोहिनी..जो भी देखता बस बच्ची को देखता रह जाता। माता– पिता, दादी की दुलारी..रोते को हँसा देने वाली..छोटी सी होते हुए भी और बच्चों की तरह जिद्द करना उसके स्वभाव में था ही नहीं। जो मिल गया, उसी में मन रमा लेती थी। होश सम्भालते ही घर के मन्दिर में सुबह सुबह जाकर देवी माँ को प्रणाम कर खिलखिलाना उसका नित्य का कार्य था। उसकी दादी हमेशा कहती पिछले जन्म की कोई दिव्यात्मा साध्वी हमारे घर आई है। दिव्या की माँ चन्द्रिका उसके इस स्वभाव से और सासु माँ की बातों से चिंतित हो जाती थी कि कहीं आगे चलकर साध्वी तो नहीं हो जाएगी।
दिव्या के पिता आनंदराय जो कि स्वयं एक चिकित्सक थे और ईश्वर के प्रति अगाध श्रद्धा रखते थे, अपनी पत्नी को धैर्य रखने कहते, जैसी प्रभु लीला होगी।
समय अपनी गति से बीत रहा था। दिव्या पाँच साल की होने को आई थी। उसका एडमिशन एक अच्छे विद्यालय में करा दिया गया। इतनी छोटी सी उम्र से ही उसका झुकाव शास्त्रीय संगीत और नृत्य की ओर था। शास्त्रीय संगीत की धुन कान में जाते ही खुद ब खुद नृत्य करने लगती। नृत्य की ओर उसका झुकाव देखते हुए आनंद ने उसे नृत्य की शिक्षा देने का विचार बनाया और शास्त्रीय नृत्य और संगीत का अच्छा सा विद्यालय देखकर नामांकन करा दिया, जहाँ उसे सप्ताह में दो दिन शनिवार और रविवार को क्लास लेने जाना होता था।
अब वो अपने विद्यालय के साथ संगीत विद्यालय भी जाने लगी। पढ़ने में भी बहुत ज़हीन थी, जो एक बार समझ लेती उसे भूलती नहीं थी। ना ही उसे समझाने की जरूरत पड़ती थी। इसी तरह संगीत के गुरु जी जो लय ताल उसे एक बार बता देते, दुबारा बताने की जरूरत नहीं होती थी। लगता था मानो ये सब उसके लिए नई चीज़ कतई नहीं है। अपनी उम्र के बच्चों से बिल्कुल अलग ही थी
लेकिन उसमें एक परिवर्तन दृष्टिगोचर होने लगा, जिसने राय परिवार के माथे पर शिकन ला दिया था। दिव्या सोते में चीखने लगती थी। कभी कभी अचानक खेलते खेलते या बैठे बैठे चीखने लगती थी। उसके व्यवहार से लगता कहीं भाग जाना चाहती हो। रोती रोती ही माँ की गोद में सो जाती। किसी को कुछ समझ नहीं आ रहा था। जैसे जैसे समय बीत रहा था, दिव्या की समस्या में भी इजाफा हो रहा था। हाँ.. अब ये जरूर होने लगा था कि आनंद के घर के बगल में देवी माँ का जो मंदिर था, दिव्या रोती रोती वहाँ चली जाती। जाकर माँ के सामने ध्यान की मुद्रा में बैठ जाती। थोड़ी देर में ही उसके चेहरे पर मुस्कान खेलने लगती।उसके चेहरे के भाव उस समय ऐसे बदल रहे होते जैसे किसी से गिला शिकवा कर रही हो और कोई उसे समझा रहा हो। दिव्या के चेहरे पर संतुष्टि आ जाती थी। फिर धीरे धीरे ध्यान से निकल कर घर आकर अपनी माँ की गोद में सिर रखकर सो जाती। अभी दिव्या की उमर महज सात साल की ही तो हुई थी।
समय अपनी गति से बीत रहा था, अब दिव्या दस साल की हो गई थी और नृत्यांगना दिव्या कहलाने लगी थी। राज्य का नृत्य से संबंधित हर अवार्ड उसने जीता था। उसकी तो नृत्य में जान बसती थी। पढ़ाई में ज़हीन होने के कारण सोने पे सुहागा वाली बात थी। माता पिता की आज्ञाकारी… दादी की लाडली दिव्या।
समय के साथ साथ दिव्या सोलह साल की हो गई थी। अब कुछ कुछ सामान्य होने लगी थी। लेकिन हालात तनाव वाले ही थे। एक दिन स्कूल के लिए तैयार होते ही… दिव्या चीखने लगी.. माँ मुझे ये सब नहीं करना.. मैं नहीं जाऊँगी… छोड़ दो मुझे.. चंद्रिका दौड़ कर आई.. रोती दिव्या, चंद्रिका के गले लगकर ही बेहोश हो गई। दिव्या की चीख सुनकर दिव्या की दादी और पापा भागते हुए आए… नजारा देखकर अवाक रह गए थे।
आनंद दिव्या को गोद में लेकर बिछावन पर सुला देते हैं।
“क्या हो जाता है मेरी बेटी को? इतनी देर में ही कैसी दिखने लगती है?” चंद्रिका रोती हुई अपने पति आनंद से कहती है।
“आनंद मुझे तो ये पूर्वजन्म का कुछ साया लगता है।” दिव्या की दादी बेटे से कहती हैं।
“कुछ समझ नहीं आता है माँ। डॉक्टर होकर भी मुझसे ये पहेली सुलझ नहीं रही है।” आनंदराय कहते हैं।
आनंद डॉक्टर होने के नाते ये तो समझ रहे थे कि दिव्या की समस्या कहीं ना कहीं मानसिक है, लेकिन क्या?
चंद्रिका उसी तरह रोती हुई सोई दिव्या की ओर देखकर कहती हैं, “कुछ तो उपाय होगा। पूजा पाठ कुछ तो होगा।”
“हमारे बड़े बुजुर्ग कहते थे कि पूर्वजन्म की चीजें बच्चों को कुछ समय तक याद रहती है, फिर भूल जाते हैं। अगर ऐसा कुछ है तो दिव्या भी भूल जाएगी। तुम चिंता मत करो बहू।” दिव्या की दादी चंद्रिका से कहती हैं।
“लेकिन माँ अब तो दिव्या इतनी बड़ी हो गई है कि पूर्वजन्म से संबंधित कोई बात है तो उसे भूल जाना चाहिए था।” चंद्रिका अपनी सासू माॅं से कहती है।
“सब ठीक हो जाएगा बहू।” चंद्रिका को सांत्वना देकर आँसू पोछती हुई दिव्या की दादी अपने कमरे में चली गई।
उस समय चंद्रिका ने कुछ नहीं कहा। माँ का दिल था, जब जब लगता कि अब दिव्या सामान्य हो रही है, बस किसी दिन फिर से वही सब प्रारंभ हो जाता था।
“कुछ कीजिए…दिव्या का जीवन ऐसे कैसे चलेगा।” एक दिन चंद्रिका अपने पति से कहती हैं।
“फिर से मनोचिकित्सक से ही बात करता हूँ।” आनंद कहते हैं।
“इतने दिनों से देश के सारे मनोचिकित्सक को दिखा ही थे हैं आप। कोई फायदा तो नहीं हुआ।” चंद्रिका आनंद से कहती है।
“हूँ…..काम से विराम लेकर बाहर चलते हैं।” आनंद अपनी पत्नी चंद्रिका के सामने प्रस्ताव रखते हैं।
“हाँ… अब मुझसे मेरी बेटी की ऐसी हालत नहीं देखी जाती।” चंद्रिका अपने पति से कहती है।
कहाँ किन किन डॉक्टर से संपर्क किया जा सकता है, इस पर विचार चल ही रहा था कि संयोग से आनंद के मित्र देश विदेश के जाने माने मनोचिकित्सक राघव का फोन आ गया, जो पढ़ने के लिए अमेरिका गए थे और वही अपने साथ पढ़ने वाली भारतीय मूल की रिया के साथ शादी कर रच बस गए थे। प्रैक्टिस भी कर रहे थे। साथ ही अपने शोध पत्रों के कारण एक जाना पहचाना नाम भी थे। वो किसी शोध कार्य हेतु एक साल के लिए भारत आने वाले थे। रिया स्त्री रोग विशेषज्ञ थी और छुट्टी लेकर पति के साथ भारत आ रही थी।
आनंद और राघव बचपन के दोस्त रहे हैं। राघव के माता पिता के गुजरने के बाद राघव अमेरिका जाने से पहले घर की चाभी आनंद के सुपुर्द कर गए थे।
आनंद ने राघव को आश्वासन दिया कि उनके आने से पहले घर की सारी व्यवस्था करवा देंगे, जिससे वो और उनकी पत्नी आराम से रह सकें। आनंद ने उन्हें खुद के घर पर भी रहने के लिए आमंत्रित किया। राघव सालों बाद आ रहे थे तो खुद के घर ही जाना चाहते थे।
आनंद राघव से बात कर बहुत खुश होकर अपनी पत्नी को आवाज लगाते हैं जो कि डिनर के बाद रसोई साफ़ करवा रही थी।
“कुछ चाहिए था क्या?” चंद्रिका पति के पास आती हुई पूछती है।
“चंदु अब हमें दिव्या को लेकर कहीं जाने की जरूरत नहीं है। देवी माँ अपनी बच्ची के लिए स्वयं ही डाक्टर भेज रही हैं।” आनंद ने पत्नी से कहा।
“मैं कुछ समझी नहीं”….चंद्रिका सवालिया नजरों से देखती पति से पूछती है।
“दस पंद्रह दिन में राघव इंडिया आ रहा है और वो खुद के घर पर ही रहना चाहता है।” आनंद खुश होकर पत्नी से कहता है।
“सच… उनसे ज्यादा योग्य डॉक्टर कौन हो सकता है। देवी माँ मेरी बच्ची को ठीक कर दें। आपने उनलोगों से हमारे घर ही रहने क्यूँ नहीं कहा?” चंद्रिका पति से कहती है।
“कहा था.. दोनों अपने निवास पर ही रहना चाहते हैं। सही ही है, उस घर से राघव की कितनी सारी यादें भी तो जुड़ी हैं।” आनंद अतीत में खोते हुए कहते हैं।
“हाँ ये तो है, मैं माँ से बता कर आती हूँ, सुनकर खुश हो जाएंगी। आजकल दिव्या को लेकर बहुत चिंतित रहने लगी हैं।” चंद्रिका पति से कहकर चंद्रिका चली जाती है।
राघव और आनंद, दोनों ही छोटे से गाँव के हमसफर थे। उनकी दोस्ती का आरंभ बचपन में हुआ था, जब उन्हें एक साथ हर शरारत करने का शौक हुआ था। स्कूल के छुट्टियों में उनका आदर्श समय खेतों में छिपे रहने का था, जहाॅं वे दौड़ते और दूसरों के खेतों से छुपकर आलू और टमाटर चुराया करते थे।
एक दिन, उन्होंने जंगल में छिपे हुए खंडहर हो गए पुराने मकान का खुदाई का नाम किया और वहाॅं उन्होंने अपना खुद का ‘दोस्ती का कोना’ स्थापित किया। वे वहां रोज़ाना मिलते और अपने ख्यालात बांटते थे, जो उनकी बचपन की मिसाल बन गए।
फिर एक दिन राघव के पापा की शहर में अच्छी सी नौकरी लग गई और उन्होंने देखभाल कर आनंद के पापा को भी यही बुला लिया। लेकिन एक ही विद्यालय में संग होने के कारण दोनों का बचपन का सफर बदस्तूर जारी रहा। स्कूल बस से उतरते ही एक दूसरे का बैग ज़मीन पर फेंक देना और फिर भाग जाना प्रतिदिन का क्रम था। कहीं भी किसी भी समय शरारत का मौका ना छोड़ने का दृढ़ संकल्प रखते थे ये दोनों।आनंद.. अपने और राघव के बचपने को याद करता, ऑंखों के सामने उनका सजीव चित्रण करते हुए सो गए।
अगला भाग
दिव्या(भाग–2) : Moral stories in hindi
आरती झा आद्या
दिल्ली