मोह पाश से मुक्ति (भाग 1)- शुभ्रा बैनर्जी

मानसी ने कभी सोचा भी नहीं था, कि इतनी कमजोर पड़ जाएगी वह उसके सामने।कितनी दलीलें दे डाली उसने इस बेमेल रिश्ते के बारे में,पर वह तो कुछ सुनना ही नहीं चाहता था।अपनी ज़िद पर अड़ा रहा मानव।मानसी ने कितनी लड़ाई की,हर तरीके से समझाया,पर हार गई उसके प्रेम के आगे।एक पत्रिका में छपी कविता के साथ देखी थी उसने मानसी की फोटो।वह ख़ुद बेहतरीन लिखता था।एक दूसरे की तारीफ़ करते-करते एक दिन उसने अपने प्रेम की बात सहज रूप से कह दी।

मानसी ने बताया था उसे कि उम्र में काफी बड़ी है वह उससे।कुछ साल पहले ही विधवा हो चुकी थी।प्रेम उसके लिए पाप है,तब उसने कहा था ,प्रेम जीवन का सबसे बड़ा उपहार है।यह अनंत सृष्टि का सार है,हिसाब-किताब के परे है प्रेम।उसे कुछ नहीं चाहिए था अपने प्रेम के बदले।

   मानसी तर्कहीन हो जाती थी उसके सामने।इस स्वार्थी दुनिया में जहां साथ और पास रहकर लोग एक दूसरे को छल रहे हैं,वहां ऐसे निस्वार्थ प्रेम की कल्पना भी मुश्किल है।मानसी की सारी समझदारी हवा हो गई।मानव का उस पर अधिकार जमाना,बात-बात पर डांटना,सलाह लेना,अपनी सारी बातें बताना मानसी को अच्छा लगने लगा था।लड़ाकू भी बहुत था मानव,गुस्सा तो जैसे नाक पर ही रखा रहता था।मानसी का अपना स्वभाव अब बदल गया था।

मन में बरसों से दबा प्रेम का बीज अंकुरित होने लगा था,मानव के प्रेम की बारिश पाकर।मानसी को अपनी भरोसे की आदत ने बहुत आघात दिए थे,पर मानसी ने भरोसा करना कभी ना छोड़ा था।एक अनजान शख़्स से बिना मिले ही विश्वास के अटूट बंधन में बंध चुकी थी वह।मानव बेहद सपाट लहज़े में बता चुका था कि उसका भरा पूरा परिवार है,समाज की मानसिकता तो वह बदल नहीं सकता,उसे अपनाकर दो परिवारों में कलह लाने का साहस नहीं है उसके पास ,पर मन और वचन से वह हमेशा मानसी का ही होकर रहेगा।

मानसी के लिए यह प्रेम किसी मृगतृष्णा से कम नहीं था,पर इसकी कस्तूरी ने उसके जीवन को महका दिया था।मानव के निश्छल प्रेम ने उसके अशांत मन को शांत कर दिया था।जीवन के प्रति उसका नजरिया ही बदल चुका था।भाग्य से अब कोई विरोध शेष  नहीं रहा।

मन इस अनोखे बंधन में बंधकर मानो भवसागर पार कर रहा था।बैर,द्वेष,क्रोध,कामना, आकांक्षाएं मानो शून्य होने लगीं थीं।एक तृप्ति का आभास होता था उसे।सारी भटकन,तड़पने,जलन गायब हो चुकी थी।इस अनाम रिश्ते ने मानसी की चिर प्रतीक्षित यात्रा को विराम दे दिया था। इस अनोखे बंधन में बंधकर वह उन्मुक्त हो चुकी थी।

मानव को तो सैकड़ों लड़कियां मिल सकती है,फिर उसने मानसी से ही क्यों प्रेम किया,पूछने पर बोला था उसने जो सोच-समझकर किया जाए ,वह प्रेम नहीं हो सकता। निरुत्तर हो जाती थी मानस की बातें सुनकर।

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 मोह पाश से मुक्ति (भाग 2)- शुभ्रा बैनर्जी

#एक_रिश्ता 

शुभ्रा बैनर्जी

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