मेरी माँ है – विभा गुप्ता: Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : ” तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई इसे हाथ लगाने की…टूट जाता तो……।” सावित्री ने ज़ोर-से चीखते हुए काँच का फूलदान दीपक के हाथ से छीन लिया।आठ वर्षीय दीपक सहम गया।नहीं कह पाया कि माँ आपके पैर से लगकर गिरने वाला था,आपको चोट लग जाती तो.., इसीलिए मैं उसे हटा रहा था…।

       सावित्री का भरा-पूरा परिवार था।पति राधेश्याम  अपनी ज़मीन पर खेती करते थें और गोद में अंकित-आयुष दो प्यारे बेटे थें।दोनों बेटे जब स्कूल जाने लगे तो उन्हें लगा जैसे एक ज़िम्मेदारी पूरी हो गई।

         एक दिन राधेश्याम किसी काम से शहर गये हुए थे।सावित्री घर का काम निपटाकर सिलाई करने बैठी ही थी राधेश्याम एक चार वर्ष के बच्चे का हाथ थामे आये और उनसे बोले कि अपनी ममता का थोड़ा हिस्सा इस मातृहीन बच्चे को भी दे देना।सुनकर वे चौंक उठी।झट-से कौन है, किसका है, आपसे क्या नाता है…ढ़ेरों सवाल उनपर दाग दी।एक पल के लिये राधेश्याम चुप रहे, फिर पत्नी का हाथ पकड़कर बोले,” सावित्री…,

शहर में एक मेला लगा हुआ था।काम हो जाने के बाद हम ज़रा मेले में घूमने लगे तो इस बच्चे को रोते देखा।आस-पास कोई नहीं था।हमसे रहा नहीं गया और इसे गोदी में उठा लिया। बिस्कुट देकर चुप कराया और मेले के मालिक के पास जाकर कहा कि इसके माता-पिता गुम हो गये हैं।

मेले वाले साहब ने एनाउंसमेंट किया, हम वहाँ दो घंटे तक बइठे रहे परन्तु इस बच्चे को लेने कोई नहीं आया।फिर हम बच्चे को लेकर थाने गये, रिपोर्ट लिखाई और अपना पता देकर आ गये हैं।तुम बस दो दिन इसे संभाल लो…फिर तो इसके माँ- बाप आ ही जायेंगे।

         सावित्री अपने पति के स्वभाव से भली-भांति परिचित थी।जानती थी कि किसी का दुख-दर्द वे नहीं देख सकते थे।उसने बच्चे को नहला-धुलाकर आयुष के पुराने कपड़े पहना दिये।

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       दो दिन बीत गये, बच्चे को लेने कोई नहीं आया।तीसरा दिन भी बीतने लगा तब उसने पति को कहा।राधेश्याम शहर गया तो थाने भी गया।तब पुलिस ने कहा कि कोई लेने नहीं आया है,अब तुम ही इसके पिता बन जाओ।सच है भी कि इन दो-चार दिनों में उसे बच्चे से लगाव हो गया था।

बस उसने बच्चे का नाम दीपक रखकर उसे अपना तीसरा पुत्र मान लिया लेकिन सुमित्रा नहीं मान सकी।बात-बात पर उस मासूम को झिड़क देती और दीपक…., वो तो सावित्री को पूरी तरह से अपनी माँ मान चुका था। सावित्री की घुड़कियाँ खाकर भी मुस्कुराता रहता, कभी कुछ न कहता और न ही पूछता।अभी भी उसने सावित्री की डाँट को भगवान का प्रसाद समझ लिया था।

         सावित्री के दोनों बेटे काॅलेज़ की पढ़ाई करने शहर चले गये।दसवीं की परीक्षा के बाद जब दीपक की बारी आई तो उसने पति से साफ़ कह दिया कि दूसरों पर पैसा बर्बाद नहीं करना है।राधेश्याम शांत स्वभाव के व्यक्ति थे,पत्नी से बहस करना उचित नहीं समझे।सोचा,…अच्छा है, बेटा मेरे पास ही रहेगा और इस तरह दीपक पिता के काम को मन लगाकर सीखने लगा।

          सावित्री के दोनों बेटे पिता से पूँजी लेकर शहर में ही अपना व्यापार करने लगे।सावित्री ने दोनों का विवाह करा दिया कि बहुओं से थोड़ा सुख भोगेगी लेकिन सोचा हुआ कब पूरा होता है।महीने भर के अंदर ही दोनों अपनी-अपनी पत्नी के संग शहर चले गये।

       सावित्री अब उदास रहने लगी।जिन बेटों के लिये उन्होंने दीपक को नहीं अपनाया..वे ही उन्हें तन्हा कर गये।राधेश्याम भी अब अस्वस्थ रहने लगे तो दीपक ने उन्हें आराम करने को कहकर खेती का काम स्वयं देखने लगा।

      राधेश्याम ने अपने एक परिचित की बेटी सुगंधा से दीपक का ब्याह करा दिया।साल भर के बाद वह एक बेटे का पिता भी बन गया।

      सावित्री का झुकाव अब दीपक की तरफ़ होने लगा था।यह देखकर राधेश्याम बहुत खुश थें।एक दिन पोते के साथ खेलते-खेलते अचानक उनके सीने में दर्द उठा।दीपक तुरन्त उन्हें लेकर अस्पताल दौड़ा, घंटे भर ही साँस चली, फिर हमेशा के लिये उन्होंने आँखें मूँद ली।

        सावित्री के दोनों बेटे आये…माँ से ज़मीन-जायदाद की बात करके चले गये।दीपक अब उनका विशेष ख्याल रखता था।एक दिन वह खेत से लौटा तो देखा कि उसकी पत्नी सावित्री जी को कह रही थी,” माँजी…जब चला नहीं जाता है तो एक जगह बैठी क्यों नहीं रहती…।कभी पानी गिरा देती हैं तो कभी….।”

  ” सुगंधा…,ऐसी बात कहने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई!यह मत भूलो कि वो मेरी माँ हैं, उनकी छत्रछाया में ही मैं पला-बढ़ा हूँ….मेरे लिए वो भगवान हैं।वो जो चाहे हमें कह सकती हैं लेकिन तुम नहीं….।ये घर उनका है…वो जैसे रहें…जहाँ बैठे, उनकी मर्ज़ी है।”  दीपक ने गुस्से-से पत्नी से कहा।

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  ” लेकिन..मैं तो बस…।” सुगंधा कहती रह गई लेकिन दीपक ने कुछ नहीं सुना।

      उस दिन सावित्री जी को एहसास हुआ कि दीपक उनको कितना मान देता है।सही मायने में एक बेटे का फ़र्ज़ तो यही निभा रहा है।कुछ दिनों पहले जब उनकी साँस तेज-तेज चलने लगी थी तो दीपक कितना घबरा गया था।उनको लेकर अस्पताल दौड़ा था।उनके अपने बेटों ने तो अपनी व्यस्तता का बहाना बना दिया था।

        एक दिन अंकित आया।माँ से कहने लगा ,” दीपक को इस घर में लाने वाला तो चला गया…अब आप उसे भी जाने को कह दीजिये…,पराये का क्या भरोसा…किसी दिन सब लेकर चंपत….।”

   ” चुप कर अंकित…।” सुमित्रा जी बेटे पर ज़ोर-से चिल्लाई। 

  ” ऐसा सोचने की तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई!…दीपक तुम्हारा छोटा भाई है।उसका सम्मान नहीं कर सकते हो तो तुम्हें यहाँ आने की कोई आवश्यकता नहीं है।”

   ” मेरा…मतलब..था कि…।” अंकित की आवाज़ लड़खड़ाने लगी।

        सुमित्रा जी ऐसा रूप देखकर दीपक दंग रह गया।बचपन से वह जिसे माँ कहता आया था…देवी मानकर पूजा करता आया, आज उनके दिल में अपने लिये ममता और स्नेह देखकर खुशी-से उसकी आँखें छलछला उठी।

                                           विभा गुप्ता

# तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई          स्वरचित

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