“सुप्रिया बेटा, वो एरिया सही नहीं है। उधर मत जाया करो।” सुभाष अपने मित्र और पड़ोसी कृष्णचंद्र की पीओ बेटी नंदनी से उनके घर में बैठे चाय पीते हुए चिंतित भाव से कह रहे थे।
“अंकल आप काम से काम रखिए। मैं पढ़ी लिखी कमाई कर रही हूॅं, लोग तो मेरी जूती की नोक पर रहते हैं।” नंदनी की बोली में घमंड टपक रहा था और वहीं बैठे कृष्णकुमार ने भी अपनी बेटी की बदतमीजी पर उसे कुछ ना कह एक तरह से शह ही दे रहे थे। वैसे भी उनका और उनकी पत्नी बेटी प्रेम में अंधे हुए पड़े थे, उनका कहना ही था उनके बच्चे जो भी करें, वही सही है। नंदनी मुंहफट तो बचपन से ही थी, नंदनी क्या नंदनी की माॅं की भी कमोवेश यही हालत थी और पापा की भी अपने सामने किसी को कुछ नहीं समझने की उनकी फितरत गाहे बगाहे प्रकट होती रहती थी। खड़े खड़े ही किसी भी रिश्ते में ताउम्र के लिए दरार पैदा कर देना, उनका स्वभाव था तो उनकी बेटी से क्या उम्मीद की जा सकती थी। नंदनी के मन का नहीं होने पर माता–पिता की बेइज्जती करना भी उसके लिए छोटी सी बात थी तो सुभाष किस खेत की मूली थे।
बहुत दुःखी मन से सुभाष घर आए थे और पत्नी ने भी जानने पर यही कहा कि बिन माॅंगें आपको सलाह देनी ही नहीं चाहिए थी। अधजल गगड़ी छलकत जाए, वाली मानसिकता है उसकी। उस दिन से सुभाष ने उनके यहाॅं जाना बंद कर दिया, धीरे–धीरे दूरियाॅं बढ़ने लगी। कभी आमने सामने हो गए तो अभिवादन हो जाता था अन्यथा सब कुछ बंद सा हो गया।
समय बीतता गया और एक दिन कृष्णचंद्र अपनी बेटी नंदनी की शादी का निमंत्रण देने आए। बधाई, मिठाई का आदान प्रदान तो हुआ लेकिन मन पर बॅंधी गाॅंठ नहीं खुल सकी। सुभाष की पत्नी ने उन पर शादी में शामिल होने का दवाब बनाया जरूर लेकिन पति के आहत हृदय पर मरहम नहीं रख सकी। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में कह दिया, “मुझे माफ करो..तुम शामिल हो आओ।
सुभाष की पत्नी पड़ोसी धर्म निभाने के लिए अपने पंद्रह साल और दस साल के बेटों के साथ शादी में शामिल होने पहुॅंची तो वहाॅं नंदनी के नाना नानी भी आए हुए थे, आखिर उनकी नतिनी का विवाह था। सुभाष की पत्नी उन्हें देख कर खुश हो गई, लेकिन ये क्या उन्होंने तो उसे और उसके बच्चों को देखकर अपना चेहरा दूसरी ओर घूमा लिया। सुभाष की पत्नी को बुरा तो जरूर लगा लेकिन बुजुर्गवार हैं सोच कर “नाना नानीजी हैं, प्रणाम करो बेटा” कहती चरण स्पर्श करती है। बच्चे भी मुस्कुरा कर चरण स्पर्श करते हैं, लेकिन उन दोनों के मुॅंह से आशीर्वाद के दो शब्द नहीं निकल सके। सुभाष की पत्नी सोचने लगी “क्या बुजुर्ग भी ऐसे हो सकते हैं, जो अपने आशीर्वाद की कीमत लगाते हैं, जो बच्चों के सिर पर आशीर्वाद का हाथ रखना भी उन्हें गंवारा नहीं हुआ। पूरी बात तो उन्हें शायद ही मालूम होगी, एकतरफा कान रखने वालों से क्या आशा। दरार का अभिवादन और आशीर्वाद से कैसा संबंध? जब जड़ ही खोखली हो, तो तना से मजबूती की क्या उम्मीद करना।”
सुभाष की पत्नी का मन उस परिवार की सोच के प्रति वितृष्णा से भर उठा और वो उपहार के साथ आशीर्वाद देकर अपने घर की ओर ईश्वर को धन्यवाद देती चल पड़ी कि उसके घर के बुजुर्ग ऐसे नहीं है, चाहे कोई भी हो खुले दिल से आशीर्वाद का ढ़ेर लगा देते हैं और उनकी छत्रछाया में उसे और उसके बच्चों को एक उचित संस्कार मिल रहा है।
आरती झा आद्या
दिल्ली