अनजाने रास्ते (भाग-7) – अंशु श्री सक्सेना : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : लगभग दस बाद अयान वह ख़ुशख़बरी लेकर आया जिसका वैदेही को बेसब्री से इंतज़ार था। ख़ाला के देवर ने दिल्ली से बुलावा भेजा था। वैदेही दिल्ली जाने की तैयारियों में जी जान से जुट गई। अयान की अम्मी इस बात से दुखी थीं कि वैदेही के कारण अयान को भी दिल्ली जाना पड़ रहा है। पिछले दस दिनों में उनका बदला हुआ रवैया महसूस किया था वैदेही ने। वे कोई न कोई ऐसी बात वैदेही से कहतीं जिससे वैदेही की धार्मिक भावनाएँ आहत होतीं।

वैदेही को सदा अपनी माँ के कहे शब्द याद आते…

“यह विवाह कैसे निभा पाओगी बिटिया…हमारे संस्कार अलग हैं, विचार अलग हैं, परम्पराएँ अलग हैं”

वैदेही के सपनों का शहर दिल्ली…

अयान और वैदेही प्रोफ़ेसर चाचू के घर जा पहुँचे। प्रोफ़ेसर साहब को अयान को वैदेही के साथ देखकर कोई ख़ास ख़ुशी नहीं हुई। उन्होंने सीधे सपाट लहजे में कहा,

“देखो भई, मेरे अंडर में ऑलरेडी कई रिसर्च स्कॉलर्स हैं इसलिए मैं तुम दोनों में एक को ही अपने अंडर में रिसर्च के लिए ले पाऊँगा…वैसे भी मेरा मानना है कि वैदेही, तुम पहले स्कॉलरशिप के लिए ट्राई करो…तब तक अयान का मैं रिसर्च फ़ेलो के लिए एनरोलमेंट कर लेता हूँ…और तुम दोनों जल्दी ही अपना रहने का इंतज़ाम कहीं कर लो क्योंकि यहाँ मेरी बेग़म की तबियत भी ठीक नहीं रहती है”

प्रोफ़ेसर साहब की बात सुनकर वैदेही तो जैसे आसमान से गिरी। उसने हाथ जोड़ते हुए कहा,

“चाचू, प्लीज़ ! मेरा आप बी.एस.सी, या एम.एस.सी के सर्टिफ़िकेट्स देख लें, फ़र्स्ट क्लास फ़र्स्ट हूँ सर, आय ऐम श्योर, आय विल डेफेनेटली गेट स्कॉलरशिप…प्लीज़ आप मुझे भी एनरोल कर लीजिए…”

अयान ने बीच में वैदेही की बात बीच में ही काटी और बोला,

“ठीक है चाचू, जैसा आप ठीक समझें, येस वैदेही कैन ट्राय लैटर”

डिपार्टमेंट में प्रोफ़ेसर साहब अयान को अपने साथ ले जाकर फ़ॉरमेलिटीज़ में लग गये। वैदेही वहीं बाहर बरामदे में पड़ी एक बेंच पर निढाल सी बैठ गई। उसके सारे सपने धूल धूसरित हो, मिट्टी में मिल गये थे।उसने अपने चारों ओर निगाह दौड़ाई। सामने के कमरे के बाहर लगी नेम प्लेट पर उसकी नज़र टिक गई,

“प्रो॰ दिनकर बैनर्जी, डीन”

तभी वैदेही की नज़र बरामदे से उस कमरे की ओर बढ़ते एक लगभग पचपन साठ वर्षीय सज्जन और उनके पीछे पीछे फ़ाइल्स उठाए चपरासी पर पड़ी ।

उनकी निगाह वैदेही से मिली तो वैदेही तुरन्त उठ कर खड़ी हो गई।

“हैलो यंग लेडी, व्हाई आर यू सिटिंग हियर ? वेटिंग फ़ॉर सम वन ?

उन्होंने बड़ी ही शालीनता से वैदेही से पूछा।

“येस सर, फ़ॉर माय हस्बेंड”

वैदेही ने भी उतनी ही शालीनता से उत्तर दिया।

“ओके…आपके हाथों में फ़ाइल है, क्या आप अपने हस्बेंड की फ़ाइल सहेज कर बैठी हैं”

“नो सर, दीज़ आर माय सर्टिफ़िकेट्स….एक्चुअली सर मैंने लखनऊ से पोस्ट ग्रैजुएशन किया है और मैं इस विश्वप्रसिद्ध दिल्ली यूनिवर्सिटी से रिसर्च करना चाहती हूँ”

वैदेही की आवाज़ में आत्मविश्वास झलक रहा था।

“ओके, गिव योर फ़ाइल टु माय पियोन”

कहकर प्रोफ़ेसर दिनकर बैनर्जी आगे बढ़ गये। वैदेही ने झट अपनी फ़ाइल पियोन को पकड़ाई और फिर वहीं बेंच पर बैठकर अयान की प्रतीक्षा करने लगी।

थोड़ी देर में अयान लौटा और वैदेही के हाथों में फ़ाइल न देख कर भड़क उठा,

“कहाँ गये तुम्हारे सर्टिफ़िकेट्स ? कहाँ भूल आईं तुम अपनी इतनी इम्पॉर्टैन्ट फ़ाइल ? तुम इतनी केयरलेस कैसे हो सकती हो?”

तभी डीन साहब के कमरे से चपरासी ने निकल कर कहा,

“साहब ने आपको भीतर बुलाया है मैडम”

अयान को आश्चर्य की स्थिति में छोड़, वैदेही प्रोफ़ेसर बैनर्जी के कमरे में घुस गई।

अन्दर प्रोफ़ेसर साहब ने मुस्कुराते हुए कहा,

“सिट डाउन यंग लेडी, आय मीन वैदेही…तुम्हारा ऐकेडमिक रिकॉर्ड बहुत इम्प्रेसिव है, तुम चाहो तो तुम मेरे साथ मेरे प्रोजेक्ट पर काम कर सकती हो”

*अंधा क्या चाहे, दो आँखें* वैदेही ने झट हाँ में सिर हिलाया और आगे बढ़कर प्रोफ़ेसर बैनर्जी के पाँव छू लिए।

“सर, आप नहीं जानते, आपने मुझे आज किस मुश्किल से उबारा है…आज से आप मेरे गुरु हुए”

कहते हुए वैदेही भावुक हो गई।

“गॉड ब्लेस यू…”

कहते हुए प्रोफ़ेसर बैनर्जी ने वैदेही के सिर पर हाथ रखा तो उस एक पल में वैदेही को लगा जैसे उसके पापा सामने आ गये हों।

कमरे से बाहर निकलते ही वैदेही ने चहकते हुए जब अयान को बताया,

“मुझे इन प्रोफ़ेसर साहब के अंडर रिसर्च करने का मौक़ा मिल रहा है अयान…आय ऐम सो हैप्पी”

अयान और प्रोफ़ेसर अशरफ़ का मुँह आश्चर्य से खुला रह गया। अशरफ़ बोले,

“ये तो कमाल हो गया…डीन सर तो किसी को अपने पास फटकने भी नहीं देते, उन्होंने तुम्हें अपने साथ रिसर्च करने को ले लिया ? तुम बड़ी क़िस्मत वाली हो वैदेही, जो तुम्हें इतने नामी साइंटिस्ट के साथ काम करने का मौक़ा मिल रहा है…अब तुम अयान से कहीं बेहतर काम कर पाओगी”

यह सुन कर एयान का चेहरा उतर गया जैसे किसी ने उसके गाल पर करारा तमाचा मारा हो। वह बुझे मन से बोला,

“चलें वैदेही? हमें रहने के लिए घर भी ढूँढना है”

अगले दिन जब वैदेही प्रोफ़ेसर दिनकर बैनर्जी के ऑफ़िस में पहुँची तो वे अपने लैपटॉप में आँखें गड़ाए बैठे थे।

“मे आय कम इन सर ? मुझे क्या सीधे लैब में जाना होगा?”

वैदेही ने पूछा।

“येस…येस वैदेही…कम इन, नो…नो तुम अभी बाहर बैठो, मैं थोड़ी देर में लैब की तरफ़ जाऊँगा, तब तुम साथ चलना…मैं तुम्हें, तुम्हारा काम समझा दूँगा…और हाँ तुम स्कॉलरशिप के लिए भी फ़ॉर्म भर दो”

प्रोफ़ेसर साहब ने कहा।

लैब की ओर जाते समय दिनकर बैनर्जी ने पूछा,

“तुम्हारा घर कहाँ है? तुम बिफ़ोर टाइम आ गईं ? यहीं कहीं पास में ही रहती हो क्या?”

“नहीं सर, अभी तो मैं और मेरे हस्बेंड प्रोफ़ेसर अशरफ़ के घर पर रुके हैं परन्तु हमें जल्दी ही अपने लिए छोटा सा घर ढूँढना है”

वैदेही ने हिचकते हुए कहा।

“अरे ये तो कमाल हो गया…मेरा करोलबाग में एक छोटा सा फ़्लैट है, जो कि कल ही ख़ाली हुआ है, तुम चाहो तो मैं तुम्हें वहाँ की चाबी दे सकता हूँ”

प्रोफ़ेसर बैनर्जी स्नेह भरे लहज़े में बोले।

“नहीं सर…रहने दीजिए, हमारे पास अभी तो पैसे नहीं हैं…थोड़ी बहुत जमा पूँजी जो हम घर से लाये थे, बड़ी मुश्किल से हमारा ख़र्च चल रहा है, हम फ़्लैट का किराया कहाँ से दे पाएँगे?”

वैदेही की आवाज़ में दर्द छलक आया।

“ठीक है…ठीक है…जब तुम्हें स्कॉलरशिप मिलने लगे तो किराया दे देना…कल मैं फ़्लैट की चाबी ले आऊँगा, तुम जब चाहो शिफ़्ट कर सकती हो”

उस पल वैदेही को लगा कि वह प्रोफ़ेसर साहब के सीने से लिपट जाए और ज़ोर ज़ोर से रो ले…जैसे वह बहुत दुखी या ख़ुश होने पर अपने पापा के सीने से लिपट जाया करती थी और वे प्यार से उसकी पीठ पर थपकियाँ देते थे।

अपने मन में उमड़ती भावनाओं की लहरों को उसने बड़ी मुश्किल से क़ाबू में किया।

“आप मेरे लिए ईश्वर का रूप लेकर आए हैं सर”

कहते हुए वैदेही का गला रुँध गया।

वे अगले दिन ही प्रोफ़ेसर साहब के फ़्लैट में शिफ़्ट हो गये। अयान ख़ुश तो नहीं था परन्तु और कोई उपाय न देख कर फ़्लैट में चुपचाप सामान जमाने लगा।

दो कमरों का छोटा सा फ़्लैट, एक कमरे में छोटी सी बालकनी और बालकनी के सामने दूर आसमान में टँगते चाँद और सूरज…वैदेही की ज़िन्दगी की गाड़ी अब पटरी पर धीमे धीमे रेंगने लगी थी।

अब रोज़ दोनों सुबह सुबह यूनिवर्सिटी जाते, अलग अलग लैब में काम करते और शाम को थक कर घर वापस लौटते। वैदेही और अयान दोनों को ही स्कॉलरशिप मिलने लगी थी, इसलिए घर का गुज़ारा भी ठीक ठाक ही चल रहा था। अयान अब थोड़ा मूडी हो गया था…बिलकुल उस बादल की तरह, जो कभी तो प्यार की बरखा करता और कभी यूँ ही आवारा सा यहाँ वहाँ भटकता रहता।हालाँकि वैदेही अपनी ओर से अयान को ख़ुश रखने की पूरी कोशिश करती।

अपने मायके में नौकर चाकर होने के कारण, कभी एक गिलास पानी भी अपने हाथ से न लेने वाली वैदेही, अब यू-ट्यूब से देख कर कभी अयान के लिए उसका मनपसंद लाल माँस पकाती तो कभी रोगनजोश।

सर्दियों के दिन थे, रोज़ की तरह वैदेही प्रोफ़ेसर बैनर्जी के कमरे में अपना अटेन्डेन्स रजिस्टर साइन करने पहुँची तो उसने देखा, प्रोफ़ेसर साहब की कुर्सी पर एक चार पाँच साल की बच्ची उनकी रिवॉल्विंग चेयर पर बैठी गोल गोल घूम रही है और तालियाँ बजा कर खिलखिला रही है।

“नानू और तेज़…और तेज़”

और प्रोफ़ेसर बैनर्जी अपनी कुर्सी को गोल गोल घुमा रहे हैं ।

वैदेही बड़ी देर तक कमरे के बाहर खड़ी प्रोफ़ेसर साहब और उस बच्ची को देखती रही, यह दृश्य फिर उसे लखनऊ में खींच ले गया। पापा भी तो उसे बचपन में…

तभी प्रोफ़ेसर साहब की नज़र उस पर पड़ी,

“अरे वैदेही, वहाँ क्यों खड़ी हो? इनसे मिलो…ये हैं मेरी नातिन कुहू और कुहू…ये हैं वैदेही आंटी”

कुहू झट कुर्सी से उतरी और उसने वैदेही की ओर अपने नन्हे हाथ बढ़ा दिये,

“हैलो वैदेही आंटी”

छोटी सी गोल मटोल सी कुहू…गुलाबी झालरों वाली फ़्रॉक में सजी हुई, घुंघराले बालों की दो छोटी छोटी पोनीटेल और गुलाबी तितलियों वाली हेयरक्लिप।

वैदेही ने उसके हाथ पकड़ लिए और प्यार से बोली,

“हैलो प्रिन्सेस…आप भी यहाँ पढ़ने आई हैं ?”

“अरे आज इसकी नानी यानी कि मेरी वाइफ़ कहीं बाहर गई हैं और घर में कोई नहीं है इसलिए ड्राइवर इसे स्कूल से यहीं ले आया, चलो लैब चलते हैं…कुहू तुम यहीं बैठना”

प्रोफ़ेसर साहब ने कहा और लैब की ओर चल दिये। वैदेही की आँखों में उपजी जिज्ञासा का उत्तर देते हुए उन्होंने गम्भीर स्वर में कहा,

“कुहू को जन्म देते समय ख़ून अधिक बह जाने से मेरी बेटी वसुधा की मृत्यु हो गई, मेरे दामाद भारतीय सेना में हैं, फ़्रंट पर पोस्टिंग होने के कारण वे इसकी देखभाल करने में असमर्थ हैं इसलिए कुहू हमारे ही साथ रहती है…वसुधा हमारी इकलौती बेटी थी”

“सो सॉरी टु नो दिस सर…कुहू बड़ी ही प्यारी है”

प्रोफ़ेसर बैनर्जी के साथ काम करते हुए वैदेही प्रतिदिन कुछ नया सीखती। उसकी मेहनत और लगन देख कर प्रोफ़ेसर बैनर्जी बहुत ख़ुश थे। उधर अयान का काम भी ठीक चल रहा था परन्तु उसका प्रोजेक्ट और रिसर्च का काम उतना प्रभावशाली नहीं था जितना कि वैदेही का।

अब यूनिवर्सिटी में वैदेही की थोड़ी पहचान बननी आरम्भ हुई थी। प्रोफ़ेसर बैनर्जी उसे अक्सर अपने साथ विषय से सम्बन्धित सेमिनार और लेक्चर्स में ले जाने लगे थे।

क्रमश:

अंशु श्री सक्सेना

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