Moral stories in hindi : पूरी रात आंखों में काट दी थी रमाकांत जी ने,मिनट भर को नींद नहीं आई थी उन्हें और आती भी कैसे,कल कितने वर्षों बाद अपने घर जो लौट रहे थे।
साधारण से स्कूल मास्टर थे वो एक छोटे से गांव में,सीधी सादी पत्नी रूपा,उन्हें परमेश्वर की तरह पूजने वाली,दो बेटे,एक बेटी के साथ सुखपूर्वक रहते थे।
जब तक उनके बच्चे छोटे थे,बहुत आज्ञाकारी थे ,उनके स्कूल की छोटी छोटी उपलब्धि रमाकांत और रूपा को भाव विहवल कर जाती ,समय के साथ खर्चे बढ़ने लगे और रमाकांत की कमाई कम पड़ने लगी।
एक दिन,स्कूल प्राचार्य ने बताया था रमाकांत को,तुम्हारा प्रमोशन आया है,काफी तनख्वाह भी बढ़ जाएगी पर शहर के स्कूल में जाना पड़ेगा।
रमाकांत खुश भी था और उदास भी।खुश इसलिए कि तनख्वाह बढ़ेगी तो बढ़ते खर्चे निबटा सकेगा ,साथ ही उदास इसलिए कि घर वालों से दूर अकेले शहर कैसे रहेगा?आजतक हमेशा सबके साथ रहता आया था और अब उम्र बढ़ रही थी,कुछ बीमारियां भी लग चुकी थीं और ऐसे में पत्नी से भी दूर,नहीं रह पाएगा।
घर आते ही उसने रूपा को बताया तो वो सबसे पहले मंदिर में भगवान के सामने घी का दीपक जला कर आई।
तुम्हें मेरे साथ चलना होगा रूपा…रमाकांत जी ने कहा तो रूपा बोली, कैसी बच्चों से बात करते हो दीपा के बापू, मै बच्चों को छोड़कर तुम्हारे साथ कैसे जा सकती हूं?सुशांत और कमल की पढ़ाई है और दीपा भी कौन बड़ी है,अकेले घर का काम और पढ़ाई का बोझ कैसे संभालेगी?
पर तुम मेरे बिना खाना तक नहीं खाती हो,अब क्या करोगी?रमाकांत मायूस होते बोले।
जब जैसा समय पड़ता है,सब हो जाता है,बच्चों के सुंदर भविष्य के लिए कुछ कुर्बानियां तो देनी ही पड़ती हैं,ये वक्त पता भी न चलेगा।
इस कहानी को भी पढ़ें:
राखी का गिफ़्ट – प्रीति आनंद अस्थाना
खैर रमाकांत चले गए।शहर का माहौल उन्हें बिलकुल पसंद नहीं आता पर बच्चों की पढ़ाई और भविष्य का सोचकर वो वहां रहने लगे।खर्चा कम हो ये सोचकर, पूरे साल में,सिर्फ दो बार ही घर जाते।
बच्चे ठीक ठाक पढ़ रहे थे,उन्हें संतोष रहता कि उनकी मेहनत रंग लायेगी और बच्चे बड़ी पोस्ट पर लग जायेंगे,एक बार बेटी की शादी अच्छे घर हो जाए,लड़कों की सरकारी नौकरी लग जाए,बस सारी मेहनत सफल हो जायेगी।
कई बार चाहा,किसी छुट्टी में रूपा को ही दो चार दिन,अपने पास बुला लें पर वो घर गृहस्थी के चक्कर में ऐसी फंसी कि कभी आ ही न पाई।
एक बार,दीवाली की छुट्टी में वो घर पहुंचे तो तीनो बच्चे,उन्हें घेर कर बैठ गए।
बड़े बेटे ने प्रतियोगी परीक्षा का एग्जाम दिया था और उसे उम्मीद थी कि उसकी नौकरी जल्दी हो लग जायेगी।छोटा वाला अभी परीक्षा की तैयारी में जुटा था,लड़की वहीं प्राइमरी स्कूल में टीचर थी।
सबकी ख्वाहिश थी अब किराए के मकान को छोड़कर अपने खुद के मकान में रहने की,इसलिए सबसे पहले उनकी लड़की बोली पापा!अब हमे अपना मकान बनवा लेना चाहिए।
लेकिन इसके लिए बहुत रुपया चाहिए,वो उदास होता बोला।
तो पापा,आप लोन ले सकते हैं,फिलहाल मकान बनाना शुरू कर देंगे,बड़ा बेटा सुशांत बोला।
और उसे चुकाएगा कौन?वो तेज आवाज में बोला,कुछ आवेश में आकर।
जब आप रिटायर होंगे,आपका पी एफ और बचत किया पैसा होगा न पापा,छोटा कमल बोला।
अच्छा!तो वो सब मै अभी से दांव पर लगा दूं?दीपा की शादी कौन करेगा?हम बुढ़ापे में कैसे रहेंगे?
आपकी पेंशन तो होगी ना पापा,कमल लापरवाही से कहने लगा।
इस कहानी को भी पढ़ें:
साँसों का तार… – विनोद सिन्हा “सुदामा”
बड़े नादान हैं ये सब,रमाकांत सोचने लगे तभी उनकी पत्नी रूपा आकर कहने लगी,ठीक ही तो कह रहे हैं बच्चे!!कल को सुशांत की शादी होगी,बहु घर आयेगी तो इस दो कमरे के किराए के मकान ने रखेंगे उसे?कुछ तो सोचना ही पड़ेगा दीपा के बापू।
तो तुम भी बच्चों का ही साथ दे रही हो…रमाकांत आहत होकर बोले।
गलत कह रही हूं टी कहो,वो तुनक के बोली।
आखिर हारकर रमाकांत जी ने घर बनाने की प्रक्रिया शुरू कर दी और नौकरी पर चले गए।
समय बीता,बड़े बेटे की बढ़िया नौकरी लग गई,उसके एक से बढ़कर एक अच्छे रिश्ते आने लगे।
एक दिन अचानक रमाकांत को घर से पत्र मिला,बड़े बेटे की शादी है,अगर छुट्टी लेकर आ सको तो अच्छा होगा।
वो शॉक्ड हो गया,मेरी पसंद के बिना रिश्ता तय कर दिया और मुझे मेहमानों की तरह बुलाया जा रहा है।खैर!घर गया,लड़की बहुत अमीर घर की थी,उसने पत्नी और लड़के से पूछा,क्या ये हमारे मिडिल क्लास परिवार में फिट हो पाएगी?इतनी भी क्या जल्दी थी रिश्ता जोड़ने की लेकिन उसकी किसी ने एक न सुनी।
शादी हो गई और घर का मास्टर बेड रूम बड़े बेटे बहू को दे दिया गया। रमाकांत को अच्छा नहीं लगा था पर संतोष कर रह गए,कौन सा मुझे अभी यहां रहना है?जब रूपा कॉम्प्रोमाइज कर रही है तो मैं भी चुप रहता हूं,बिना बात बच्चों से बुराई मोल लूं।
फिर अपने काम में जाकर रम गए थे वो।वहां स्कूल के चपरासी की पत्नी कम उम्र की नई नई ब्याहता थी,रमाकांत जी के खाने पीने का बहुत ध्यान रखती थी,वो भी जाने अनजाने में उसे अपनी बेटी दीपा जैसा ही दुलार करते।
जब रिटायर हुए,उनकी रिटायरमेंट पार्टी बहुत शानदार हुई, उनकी ईमानदारी और नेकनीयत की सब कायल थे।स्कूल के मेनेजमेंट अधिकारी बोले,कहां जा रहे हैं रमाकांत जी,आप चाहे तो हमारे ऑफिस के बर्सर का पद संभाल लें,आप सा ईमानदार ऑफिसर
इस कहानी को भी पढ़ें:
पश्चाताप – गार्गी राय
पाकर हम धन्य हो जायेंगे।
नहीं,मुझे अब अपने परिवार के साथ ही रहना है,सारी उम्र मेहनत की,उनसे जुदाई सही सिर्फ उनके सुंदर भविष्य के लिए पर अब मेरे बच्चे कमाने लगे हैं,अब मेरे आराम करने के दिन हैं,प्लीज मुझे इजाजत दें।
सबके मन भर आए,चपरासी भोला और उसकी पत्नी तो फूट फूट कर रोए जेसे अनाथ हो गए हों।
मेनेजमेंट अधिकारी बोले,आपके लिए ये पद किसी भी वक्त खाली ही रहेगा,आप जब चाहे आ सकते हैं,आपका स्वागत है।
सबका स्नेह और सम्मान मन में लिए वो घर लौटे।
घर में बड़ी सुनसान थी।रूपा अकेली ही थी।
क्या बच्चे घर में नहीं हैं?वो बेसब्री से बोले।
सब पिकनिक पर गए हैं दो दिन से…रूपा बोली।
उन्हें मेरे आने के बारे में पता नहीं था?थोड़ा उत्तेजित हो बोले।
अब क्या अपना प्रोग्राम बीच में रद्द कर आते,आ जायेंगे,तुम कहां भागे जा रहे हो,अब हमेशा घर में खाली ही तो रहना है…वो बोली।
वो चौंके…पलट कर रूपा को देखा,”खाली ही तो रहना”मतलब??क्या अब फिर चले जाएं?
अच्छा!मेरा सामान किस कमरे में रखना है?
मास्टर बेड रूम तो बड़े बेटे बहू पर है और उससे बराबर वाला?
वो कमल ने लिया हुआ है,कुछ समय में उसकी शादी भी होगी।रूपा बोली।
इस कहानी को भी पढ़ें:
उपहार – रश्मि स्थापक
और वो साइड वाला?उसने गुस्से से पूछा।
वो दीपा के पास है,कहती है स्टडी के लिए शांत कमरा चाहिए।
और तुम कहां हो?
मैं बरामदे में पड़ी रहती हूं,मेरा क्या है,सारा दिन घर का काम है,फुरसत ही नहीं,वो बोली।
पर मुझे बहुत फुरसत है,मेरा कौन सा कमरा बनाया इस पूरे मकान में?वो चिल्लाए।
हाइपर क्यों होते हो?तुम्हारी चारपाई ड्राइंग रूम में डाल दूंगी,दिन में उठा लिया करेंगे और रात में वहां सो जाना।
तुम कितना बदल गई हो रूपा…वो आहत होकर बोले,ये मकान मेरी खून पसीने की कमाई का है और रहने को एक कमरा भी नसीब नहीं।
तो बच्चे भी तो हमारे ही हैं जी…किसी पराए के लिए तो ये सब नहीं कर रहे…अब हम नहीं करेंगे तो कौन करेगा उनका??
इसका मतलब तुम्हारी शह पर ही बच्चे इतने बिगड़े हैं, मै घर से क्या गया तुमने तो पूरा घर ही बर्बाद कर दिया रूपा।
लो!कोई क्रेडिट देने से तो रहा बल्कि आरोप लगा रहे हैं,कैसे मैंने इतनी मुश्किल से बच्चों को अकेले पाला पोसा, मै ही जानती हूं।वो रोने लगी।
अब रोती ही रहोगी या खाना भी दोगी,जब से आया हूं,एक चाय भी नहीं पूछी मुझसे।
बिंदिया!जा साहब के लिए चाय ले कर आ।
अब ये बिंदिया कौन है?परेशान होकर रमाकांत बोले।
बहू अपने साथ नौकरानी लेकर आई है अपने पीहर से।
इस कहानी को भी पढ़ें:
“माँ के हाथ की सब्जी ” – *नम्रता सरन”सोना”*
वो क्या करती है?रमाकांत आश्चर्य से बोले।
खाना,नाश्ता बनाती है और बहू के छोटे मोटे काम करती है।
और तुम सब क्या करते हो? वो हैरानी से बोले।
अरे ज़माना बदल रहा है दीपा के बापू,चूल्हे चौके से हटकर हजार काम होते हैं घर में…अब देखो ना कितनी देर से तुमसे चक्कलस करनी पड़ रही है।
बरसो बाद घर लौटे पति से बात को चकल्लस
कहती हो, हे भगवान!तुम सब बहुत बदल गए हो…किसी को मेरी नहीं पड़ी,सब अपनी दुनिया में मस्त हैं।
थोड़ी देर में बिंदिया ने मटकते हुए आकर रमाकांत के सामने थाली रखी।
लीजिए खाना खा लें।
पहला गस्सा तोड़ मुंह में डालते वो चिल्लाए…बाप रे!ये खाना है या जहर!!कितनी मिर्च है इसमें।
यहां तो सब ही ऐसा खाते हैं,बहु के पीहर से लाई गई ये बिंदिया बहुत अच्छा खाना बनाती है,खुद को बदलो जी।रूपा बोली।
तभी बच्चे आ गए।सबने पैर छुए पिता के, बहू ने सिर पर पल्लू ढका,रमाकांत जी ने चैन की सांस ली।चलो!कुछ संस्कार तो बचे हैं घर में।
पर जल्दी ही उन सबकी कलई खुल गई।देर रात पार्टी करना उनका रोज का काम था,बेचारे रमाकांत, बाहर बैठे बैठे थक कर चूर हो जाते कि वो लोग जाएं तो उनकी खाट बिछे कमरे में।
इस कहानी को भी पढ़ें:
“आ! बहना,राखी बांधे” – ऋतु अग्रवाल
उन्हें दुख तो इस बात का होता कि उनकी अपनी बेटी दीपा भी बहु से भी ज्यादा अनुशासनहीन थी।देर रात घर आती,ढंग के कपड़े भी नहीं पहनती और पिता संग जुबान लड़ाती।
एक दिन बहू ,उनके बड़े बेटे सुशांत से कह रही थी,ये बाऊजी सारा दिन घर में ही क्यों बैठे रहते हैं,कोई काम नहीं इनको?
वो हतप्रभ रह गए जब उनका अपना खून ठहाका लगा कर बोला,क्या करें सनक गए हैं,कोई बोलेगा तो चढ़ जायेंगे ऊपर।
कुछ दिनो बाद,वो ही बेटा अपनी मां से कह रहा था,मां!ये पापा की खाट वहां ड्राइंग रूम से निकालो,उनका कोई न कोई पड़ा रह गया सामान लज्जित कराता है दोस्तों के आगे।
वो अवाक थे,सारी उम्र की कमाई लगाई ,घर बनाया, इन्हें पढ़ाया,उसका ये सिला दिया इन सबने..?रूपा भी इनके साथ खुश है,उसे भी मेरी जरूरत नहीं,कितने संस्कारहीन हैं ये सब?आंखों से शर्म का पानी मर गया कहीं,मुझे ही कुछ सोचना पड़ेगा।
अगले दिन,वो अपना सामान लगाकर तैयार थे।
अब कहां जा रहे हो सुबह सुबह?रूपा ने पूछा तो सुशांत,कमल और दीपा,उनके पास आकर खड़े हो गए थे।
वहीं जहां से आया था,ऑफर तो उन्होंने मुझे पहले भी दिया था,तब मुझे बड़ी होंस थी कि अपने परिवार वालों के संग रहूंगा पर वो सब तो बहुत बदल गए हैं,देखता हूं,उन्हें मेरी जरूरत ही नहीं।मेरी वापिसी तो होनी ही थी,तुम जैसे संस्कारहीन लोगों के साथ मेरा गुजारा नहीं है।
कहते हुए वो तेज़ चाल से निकलता चला गया और वो सब यूं ही देखते रह गए।
समाप्त
डॉ संगीता अग्रवाल
वैशाली,गाजियाबाद
संगीता जी,
“वापसी” उषा प्रियंवदा जी की बड़ी प्रसिद्ध कहानी है, जिसे कम से कम अर्धशती से अनेक एजूकेशनल बोर्ड्स में पढ़ाया जाता रहा है। बड़े अफ़सोस की बात है आपने ऐसी कहानी को तोड़ मरोड़ कर, कुछ नाम बदलकर अपने नाम से प्रकाशित कर दिया।
आपने एक बार भी सोचने का कष्ट नहीं किया कि प्रतिलिपि के लाखों करोड़ों पाठकों में कोई तो पहचान ही सकता है।
क्या कहानी बनाई है जिसकी कमाई पर घर बना,बच्चे पले बढ़े उसके लिए एक कमरा नहीं,दिल में जगह नहीं,पत्नी के लिए पति सिर्फ रुपए कमाने की मशीन है