कर्तव्यबोध – वीणा

चुन्नु देख..नानाजी आए हैं तेरे..देखो तो नानाजी क्या गिफ्ट लाये हैं तुम्हारे बर्थ डे के लिए

अरे भाई.. मैं चुन्नु के लिए गिफ्ट लेकर नहीं आया..बल्कि उसके लिए साईकिल यहीं लेना है मुझे..और चुन्नु की नानी ने तुम तीनों के कपड़े खरीदने के लिए कुछ पैसे भिजवाये हैं..कहते हुए रामनाथ जी ने बीस हजार रुपये अपनी बेटी राधा के हाथ पर धर दिए..चार पाँच दिन तो हँसी खुशी में गुजर गए..जन्मदिन के लिए खरीदारी , फिर पार्टी..रामनाथ जी का मन भी नाती के साथ लगा रहा..अगले रविवार को उनकी ट्रेन थी..गाँव वापस लौटने की.. 

तभी लौटने के एक दिन पहले सरकार की तरफ से घोषणा हुई कि कोरोना वायरस के संक्रमण से बचने के लिए कल जनता कर्फ्यू  लगाया जाएगा..कोई ट्रेन  ,बस वगैरह नहीं चलाई जाएगी..जनता कर्फ्यू के कारण रामनाथ जी जा न सके..उन्होंने सोचा कि कल चले जायेंगे..किसी गैर के घर में तो हूँ नहीं , अपनी ही बेटी दामाद के घर में हूँ..फिर चिन्ता किस बात की..तभी रात में फिर से घोषणा हुई कि कोरोना के संक्रमण से बचने के लिए पूरे देश में अनिश्चित काल के लिए लॉक डाऊन रहेगा..जो जहाँ हैं..वहीं रहें , इधर उधर जाने की कोशिश भूलकर भी न करें


रामनाथ जी चिन्तित हो उठे..पत्नी वहाँ गाँव में अकेली है..फोन से बात करने पर उसने भी आश्वस्त कर दिया.. मैं यहाँ ठीक हूँ जी..मेरी चिन्ता मत कीजिए.. राधा के पास आराम से रहिए..वह आपकी सेवा में कोई कसर न छोड़ेगी..पत्नी की बात सुन रामनाथ जी चिंता मुक्त हो गए ।

कुछ दिन तो सब ठीक चलता रहा.. फिर धीरे धीरे राधा और उसके पति दोनों के व्यवहार में कटुता आने लगी..जब तब राधा रामनाथ जी को सुनाती..पता नहीं लोग बेटियों के घर कैसे महीनों गुजार लेते हैं.. आज तक तो हम पढ़ते आए थे कि लोग बेटी के घर का पानी तक पीना पाप समझते हैं.. कभी कभी चाय नाश्ते का समय पार हो जाता, पर कोई गुन सुन न दिखती उन्हें..कभी कभी झिड़क कर कह भी देती.. क्या बाबूजी..हर समय बस खाने  की तरफ ही ध्यान रहता है आपका..पैसे पेड़ पर तो फलते नहीं , जो सबको बिठाकर खिलाते रहें..और आज तो हद ही हो गई.. रामनाथ जी ने जैसे ही चाय के लिए कहा , राधा तमतमाती हुई आई  , हाथ पकड़ उन्हें दरवाजे से बाहर ले आई और अन्दर से कुंडी बंद कर दिया ।

रामनाथ जी कहते रह गए.. अभी इस बंदी में मैं कहाँ जाऊँगा..तुम मुझे खिलाने के पैसे ले लेना..पर राधा का दिल न पसीजा..उसने दरवाजा न खोला..

थक हार कर रामनाथ जी वहाँ से आगे बढ़ गये..कुछ दूर जाते ही एक पुलिसकर्मी से उन्होंने अपनी व्यथा कही तो वह उन्हें एक शिविर में ले आया ..जहाँ मुसीबत में फँसे लोगों को ठहराया गया था.. रामनाथ जी की आँखें नम हो आई और वे सोचने लगे – पता नहीं, हमारी परवरिश में कौन सी कमी रह गई थी..

बेटियाँ भी उतनी ही नाज़ों से पाली जाती हैं जितने बेटे..जब बेटियाँ पिता की सम्पत्ति पर अपने अधिकार के लिए लड़ सकती हैं तो माता पिता के निर्वहन की ज़िम्मेदारी क्यों नहीं लेना चाहती..काश ! उन्हें भी अपने कर्तव्य का बोध हो..

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