का होत है लल्ला? अरे अम्मा जो तुम मैदे के लच्छे बनावत रहीन फिर गर्म पानी में डबकाय कर सुखावत रहीन वही अब कंपनी वालन प्लास्टिक में डाल कर बेचत हैं।
साथ में एक मसाला के पुड़िया भर कर बोलत हैं इ मैगी हउवे।
अरी दादा इ तो बहुते बड़ा झोल है।
अम्मा अपने पोते से बताने लगीं:
तुम तो पाँचवीं से ही नवोदय विद्यालय के हॉस्टल में रहने लगे, साल में दो चार बार आ जाते, दसवीं पास करते ही कॉलेज गए वहाँ भी हॉस्टल में रहने लगे, उसके बाद इंजीनियर बनने गए तब तो साल में एक बार ही आते थे।
तुम क्या जानोगे मैदे के लच्छे से हमने कैसे ज़िंदगी गुज़ारी है।
पाँचवीं से पहले गाँव में रहते थे तुम तब तो मैदे के लच्छे बिल्कुल भी पसंद नहीं करते थे।
वो तो भला हो ऑफिस बंद हो गए और महामारी के बहाने सबने घर से काम करना शुरू किया नहीं तो तुम अभी भी कहाँ रहते मेरे साथ:
नहीं दादी ऐसी बात नहीं है.
बात तो यही है लल्ला.
काम भी तो जरुरी है न अम्मा?
तो अम्मा जरुरी नहीं है?
विजय ने कटोरे से उठा कर एक चम्मच मैगी ही खिलाया था की अम्मा ने हाथ पकड़ लिया:
बस कर लल्ला।
का हुआ अम्मा?
तुम्हारे बाबा की याद आ गई लल्ला।
गाँव में अकाल पड़ गया था, बारिश की एक बूँद भी नहीं गिरी थी।
सरकारी गाड़ियाँ रोज़ आती थी, कभी राशन बाँट कर जाती तो कभी दवाईयाँ।
तुम्हारे बाबा ने मुझे जाने से मना किया था, बोलते थे जितना हैं उतने से गुज़ारा करो बाक़ी मैं गाड़ियों से सामान उतारा करूँगा उससे जो कमाई होगी उसी से गुज़ारा करेंगे।
जब तक मुमकिन होता है तक किसी के आगे हाथ नहीं फैलाएँगे, तुम्हारे बाबा बहुत स्वाभिमानी थे।
तुम्हारे बाबा जीतना कमा कर लाते उतने में ही गुज़ारा करना पड़ता, उसी में तुम्हारे पिताजी और चाचु की पढ़ाई होती।
उसी समय बाबा ने तय किया दोनों बेटों को कुछ अच्छा बनाएँगे।
लाला की दुकान में भी सामान पुरा नहीं पड़ रहा था, कभी आटा मिलता तो कभी मैदा। उस दिन बाबा पाँच किलो मैदा ले आए, मेरे साथ मिल कर रात भर लच्छा बनाते रहे।
दिन में मैंने सुखा कर रख लिया, नमक डाल कर लच्छे को डबकाती थी और उसी को हम सब खाते।
रोज़ रोज़ मैदा खाने से तुम्हारे चाचु को क़ब्ज़ की शिकायत हो गई थी।
लेकिन करते भी क्या कभी सकरकंद को उबाल कर खाते तो कभी लच्छे को।
जब तक तुम्हारे चाचु को चलने फिरने में दिक़्क़त नहीं हुई तब तक मैंने कुछ नहीं बोला, लेकिन जब वो बिस्तर पर गिर गया तो मैं भी भावुक हो कर बाबा से लड़ने लगी। उस दिन ग़ुस्से में मैंने कुछ भी नहीं बनाया, बाबा जब वापस आए तो उन्होंने खुद से लच्छे बनाए।
मुझे मनाते हुए इसी तरह खिला रहे थे, मनाते हुए उन्होंने कहा था:
बंसी की माँ कुछ दिन की बात है।
फिर क्या होगा?
नहर की खुदाई शुरु हो गई है, नदी से पानी गाँव में लाया जाएगा, किसानों को फसल उपजाने में दिक़्क़त नहीं होगी।
आज से मैंने भी नहर खुदाई में काम करना शुरू कर दिया है।
कल से मैं सरकारी दुकान से चावल और दाल लाया करूँगा, तुम खिचड़ी बना लिया करना।
लल्ला, बहुत बूरे दिन देखे हैं हमने, ए जो तुम्हारे पिताजी मैगी खाने से ग़ुस्सा करते हैं न उसकी वजह भी यही है।
बंसी को पुराने दिन याद आ जाते हैं, चाचु तो मुश्किल से पाँच-छ: साल का रहा होगा इसलिए उसे कुछ याद नहीं।
आज तुम्हारे बाबा होते तो बड़े चाव से इस मसाला वाले लच्छे को खाते, लच्छे खाते-खाते पता नहीं कितनी यादें बताते तुम्हें।
मुकेश कुमार (अनजान लेखक)