शिकायत – डाॅ संजु झा : Moral Stories in Hindi

Moral Stories in Hindi : मैं डाॅक्टर उमेश जिसके पास शिकायतों का पुलिंदा भरा रहता था,वही आज शून्य आँखों से पूरे घर को निहार रहा हूँ।जिनसे मेरी शिकायतें कभी खत्म होने का नाम न लेतीं थीं,वे सभी एक-एककर मुझे छोड़कर चलीं गईं।चारों बेटियाँ अपनी ससुराल और पत्नी मेरी शिकायतें सुनते-सुनते मुक्ति पाकर ईश्वर के पास!

मेरी पत्नी नन्दिनी  बहुत बड़े घराने की और बहुत ही खुबसूरत , शोख ,चंचल थी।मैं भी किसी मायने में उससे कम नहीं था।परन्तु दोनों में एक अंतर अवश्य था।मैं पढ़ा-लिखा डाॅक्टर और नन्दिनी साधारण शिक्षित गृहिणी!इस कारण  सुपीरियाॅरिटी कांप्लेक्स में मैं हमेेशा खुद को बेहतर साबित  करने के लिए  नन्दिनी की ढेरों शिकायतें करता,जिसके कारण नन्दिनी के मन में हीन-भावना पनपने लगी।

मेरी और नन्दिनी की शादी अरेंज मैरिज थी।सबकुछ अच्छा चल रहा था,परन्तु एक बात वहम की तरह मेरे मन में बैठ गई थी कि नन्दिनी की छः बहनें हैं,भाई  नहीं है।नन्दिनी को भी केवल बेटियाँ ही होंगी।एक डाॅक्टर के नाते मुझे पता था कि  बेटे के जन्म के लिए पुरुष ही एक हद तक जिम्मेदार होते हैं,फिर भी मेरा वहम दूर नहीं होता था।सच्ची कहावत है’व्यक्ति जैसी सोच रखता है,वैसा ही परिणाम भोगता है।’

मेरे साथ भी वैसा ही हुआ। नन्दिनी एक-एककर चार बेटियों की माँ बन गई। हर बेटी के जन्म के साथ मेरी शिकायतें नन्दिनी के प्रति बढ़ती ही जा रही थीं।धीरे-धीरे मैं नन्दिनी और बच्चियों के प्रति अकड़ू और अहंकारी बनता जा रहा था।मैं नन्दिनी और बच्चियों को अक्सर बेवजह डाँट दिया करता था।नन्दिनी और बेटियाँ मुझसे सहमी-सहमी नजर आने लगीं।

नन्दिनी कई बार सहमे लहजे में विरोध करती हुई मुझसे कहती -“बेटा नहीं होने में मेरा और बेटियों का क्या दोष?”

मैं उसे डाँटते हुए कहता -” चुप रहो!मैंने नर्सिंग होम खोलने के लिए  इतनी जमीनें खरीद रखी है!एक बेटा के बिना मेरा नर्सिंग होम खोलने का सपना अधूरा ही रह गया!”

मेरे मन में कभी भी यह ख्याल नहीं आया कि बेटियों को ही डाॅक्टरी पढ़ाऊँ।बेटियों को तो मैं केवल बोझ ही समझता था।मेरी शिकायतें और रूक्ष्ण व्यवहार से नन्दिनी और बच्चियाँ आहत रहतीं।नन्दिनी की घुटन दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जा रही थी।जो व्यक्ति परिवार  का आधारस्तंभ  हो,वही पुख्ता न निकले तो विश्वास टूटना स्वाभाविक है।

नन्दिनी ने तो बेटियों को अपने दिल का टुकड़ा मान लिया था,परन्तु मैं अपने मन को तसल्ली नहीं दे पाता था।एक बेटा के बिना मेरा घर-संसार अधूरा लगता।अगर किसी ने मुझसे पूछ लिया -“डाॅक्टर साहब!आपको केवल बेटियाँ ही हैं,बेटा नहीं?”

वो दिन मेरी जिन्दगी का सबसे बुरा दिन होता।मेरे अहं और पुरुषार्थ  को गहरी चोट पहुँचती।मुझे ऐसा लगता मानो किसी ने जान-बूझकर मेरी दुखती रग पर हाथ रख दिया हो।उस दिन  घर में नन्दिनी और बेटियों के प्रति मेरी शिकायतों का रुप उग्र हो उठता।

नन्दिनी घर-गृहस्थी संभालते हुए हर वक्त इस उम्मीद में रहती कि सब ठीक हो जाएगा,परन्तु मेरा उपेक्षित  रवैया कहीं-न-कहीं चोट पहुँचकर उसे जख्म दे रहा था।उसके प्रति मेरा सकारात्मक रवैया उन जख्मों को नासूर बनने से रोक सकता था,परन्तु सच्ची कहावत है इंसान  के पास जो चीज रहती है,इंसान उसकी कद्र नहीं करता है।मैं भी नन्दिनी की ओर से बिल्कुल बेपरवाह था।

मैंने अट्ठारह वर्ष  पूरा होते-होते बेटियों की शादी आरंभ कर दी थी।नन्दिनी में तो मेरे खिलाफ  बोलने का साहस पहले से नहीं था,बेटियों को भी महसूस  होता होगा कि इस दमघोंटू वातावरण  से निकलना ही बेहतर  है।इस कारण उन्होंने भी कोई विरोध नहीं किया।मैंने एक काम अच्छा किया,मेरी चारों बेटियाँ देखने में बहुत खुबसूरत थीं,उनके लिए  मैंने गुणवान और धनवान  लड़का खोजा।आज मेरी चारों बेटियाँ अपने घरों में खुश हैं।तीनों बेटियों की शादी तो मैंने मात्र अट्ठारह वर्ष में कर दी थी,परन्तु छोटी बेटी ने मेरा विरोध करते हुए  माँ से कहा था -” माँ!मैं बिना स्नातक की डिग्री लिए हुए  शादी नहीं करुँगी।”

पत्नी ने डरते-डरते मुझे छोटी बेटी की इच्छा बताई। मैं आखिर उसका पिता था और कोई इतनी बड़ी बात भी नहीं थी कि नहीं मानी जाएँ।मैंने  ग्रेजुएशन के बाद उसकी शादी तय कर दी।

नन्दिनी के लिए पति-पत्नी का रिश्ता पूजा की तरह था और मैं उसे केवल दिखावा मात्र समझता था।नन्दिनी  को उम्मीद थी कि  पति के भीतर रिश्तों पर जमी बर्फ कभी-न-कभी तो पिघलेगी ही और उसका तथा बच्चियों का  हृदय प्यार भरे सागर से सिक्त हो जाएगा,परन्तु मेरे निर्मम व्यवहार  और शिकायतों ने कभी प्रेम की गगरी को छलकने ही नहीं दिया।वो रीतापन का ही दंश झेलती रही।उसकी  घुटन उसके स्तनों में गाँठ का रुप ले रही थी,परन्तु नन्दिनी ने कभी इस बात की चर्चा नहीं की और न ही मैंने ही कभी उसके कुभ्हलाएँ चेहरे को देखकर उसकी बीमारी जानने की कोशिश की।

छोटी बेटी की शादी की तैयारियाँ जोरों-शोर से चल रही थी,अचानक से नन्दिनी बेहोश होकर गिर पड़ी।इतने दिनों तक जिसकी मैंने कभी कद्र नहीं की,उसको बेहोश देखकर मैं काँप उठा।डाॅक्टर होने के नाते सभी जाँच के बाद  मुझे नन्दिनी की बीमारी की गंभीरता समझ में आ गई। अचानक से मेरी सभी शिकायतें  नन्दिनी  के लिए मेरी कोमल भावनाएँ बनकर  मीठे झरने के स्त्रोतों के समान फूट पड़ीं।

मुझे नन्दिनी का जीवन  मेरी मुट्ठी से फिसलता नजर आ रहा था।आजतक मैंने नन्दिनी की परवाह नहीं की,अब मैं हर हाल में उसकी जान बचाना चाहता था।उसकी जिन्दगी मेरे लिए अनमोल बन चुकी थी।मैं नन्दिनी को इलाज के लिए  मुम्बई ले गया।वहाँ डाॅक्टर ने मुझे डाँटते हुए कहा -“डाॅ उमेश !आपको पता है न कि स्तन कैंसर का मरीज प्रारंभिक अवस्था में इलाज से ठीक हो जाता है।डाॅक्टर होने के बावजूद आपने मरीज को अन्तिम अवस्था में कैसे जाने दिया?”

अब तो मैं पश्चाताप  छोड़कर कुछ नहीं कर सकता था।चारों बेटियाँ और तीनों दामाद मेरा संबल बनकर मेरे साथ खड़े थे।मुंबई में इलाज के बाद मैं नन्दिनी को घर ले आया।डाॅक्टर ने स्पष्ट शब्दों में कह दिया था कि मरीज के पास समय बहुत कम है।अपनी बेटियों और दामाद के सहयोग से मैंने छोटी बेटी की शादी की।नन्दिनी मूक दर्शक की भाँति छोटी बेटी की शादी देखती रही। रह-रहकर उसके गालों पर ढ़ुलक आएं आँसुओं को मैं पोंछ देता,वह प्यार भरी नजरों से मेरी ओर निहारने लगती।

छोटी बेटी की शादी के बाद  सभी मेहमान घर से चले गए। तीस वर्ष की शादी-शुदा जिन्दगी में जो सुख मैं नन्दिनी को नहीं दे पाया था,वही सुख अब उसकी जिन्दगी के बचे हुए  लम्हों में देना चाहता था।मैं उसे एक पल भी अपने से ओझल नहीं होने देना चाहता था।मैंने अस्पताल से लम्बी छुट्टी ले ली थी।एक वक्त उसके खुबसूरत चेहरे को निहारना भूल गया था,अब उसके उड़े हुए बाल और बेरंग चेहरे को प्यार से एकटक देखता रहता।

आजतक नन्दिनी ने अपने विश्वास को चटकते ही देखा था,अब मेरे प्यार को देखकर मेरे सीने से लगकर बड़े वेग से उसके आँसुओं का सोता फूट पड़ा।उसके आँसुओं में भींगते हुए  मैं प्यार  की गर्माहट से ,रिश्तों की सौंधी महक से शिकायतों का पिटारा गुम कर देना चाहता था।अपने प्यार के अथाह समंदर में उसे डुबो देना चाहता था,परन्तु हाय रे!मेरी बेबसी!मैं डाॅक्टर होकर भी उसे असहनीय पीड़ा से मुक्ति नहीं दिला पा रहा था।

नन्दिनी ने मेरी शिकायतों को भूलकर अंत समय में मेरे सीने से लगकर  मुझसे वचन लेते हुए कहा -“”मैंने अपनी जिन्दगी में आपको ही अपना सर्वस्व माना है।आप वचन दो कि मेरा अन्तिम संस्कार आप ही करोगे?”

मैंने उसे वचन दे दिया।

अंतिम समय में चारों बेटियाँ और चारों दामाद ने जी-जान से नन्दिनी की सेवा की।क्या पता!उतनी सेवा बेटा-बहू भी कर पाते या नहीं!आखिर  नन्दिनी हम सब को छोड़कर चली गई। मैंने  उसे मुखाग्नि  देकर अपने अंतिम वचन का पालन किया।

आज मैं  अपने घर में नन्दिनी की यादों के सहारे पश्चाताप की आग में अकेले जल रहा हूँ।चारों बेटियों और दामाद के बुलाने पर भी नहीं जाता हूँ।कभी मेरे पास शिकायतें ही शिकायतें थीं,आज मेरे पास शिकायतें सुनने के लिए कोई नहीं है।अगर समय रहते मैं नन्दिनी की भावनाओं को समझ जाता,तो शायद आज वो मेरे पास रहती।नन्दिनी को खोने के बाद मुझे महसूस हुआ कि जीवनसाथी से बड़ा कोई अन्य साथी नहीं है।

समाप्त। 

लेखिका-डाॅ संजु झा (स्वरचित)

Leave a Comment

error: Content is Copyright protected !!