Moral Stories in Hindi : अपने जीवनकाल में ही हीरालाल जी ने अपने दोनो बेटों में उनकी रुचिनुसार कार्य बंटवारा कर दिया था।जमीदारी का कार्य उनका छोटा बेटा वीरेंद्र देख रहा था।उसमें जमीदारी के पूरे गुण थे,पूरा रुआब वाला व्यक्तित्व, आन बान शान को रखने में माहिर वीरेंद्र को जमीदारी में ही रुचि थी।अंग्रेजी शासन था सो ऊपर तक ताल मेल बिठाने और संपर्क रखने के लिये उनका बड़ा बेटा महेंद्र एकदम फिट था।महेंद्र की जमीदारी में कोई रुचि नही थी,उनकी रुचि थी राजनीति में।
महेंद्र के दो बेटे रवि और सुनील थे तो वीरेंद्र के एक बेटा इंदर तथा एक बेटी मनी थी।सब बच्चे अच्छे स्कूल में शिक्षा प्राप्त कर रहे थे।
हीरालाल जी दयालु वृति के व्यक्ति थे,जब भी अपने जमीदारी क्षेत्र में जाते तो छोटे किसानो एवम मजदूरों के लिये गाड़ी भर कपड़े लत्ते, मिठाई आदि लेकर जाते,जिन्हें पाकर सब मजदूरों के चेहरे खिल उठते।हीरालाल जी कभी अपने मे तथा अपनी रियाया में फर्क महसूस नही होने देते थे।इससे उलट उनके बेटे वीरेंद्र का स्वभाव बिल्कुल विपरीत था।वीरेंद्र को अपने पिता का रियाया से घुलना मिलना अच्छा नही लगता था।पर पिता के सामने बोलने की हिम्मत नही होती थी।ऐसा नही था कि वीरेंद्र के स्वभाव को हीरालाल जी न समझते हो,पर उनका मानना था कि समय लगेगा, वीरेंद्र के स्वभाव में सुधार हो जायेगा।
समय किसका इंतजार करता है,हीरालाल जी को पक्षाघात हो गया,उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया,अब उनकी गतिविधियां समाप्त हो गयी थी।जमीदारी का पूरा कार्य अब वीरेंद्र के हाथ मे था।उधर उनके बड़े भाई महेंद्र अपने नगर पालिका में चेयरमैन निर्वाचित हो गये थे।उन्हें वही क्षेत्र रास आता था।हीरालाल जी ने कमाई के दो हिस्सों की व्यवस्था दोनो बेटों के समक्ष कर दी थी।महेंद्र के क्षेत्र की अतिरिक्त देखभाल के एवज में वीरेंद्र को अलग से दो हजार रुपये मासिक देना निश्चित कर दिया था,जिसे महेंद्र ने सहर्ष स्वीकार कर लिया था।
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महेंद्र चूंकि चेयरमैन निर्वाचित हो गये थे तो उसकी प्रतिष्ठा काफी बढ़ गयी थी,इससे कभी कभी वीरेंद्र को लगता कि काम तो वो ही सब करता है और ये भाई मुफ्त में लाटसाहब बना फिरता है।फिर मन को तस्सली भी खुद ही दे लेता कि उसके काम के दो हजार रुपये भी तो वो ले ही रहा है।
हीरालाल जी का स्वर्गवास हो गया।पर दोनो भाई एक साथ ही रहे।बहुत बड़ी हवेली थी सो किसी प्रकार की परेशानी तो थी ही नही,काम काज को कई कई नौकर चाकर थे।अचानक अंग्रेजो ने देश को आजाद करने की घोषणा कर दी।उसके बाद देश के संविधान निर्माण की प्रक्रिया प्रारंभ हो गयी।पूरे देश मे जश्न का माहौल था।विभाजन की त्रासदी के बाद देश अपनी पटड़ी पर लौटने लगा था।एक दिन महेंद्र ने अपने छोटे भाई को बुलाकर कहा कि भाई मैंने राजनीतिक गलियारों में फुसफुसाहट सुनी है कि सरकार जमीदारी समाप्त करने की सोच रही है,मेरे विचार से हमे उसी अनुरूप अपनी व्यवस्था कर लेनी चाहिये।वीरेंद्र यह सुन बोले अरे भाई जमीदारी खत्म करने की हिम्मत किस सरकार में है, ये सब चंडूखाने की अफवाह है।महेंद्र जी ने फिर समझाया, कि वीरेंद्र इस खबर को हलके में मत लो,यह लगभग निश्चित है।
तब तो वार्तालाप समाप्त हो गया,पर वीरेंद्र की कुटिल बुद्धि अब कुछ और सोचने लगी।वीरेंद्र ने सोचा कि अब भाई से पीछा छुड़ाना सरल है।भाई जमीदारी खत्म होने के समाचार से अस्थिर चित्त है, सो वह अलग हो सकता है।आखिर वीरेंद्र ने अपने बड़े भाई महेंद्र से अलग होने का प्रस्ताव रख ही दिया।महेंद्र ने कहा कि भाई पिताजी तो हमे साथ ही रहने के पक्षधर रहे थे,अलग क्यूँ होना चाहते हो?वैसे भी मेरा तो जमीदारी चलाने का कोई अनुभव भी नही है।
भैय्या, मैं ही कौनसा अमृत पीकर आया हूँ, सब हो जायेगा, बच्चे बड़े हो गये हैं, सब अपने आप संभालेंगे।महेन्द्र समझ गये कि वीरेंद्र ने अलग होने की ठान ली है, इसलिये अब वह अलग होकर ही मानेगा, सो चुप कर गये।
आंगन के बीच मे दीवार खड़ी हो गयी,जमीदारी के गांव बट गये।महेंद्र को तो कुछ पता था ही नही सो जो वीरेंद्र ने जो हिस्सा दिया उसे महेंद्र ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।आगे चलकर महेन्द्रबाबू के बड़े बेटे रवि ने जमीदारी का काम संभाल लिया, उनका छोटा बेटा सुनील न्यायायिक परीक्षा में उत्तीर्ण हो गया और उसका ट्रेनिंग करने के पश्चात मुंसिफ मजिस्ट्रेट बनना निश्चित हो गया था।उधर जमीदारी खत्म होने की खबर से जमीनों के दाम गिर गये।जमीदार सस्ते दामों में अपने गांव के गांव बेचकर नकद राशि इकठ्ठा कर रहे थे,ऐसे माहौल में वीरेंद्र ने सस्ता देख उल्टे दो गांव और खरीद लिये, यानि वीरेंद्र ने नकदी कम कर ली।
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जमीदारी उन्मूलन कानून आखिर पास हो गया। जिसके पास जितनी जमीन खुद की काश्त में थी वही रह गयी।वीरेंद्र की आर्थिक स्थिति खराब हो गयी,उसका बेटा इंदर भी एक प्रकार से बेरोजगार ही रहा, बेटी मनी अभी अविवाहित थी।अब वीरेंद्र जब अपने भाई महेंद्र को देखता तो ईर्ष्या की आग में जल उठता।उसने सोचा था,भाई को अलग कर दूंगा तो कुछ ही समय बाद ही उसकी शर्तो पर ही उसके पास आ जायेगा, पर यहां तो स्थिति ही उलट हो गयी।मनी की शादी की चिंता उसे खाये जा रही थी।इस चिंता में भी भाई के प्रति जलन भावना तीव्र ही होती जा रही थी।
सुबह ही दरवाजे पर हुई दस्तक सुन वीरेंद्र ने घर का दरवाजा खोला तो सामने महेंद्र भाई को खड़ा पाया।आश्चर्य से देखते हुए वीरेंद्र अपने भाई को घर के अंदर ले गया।महेंद्र बोले वीरेंद्र मैंने मनी का रिश्ता तय कर दिया है,अगले माह शादी है, तैयारी करो और ये रहे एक लाख रुपये,अपनी मनी की शादी धूम धाम से होगी।वीरेंद्र भाई का मुँह देखता रह गया।उसे आज अपने विचारों पर लज्जा आयी।
मनी जिस लड़के से प्यार करने लगी थी,उससे शादी के बारे में अपने पिता को कह ही नही सकती थी।पिता के विचारों को और घर की माली हालत से वह परिचित थी,तब उसने अपने ताऊ जी से बात की।महेंद्र बाबू ने लड़के व उसके परिवार की सारी जानकारी ली और संतुष्ट होकर इस रिश्ते को पक्का कर दिया,तब जाकर वीरेंद्र को सूचना दी।
सब बातों का पता वीरेंद्र को चला तब वह भाई महेंद्र के पास गया,भर्राये गले से बोला भाई मनी की जिम्मेदारी से तो छुटकारा दे दिया, एक और बोझ उतार दे भाई।बोल ना वीरेंद्र ,कैसा बोझ,क्या चाहिये तुझे,बता तो सही।
आंगन में खड़ी इस दीवार को और गिरवा दे,भाई, अपने छोटे भाई को माफ कर दे,भैय्या।महेंद्र बाबू ने आगे बढ़कर वीरेंद्र को गले लगा लिया।
बालेश्वर गुप्ता, नोयडा
मौलिक, अप्रकाशित।