Moral Stories in Hindi : ” डॉक्टर साहब.., माँ की तबीयत…, कोई चिंता वाली बात तो नहीं है।” मनीष ने अपनी माँ की सेहत की जानकारी लेनी चाही।
” नहीं …चिंता वाली तो कोई बात नहीं है…, बस ज़रा परहेज़ रखना होगा।तेल-मसाले वाली चटपटी चीजों और मिठाइयों से उन्हें दूर रहना होगा।”
मनीष ने राहत की साँस ली।पत्नी से बोला,” मालती…, माँ के लिये सादा खाना बनाना और हाँ..,मिठाई फ़्रिज में ही रखना।उम्र हो गई लेकिन चटोरी जीभ पर अभी भी काबू नहीं है।” व्यंग्य-बाण छोड़ते हुए वह दफ़्तर चला गया और बेटे की बात सुनकर माँ राजेश्वरी देवी सन्न रह गईं।चटोरी जीभ…
राजेश्वरी जी जब आठ बरस की रहीं होंगी, तब उनकी माँ चल बसीं थीं।पिता उनकी देखभाल के लिये नई माँ ले आयें जो शुरु में तो उन्हें बहुत प्यार दी, फिर अपनी संतान होते ही उन्हें हर चीज से बेदखल करने लगीं।घर में दूध-दही रहते हुए भी वे स्वाद लेने को तरस जाती थीं।यहाँ तक कि नई माँ ने उनका स्कूल जाना भी बंद करवा दिया।
रक्षाबंधन के दिन जब उनके मामा उनसे मिलने आये तो वे मामा के सीने से लगकर रो पड़ी।उन्होंने अपने मुख से कुछ नहीं कहा लेकिन उनकी आँखों से बहते आँसुओं की अविरल धारा में उसके मामा ने सब कुछ पढ़ लिया और उन्हें अपने साथ ले आये।
मामी के तीन बच्चे थें।बढ़ती मँहगाई में वे अपने तीनों बच्चों की फ़रमाइशें पूरी नहीं कर पाती थीं, तिस पर से नन्हीं राजेश्वरी का आगमन उन्हें एक नया बोझ लगने लगा।यहाँ पर उन्हें खाना, कपड़ा तो मिला लेकिन मुँह के स्वाद से तो वंचित ही रहीं।ममेरे भाई-बहनों को कभी-कभी मिठाई-दही खाते देखतीं तो उनका जी भी ललचाता था लेकिन वे मन मसोसकर रह जातीं थीं।
सत्रह की पूरी होते-होते उनके मामा ने पास के गाँव के तहसीलदार के साथ उनका विवाह करा दिया।खाता-पीता परिवार था और सभी का स्वभाव भी बहुत अच्छा था।घर में दो छोटे देवर और एक छोटी ननद थीं।बड़ी भाभी का फ़र्ज़ निभाते हुए उन्होंने तीनों का ही माँ की तरह ख्याल रखा।जिसे जो पसंद था,उस पर उन्होंने अपनी इच्छा का त्याग कर दिया।
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जब उन तीनों की गृहस्थी बस गई तब इनके बच्चे बड़े होने लगे।दूध-दही और फल बच्चे खा लें, मेरा क्या है, खाने के लिये उम्र पड़ी है..,यही सोचते-सोचते बेटी ससुराल चली गई और बेटा बहू के साथ अलग घर में गृहस्थी बसा लिया।अब बच गये दो प्राणी और दोनों की ज़िम्मेदारियों से मुक्त।अब वे सब कुछ खायेंगी जिसका अब तक किसी न किसी बहाने से त्याग करती आईं थीं।
लेकिन नियति तो कुछ और खेल रच रही थी।पति को शुगर की बीमारी हो गई।घर में आलू-चावल पकना बंद।घी-तेल का प्रयोग कम तो भला मिठाई को वो अपने घर में कैसे आने देती।पति के साथ उन्होंने भी बिना चीनी की चाय पीनी शुरु कर दी थी।
दो साल पहले पति का साथ छूट गया, फिर तो वो बिलकुल ही अकेली हो गई थी।घी-दूध सामने रखा रहता, फिर भी अकेले खाने की इच्छा नहीं होती।बिना चीनी की चाय की ऐसी आदत पड़ गयी थी चायपत्ती के साथ रखा हुआ चीनी का डिब्बा उन्होंने हमेशा के लिये वहाँ से हटा दिया था।बुढ़ापा और अकेलापन एक साथ उनपर आक्रमण कर चुका था,बीमार रहने लगी तो बेटा उन्हें अपने साथ ले आया।
अभी कुछ ही दिन तो हुए थे यहाँ रहते हुए कि डाक्टर ने एक नया फ़रमान जारी कर दिया…,ये नहीं खाना…वो नहीं खाना…।तो अब क्या मुझे हवा खाकर जीना पड़ेगा।अब तक तो संतोष था कि बुढ़ापे में ही सही, चाह तो पूरी हो जायेगी।लेकिन मुआ डाक्टर ने तो अब वो भी बंद कर दिया।हे भगवान..!
सोचते-सोचते उनकी आँख लग गई। फिर तो ऐसी सोई कि फिर कभी नहीं उठीं।सुबह तक उन्हें सोते देख बहू को कुछ शंका-सी होने लगी।नब्ज टटोलकर देखा तो….। पति से कहा कि डाक्टर ने खाने पर परहेज़ बता दिया था ना…,बस…माँजी को वही सदमा लग गया और …।चार कंधों पर सवार होकर शमशान जाती राजेश्वरी जी के बारे में कोई कभी नहीं जान पाया कि वे अपने साथ अधूरी चाह भी लेकर गई हैं।
विभा गुप्ता
स्वरचित