आंसू – मीनाक्षी सिंह : Moral stories in hindi

Moral stories in hindi  :मैं जब मथुरा में पोस्टेड थी तब रोज अपनी स्कूटी लेकर अपने विद्यालय के लिए 6:40 पर निकलती थी … रास्ते में कुछ झुग्गी बस्तियां पड़ती थी …. मेरा रोज का आना जाना था तो अपने आप ही मेरी स्कूटी वहां पहुंचते ही धीमी हो ज़ाती…. मैं ज़रूर वहां खेल रहे सभी बच्चों को देखती…. वो मैले कुचैले से कपड़े पहने वहां की औरतें ईंटों का चूल्हा बनाकर बड़ी बड़ी मोटी मोटी रोटियां सेंक रही होती….

साड़ी के झूले बंधे होते एक तरफ , उसमें य़हीं कोई 2-3 महीने के बच्चे मस्त नंगे लेटे रहते… अपने हाथ और पांव का अंगूठा चूसते रहते… दूसरी तरफ उन घरों के मर्द लोग पत्थर की सिल बनाते, उनमें लगातार प्रहार कर रहे होते… जब मैं लौट रही होती घरों की औरतें भी घर का काम निपटाकर पत्थर का काम करती नजर आती …

उनकी टूटी फूटी झोपड़ियों में टीवी भी लगे हुए थे … ज़िसे सब आँखें गड़ाकर देखते… पता नही क्यूँ मुझे उनकी दिनचर्या देखना बहुत ही अच्छा लगता… मेरा बस चलता तो मैं वही पूरे दिन उन लोगों के काम करने के तरीके को देखती… मुझे वो बस्तियां इसलिये भी आकर्षित करती थी क्युंकि मैं सोचती की इतनी गंदगी में, ना ठीक से लाईट आती, ना पानी साफ, ना साफ सुथरे कपड़े , छोटे छोटे बच्चे पसीने से तरबतर अपनी माँ के स्तनों से बन्दर के बच्चे की तरह चिपक ज़ाते ….

कहां हम लोग जूस, फल, दालें , मेवें ,घी ,दूध और भी ना जाने क्या क्या खाते हैं कि हमारा दूध बढ़े और हम बच्चे को अच्छे से पिला सके और यहां बस वहीं कच्ची पक्की रोटी खाकर इतना कामकर ये औरतें अपने बच्चों के पेट भर रही हैं… सच में माँ जैसा कोई नहीं…. मुझे रोज वहां से ज़ाते देखने की आदत शायद उन लोगों को भी हो गयी थी …

तभी तो एक दिन जब मैं छुट्टी पर थी,, स्कूल नहीं गयी तो रास्ते में मेरी स्कूटी को रोक उस बस्ती की औरत बोली…. जीजी,,, कल तुम ना आयी… तबियत तो ठीक हैं तुमायी … देखते देखते कई औरतें और उनके बच्चों भी आ गए.. सभी ने मुझे चारों तरफ से घेर लिया… उनमें से एक गुथे से बालों वाली लड़की बोली -जे मैडम जी हैं…

तभी तो इतनी गोरी गोरी लगती हैं…. मैं उसकी बात पर हंस पड़ी….दूर से उन्ही बस्ती में से एक आदमी आता हुआ बोला… मैडम जी को जाने दो… का घेर के खड़े हो… अबेर हो जायेगी…. उसने सबको साइड किया…. मैं भी चेहरे पर मुस्कान लिए सभी को हाथ हिलाकर बाय बोल आगे बढ़ गयी…

उस दिन स्कूल में पूरा दिन मैं ख़ुशी का ख़ुशी का अनुभव करती रही कि सिर्फ मैं ही उन्हे नहीं देखती वो भी मुझे आते ज़ाते देखते हैं… अब ये रोज का सिलसिला हो गया… वो लोग भी मुझे आते ज़ाते देख मुस्कुरा देते… कभी कभी नमस्ते भी बोलते और मैं भी उनका अभिवादन सहर्ष मन से स्वीकार करती….

जाड़े के दिन थे…. मैं रोज की तरह जा रही थी…. चारों तरफ कोहरा था… दूर दूर तक कुछ दिखायी नहीं दे रहा था …. मेरी स्कूटी कुछ देर आगे जाकर अपने आप बंद हो गयी… मैने काफी किक मारी पर स्टार्ट होने का नाम नहीं ले रही थी …. कि तभी सामने से दो आदमी आते हुए दिखायी दिये….

शायद मैं उन्हे पहचानती थी … अरे हां ये तो वहीं झुग्गी बस्ती के आदमी हैं… लाओ मैडम जी हम देखते हैं… पर उन्होने भी बहुत कोशिश की पर स्कूटी स्टार्ट नहीं हुई… उन्होने बोला थोड़ा आगे हमारी बस्ती के पास झोपड़ी में दुकान हैं… वैसे तो इस समय खुली नहीं होगी…. पर हमारे भईया की हैं… वो कर देंगे सही…. पता नहीं क्यूँ मैं किसी पर इतनी जल्दी भरोसा नहीं करती…. पर इतने दिनों से आते ज़ाते उन्हे देख मैंने ज्यादा नहीं सोचा… वो आदमी मेरी स्कूटी को खींचकर ले जाने लगा…. मैं भी उसके पीछे पीछे चल दी….

बस्ती के पास पहुँच सब औरतों ने मुझे हाथ पकड़ चूल्हे की आग के पास तापने के लिए बैठा लिया… मैडम जी कैसे धुआं निकल रहा तुम्हारे मुंह से…. हाथ ताप लो…. दूसरी औरत बोली…. मैडम जी जे लो चाय पी लो…..पर तुमायी जैसी नहीं होगी…. दूध ज्यादा ना हैं….. अच्छी लगे तो पी लो नहीं तो छोड़ देना…

उसके आग्रह को मैं मना ना कर पायी…. मैने पहला घूट लिया…. थी तो बिल्कुल काली और पनीली चाय पर स्वाद था … किस चीज का था पता नहीं…. सभी मुझसे बातें करती रही… सभी बच्चे मेरी तरफ आयें तो मैने अपने बैग में से बादाम का डिब्बा और टाफिय़ां निकालकर उन्हे दी….

सब अपनी माओं को देखकर मना कर रहे थे लेने से ,,पर मेरे कई बार कहने पर उन्होने ले लिया… बहुत खुश हुए बच्चे…. तब तक मेरी स्कूटी भी सही होकर आ गयी…मैं भी अब गर्माहट महसूस कर रही थी ….. मेरी कपकपाहट खत्म हो गयी थी … मैं पैसे देकर स्कूटी ले सभी को शुक्रिया कर आगे बढ़ गयी…. मन ही मन मैने सोचा वहां कई बच्चे ठंड से ठिठुर रहे थे ,, उनके लिए कल कुछ गर्म कपड़े लेती जाऊंगी ….

मैं अगली दिन कपड़े ले वहां गयी…. यह क्या वहां तो एक भी झोपड़ी नहीं थी… मैं अपनी आँखों पर विश्वास नहीं कर पा रही थी कि रातों रात सब कहां चले गए… वहां पास खड़े ठेल वाले से मैने पूछा. … अंकल ये झुग्गी वाले कहां गए ?? कल तक तो यहीं थे….

बेटा…. ये सरकारी जगह हैं…. करा ली सरकार ने खाली …. बेचारे बड़ी जल्द बाजी में आधा सामान छोड़ रोते हुए चले गए…. एक का तो बच्चा बहुत बिमार था …. बुखार से तड़प रहा था … यहीं कोई दो महीने का होगा… मैं समझ गयी उसी औरत का बच्चा होगा…. जिसने कल चाय पिलायी थी… कल भी उस बच्चे को बुखार था …..

अंकल वो कहां गए होंगे,,, आपको कुछ पता हैं??

ये खाना बदोश लोग हैं… कहां से आयें… कहां जायें कुछ नहीं पता इनका….

मैं हाथों में गर्म कपड़े लिये बस आँखों से आंसू अनवरत बहाती रही…. अब भी जाती थी उन रास्तों पर…. लेकिन उस जगह के सामने से गुजरने पर मन को एक धक्का सा लगता था ….

स्वरचित

मौलिक अप्रकाशित

मीनाक्षी सिंह

आगरा

#आँसू

 

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