Moral stories in hindi : ” तो पापा, नेक्स्ट वीक मेरी स्कूटी पक्की!” अनुभा ने अपने पापा राकेश जिंदल के गले में अपनी बाँहें डालते हुए कहा तो उसकी माँ रीमा तपाक-से बोलीं,” हर्गिज़ नहीं, पहले अठरह तो पूरी करो।एक दसवीं क्या पास कर गईं, फ़रमाइशों की लिस्ट खत्म ही नहीं होती।सुनिये जी…”
” आप ही की तो सुन रहा हूँ।” मुस्कुराते हुए राकेश पत्नी की तरफ़ देखे और बेटी को हाथ से चले जाने का इशारा किया जिसमें स्कूटी की बात का भी जवाब ‘यस’ था।
राकेश और रीमा के विवाह के पाँच बरस बाद भी जब कोई संतान नहीं हुई तो उन्होंने डाॅक्टर से परामर्श लिया।कुछ ने इंतज़ार करने को कहा तो कुछ ने इलाज करवाने की बात कही।राकेश के पिता की एक गारमेंट फ़ैक्ट्री थी जिसे राकेश ने अपनी मेहनत और लगन से बहुत ऊँचाईयों तक पहुँचाया था।बाद में उन्होंने ‘जिंदल पब्लिकेशन ‘ नाम से प्रिंटिंग प्रेस भी खोला जो आगे चलकर जिंदल परिवार की पहचान बन गई थी।धन,नाम और शोहरत को आगे बढ़ाने के लिए कोई वारिस तो चाहिए। रीमा की गोद सूनी देखकर उनके सास-ससुर कहते थें कि जहाँ ईश्वर ने हमें इतना कुछ दिया है तो हमारी बहू की गोद भी भर दे, हमारी बगिया के सूने आँगन में भी किलकारियाँ गूँजे।यही इच्छा लेकर उनके ससुर तो चल बसे लेकिन सास उसी आस में जी रहीं थीं।
दस बरस के बाद भी रीमा की कोख में अंकुर न फूटे तो राकेश की माँ ने बेटे से कहा,” बेटा, मरने से पहले मेरे कान दादी शब्द सुनना चाहते हैं।तुम दोनों एक बच्चा गोद ले लोगे तो मेरी ये इच्छा पूरी हो जायेगी।”
अगले दिन राकेश और रीमा अनाथालय के लिये निकल ही रहें थें रीमा को चक्कर आने लगे।उसे सोफ़े पर बिठाकर राकेश तुरंत अपने फ़ैमिली डाॅक्टर को फ़ोन करने लगे, तभी रीमा घबराते हुए सास को बोली,” माँ, पता नहीं क्यों जी मितला रहा है…।”
” जी मितला रहा है..!” अनुभवी सास ने बहू के चेहरे को पढ़ लिया, डाॅक्टर साहिबा ने रीमा का चेकअप करके उसकी प्रेंग्नेंसी कन्फ़र्म कर दी।फिर तो सास खुशी-से नाचने लगीं थीं।
फिर अनुभा का जन्म हुआ तो जिंदल विला का आँगन उसकी किलकारियों से गूँज उठा था।अपने नन्हें-नन्हें कदमों से चलकर जब वह अपनी तोतली बोली में दादी को ‘ताती’ और रीमा को अम्….म कहती थी तो दोनों ही भावविभोर हो उठतीं थीं।राकेश जब बेटी के मुख से पापा शब्द सुने थें तो उनका मन किया कि ये वक्त बस रुक जाये।उसके प्रथम जन्मदिन पर तो राकेश ने सभी को शानदार पार्टी दी थी।अपने स्टाफ़ के घरों में मिठाइयाँ भिजवाई थी।यही नहीं, अनाथालय के सभी बच्चों को उपहार भी दिये थें।
समय के साथ अनुभा बड़ी होने लगी।स्कूल जाने लगी।जब वह पाँचवीं कक्षा में थी, स्कूल से मिले एक प्रोजेक्ट को वह अपनी दादी के साथ बैठकर बना रही थी कि अचानक दादी के सीने में दर्द उठा।वह दौड़कर अपनी माँ को बुला लाई।राकेश भी भागे चले आयें, माँ को लेकर हाॅस्पीटल गये लेकिन तब तक तो उनकी माँ…अपने पति के पास जा चुकी थीं।
‘जिंदल विला’ का आँगन सूना हो गया था।अनु अपनी दादी की आदमकद तस्वीर के आगे रोती रहती और राकेश…वे तो कई दिनों तक यथावत अपनी माँ के कमरे में जाकर कहते,” माँ.., मैं फ़ैक्ट्री जा रहा हूँ…।”
समय अपनी गति से चलता रहा।दसवीं कक्षा पास करते ही अनुभा अपने पापा से स्कूटी की डिमांड करने लगी थी।राकेश ने ओके कह दिया था और अभी वो यही बात अपने पापा को रिमाइंड करा रही थी कि रीमा ने उसे टोक दिया।
अनुभा के जाते ही राकेश रीमा का हाथ अपने हाथों में लेते हुए बोले,” क्यों टोका-टोकी करती हो.., इसकी हँसी से ही तो हमारा घर चहकता रहता है…, कल को ब्याह कर के चली जायेगी….।” कहते हुए वे उदास हो गये, फिर बोले,” स्कूटी चलाने की उसकी इच्छा है तो उसे पूरी कर लेने दो…, यही तो उसके…।”
” बस-बस…सब समझ गई मैं।बाप बेटी की तरफ़दारी करता है और बेटी बाप की..।” तुनकते हुए वे गार्डन में चलीं गईं और राकेश फ़ैक्ट्री के लिए रवाना हो गयें।
राकेश के एक ज़रूरी मीटिंग में बिज़ी थें।उन्होंने अपनी सेकेट्री और बाहर बैठे चपरासी को सख्त हिदायत दे रखी थी कोई भी उन्हें डिस्टर्ब न करें।उसी समय उनके ऑफ़िस की घंटी बजी,फ़ोन सेक्रेट्री ने उठाया तो उधर से आवाज़ आई कि जिंदल साहब से बात करनी है।सेक्रेट्री ने आदेशानुसार मना करके रख दिया।लेकिन दो-तीन बार फ़ोन की घंटी बजने पर उठाया तो उधर से आवाज़ आई,” मैं डीएवी स्कूल का वाइस प्रिंसिपल बोल रहा हूँ।अनुभा सीढ़ियों से गिर गई है,सिटी हाॅस्पीटल में एडमिट…।सेक्रेट्री आगे न सुन सका और भागकर मीटिंग हाॅल में पहुँचकर राकेश को दुर्घटना की जानकारी दी।फिर तो राकेश हाॅस्पीटल दौड़े।रीमा उसके सीने लगकर रोने लगी, ईश्वर ने हमें एक ही तो बेटी दी है और अब उसे भी…।नहीं-नहीं..ये अन्याय मत करना प्रभु, मेरी जान ले लो लेकिन….।तभी ऑपरेशन थियेटर से डाॅक्टर बाहर निकले और राकेश के कंधे पर धीरे-से हाथ रखते हुए बोले,” आई एम साॅरी मिस्टर जिंदल, हम आपकी बेटी को नहीं बचा सके।यहाँ लाने से पहले ही काफ़ी खून बह चुका था तो….।
सुनते ही रीमा बेहोश हो गई।राकेश के लिए तो खुद को ही संभालना मुश्किल हो रहा था।भगवान का ये कैसा न्याय है? अभी तो उनकी बेटी को बहुत कुछ देखना था,उसे अपने सपनों को पूरा करना था और भगवान ने…।रीमा होश में आई तो उसके आँसू नहीं थम रहें थें।राकेश अपने आँसुओं को पोंछते हुए पत्नी को संभाल रहें थें।रीमा को लेकर घर जाने की हिम्मत उनकी नहीं हो रही थी,अनुभा बिना वह सूना घर-आँगन देखने की वे साहस नहीं जुटा पा रहें थें।
बेटी का शव लेकर घर आये।उसकी विदाई से पहले राकेश शोरुम से स्कूटी मँगवाकर बेटी को बोले,” देख अनु…तेरे वाले पिंक रंग की ही स्कूटी है।एक बार उठकर देख तो सही…, लेकिन अब अनुभा कैसे अपने पापा की बात सुनती,कैसे अपनी स्कूटी देखती….,कैसे…?एक ही झटके में तो सब खत्म हो गया था।
रीमा ने तो बेटी के चले जाने के दुख को स्वीकार कर लिया था लेकिन राकेश के लिये बेटी की जुदाई को बर्दाश्त करना बहुत कठिन था।वे बार-बार यह कहकर नींद से जग जाते थें कि काश! मै समय पर स्कूल पहुँच जाता लेकिन होनी तो होकर ही रहती है,यह बात वे अपने मन को कैसे समझाते।पंद्रह दिनों से उन्होंने अपने मुँह में अन्न का एक दाना तक न डाला था।ऑफ़िस जाना छोड़ दिया था…घर में जी नहीं लगता..तो सड़क पर निकल जाते थे।
फिर एक दिन फ़ैक्ट्री से कुछ लोग आयें और रीमा को कहने लगे कि साहब के न आने से फ़ैक्ट्री का काम रुक-सा गया है।नुकसान होने से मज़दूरों को तनख्वाह देना भी मुश्किल हो जाएगा।रीमा अपनी ज़िम्मेदारी समझती थी।उसने उन्हें आश्वासन दिया और निश्चय किया कि आज तो वह राकेश को अवश्य कहेगी कि हमारी बेटी न रही तो क्या हुआ, फ़ैक्ट्री के मजदूरों की बेटियाँ भी तो हमारी ही हैं….।तभी उसने देखा कि राकेश एक बारह साल की बच्ची का हाथ थामे चले आ रहें थें।वह चकित थी.., कुछ पूछती ,उससे पहले ही राकेश ने उन्हें बताया कि मैं तो जीवन से निराश हो गया था कि इस बच्ची को सड़क के किनारे रोते देखा।रीमा, मैंने अपनी बेटी को खोया है लेकिन इसने तो अपने माता-पिता को।अब मैं इसका पापा और ये मेरी बेटी सुकन्या।
कई दिनों के बाद रीमा ने अपने पति के चेहरे पर मुस्कराहट देखी थी।सुकन्या के आने से उनका सूना घर फिर से महकने-चहकने लगा।राकेश पहले की तरह ऑफ़िस जाने लगे और अनुभा के स्कूल में ही सुकन्या का दाखिला हो गया।
राकेश के पास धन और स्नेह की कमी तो थी नहीं, इसीलिए सुकन्या की तरह ही वे नीलू, मीनू और चंदा को भी अपने घर ले आयें।अब तो उनके घर-आँगन की रौनक देखते बनती थी।
एक दिन सुबह की सैर करते हुए राकेश की मुलाकात पुराने मित्र कौशल अग्रवाल से होती है।कॉलेज़ के दोनों दोस्त टहलते हुए एक-दूसरे का हाल-चाल पूछते हैं।कौशल बताते हैं कि दोनों बेटों ने अपनी-अपनी गृहस्थी बसा ली है।रह गयें हम पति-पत्नी और हमारा घर-आँगन।तुम बताओ, तुम्हारी बिटिया भी तो अब सयानी हो गयी होगी।
जवाब में राकेश धीरे-से ‘हाँ’ बोले और अपने घर चले आये।कुछ दिनों के बाद राकेश ने उन्हें अपने घर चाय पर बुलाये।कौशल और उनकी पत्नी ने जब दीवार पर माला पहने अनु की तस्वीर देखी तो दंग रह गये।नम आँखों से उन्होंने पूछा कि ये सब कैसे…?
चाय पीते- पीते राकेश ने उन्हें सारी बात बताईं और अपने आँगन की नन्हीं कलियों से मिलाया तो कौशल की पत्नी बोली,” भाई साहब…, आपने तो हमारे जीवन को एक नई दिशा दे दी है।फूल किसी भी डाली का हो,अपनी खुशबू से पूरे आँगन को महकाता है।” फिर दोनों के कदम अनाथालय की ओर बढ़ गये।
विभा गुप्ता
#घर-आँगन स्वरचित
परिवार का एक भी सदस्य हमसे दूर चला जाये तो हमारा घर- आँगन सूना हो जाता है।उनकी कमी तो कोई पूरी नहीं कर सकता है लेकिन हमारे आसपास कई ऐसे भी लोग हैं जो घर-आँगन के सुख से वंचित रहते हैं। कहानी के पात्र राकेश और सुकन्या ऐसे ही थें,आधे-अधूरे।लेकिन एक-दूसरे का साथ पाकर दोनों पूरे हो गयें।दोनों का जीवन खुशियों से भर गया।