नेमप्लेट – डॉ. पारुल अग्रवाल

कल आकाश और सिया की शादी की पांचवी सालगिरह है। पांचवी है इसलिए आकाश ने इसको थोड़ा अलग तरह से मनाने की सोची है। उसने सिया को उपहार में एक फ्लैट देने की सोची है जिसके पेपर्स पर सिर्फ उसका ही नाम होगा हालांकि ये घर आकाश और सिया दोनों की खून-पसीने की कमाई का था पर सिया को सप्राइज देने के लिए आकाश ने दोनों की कमाई का कुछ हिस्सा इस घर के लिए बचाना शुरू कर दिया था।

ये अलग बात थी की सिया ने भी आकाश से इन बचत के पैसों के विषय में कभी ज्यादा पूछताछ नहीं की थी। दोनों का एक दूसरे के प्रति यही विश्वास उनके रिश्ते को और भी प्रगाढ़ बना रहा है। 

अभी अभी जिस बिल्डर से उसने ये घर लिया है उसका भी फोन आ गया है कल मकान की रजिस्ट्री भी हो जायेगी फिर ये घर विधिवत रूप से सिया के नाम हो जायेगा। आकाश आज बहुत खुश था क्योंकि सिया के नाम घर होने से कहीं ना कहीं वो अपनी मृत मां की आत्मा को भी शांति दे पाएगा। ये सब सोचते-सोचते आकाश अपने अतीत की यादों में खो गया। 

वो अपने बचपन के उन दिनों में पहुंच गया जब उसके परिवार में वो,उससे पांच साल बड़ी उसकी बहन और उसके माता पिता थे। पिताजी सरकारी विभाग में क्लास वन ऑफिसर थे। उनके अंदर अपने पद का घमंड और रोब कूट कूट कर भरा था। उनके इस घमंड की वजह से घर के माहौल में एक तनाव और भय हमेशा व्याप्त रहता था।

अपने काम के बाद वो अपने दोस्तों में उठने बैठने चले जाते और देर रात तक ही वापिस आते। घर की जिम्मेदारियों से उनका दूर-दूर तक कोई सरोकार नहीं था। दोनों भाई-बहन के स्कूल से लेकर हारी बीमारी तक सारा ज़िम्मा मां का था। घर में प्यार से बात करना तो जैसे पिताजी के अधिकार क्षेत्र में ही नहीं आता था। 

मां सुबह से उठकर काम में लगी रहती अगर पिताजी के किसी भी काम में एक मिनट की भी देर हो जाती तो पिताजी के मुंह से गाली की बौछार शुरू हो जाती। वो बात-बात पर उनको ये तेरे बाप का घर नहीं है,मेरा घर है यहां की घड़ी की सुइयां भी मेरे हिसाब से चलेंगी जैसे शब्दों से उनको जली कुटी सुनाया करते।

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मां बेचारी चुपचाप सुनते काम में लगी रहती बस जब दुखी होती तो इतना ही कहती कि बड़े होने तक मायके में यही सुनती रही कि ये तुम्हारा घर नहीं है,ससुराल आई तो भी बात बात पर यही सुनती हूं काश एक लड़की को भी सारे अधिकार बराबर दिए जाते। काश उसके नाम की भी एक नेमप्लेट घर पर लगाई जाए।

उनकी ये सब बातें कहीं ना कहीं आकाश के दिल को भेद जाती और उसको लगता कि नौकरी लगते ही वो सबसे पहले एक घर अपनी मां के नाम खरीदेगा जहां सिर्फ उसके नाम की तख्ती होगी। यही सब बातें आकाश को उसके इंजीनियर बनने के सपने को जल्द से जल्द पूरा करने को प्रेरित करती। 

ज़िंदगी ऐसे ही चल रही थी कि अभी शायद पिताजी के घमंड को एक ठेस लगनी बाकी थी। हुआ ये कि वैसे तो पिताजी को परिवार और बच्चों से कोई विशेष लगाव नहीं था पर समाज में उनका रुतबा कायम रह सके इसलिए वो दीदी के लिए अपने ही तरह के घर परिवार में रिश्ता ढूंढ रहे थे।

एक दिन उन्होंने लड़के वालों को दीदी की इच्छा के विरुद्ध घर पर रिश्ते की बात करने के लिए घर भी बुला लिया था पर दीदी भी उस समय अपने साथ नौकरी करने वाले लड़के को मिलवाने के लिए घर ले आई थी।

पिताजी के बुलाए लड़के वाले तो ये देखकर उठ कर चले गए थे पर पिताजी ने मां और दीदी को बहुत बुरा-भला बोला था। दीदी भी चुप रहने वाली नहीं थी उन्होंने स्पष्ट शब्दों में बोल दिया था कि हर लड़की की इच्छा होती है कि वो मां जैसी बने पर मैं अपनी मां जैसी नहीं बनना चाहती जो आप जैसे आदमी के अत्याचार चुपचाप सह गई।

मैं बात-बात पर अपने घर जाने की धमकी नहीं सुनना चाहती इसलिए मैंने अपनी पसंद का लड़का चुन लिया है आप लोगों का आर्शीवाद चाहती हूं इसलिए अपनी शादी अपने पसंद के लड़के से आप लोगो की सहमति से करना चाहती हूं।

पिताजी के घमंड को पहली चुनौती मिल गई थी पर समाज में अपनी साख बचाने के लिए उनको दीदी की शादी उसके अनुसार करनी पड़ी। दीदी को शादी के बाद पिताजी का व्यवहार मां के साथ और भी रूखा हो गया था क्योंकि उनको इन सबके पीछे मां का हाथ नज़र आता था।

पर मां के मन में कहीं ना कहीं संतोष था कि उनकी बेटी अपने पैरों पर खड़ी है और अपनी दुनिया में खुश रहेगी। पिता जी की उम्र बढ़ने के साथ उनकी शराब पीने की आदत और भी बढ़ गई थी।

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एक दिन उनको पक्षाघात का ऐसा दौरा पड़ा कि वो हर काम के लिए मां पर मोहताज हो गए। जिन लोगों के साथ उनकी मदिरा पान की महफ़िल जमती थी वो तो उनको देखने भी नहीं आए। मां ने अपना पत्नी धर्म निभाते हुए पिताजी का बहुत ख्याल रखा।

पिताजी का सारा पुरषोचित घमंड टूट गया था,उनको उनकी करनी का फल मिल गया था पर तब तक काफ़ी देर हो गई थी। बिस्तर पर पड़े पड़े पिताजी को एक साल बीत गया था और एक दिन वो मां से टूटे-फूटे शब्दों में कुछ कहने की कोशिश करते हुए हाथ जोड़कर इस संसार से विदा हो गए। आकाश की भी नौकरी एक बड़ी कंपनी में लग चुकी थी।

अब मां के जीवन में नीरवता सी आ गई थी। मां ने बस अपनी आखों के सामने आकाश की शादी देखने की इच्छा जताई बस तब आकाश के साथ काम करने वाली मासूम सी सिया जिसने बचपन में ही अपने माता-पिता को खो दिया था उसकी संगिनी बनकर उनका घर संसार सजाने आ गई।

मां ने बहुत प्यार से सिया को अपनाया था। सिया ने भी मां को अपना बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। एक दिन रात को मां ने आकाश को बुलाया और बोला कि बेटा बस मैं तेरे से एक वायदा लेना चाहती हूं कि तू सिया को सही मायने में अपनी अर्द्धांगिनी मानेगा और कभी गुस्से में भी उसको अपने घर का ताना नहीं मारेगा।

आकाश ने भी मां को हर तरह से आश्वस्त करते हुए बोला था कि मां मेरे अंदर आपके दिए संस्कार हैं और भविष्य में भी मैं इनका पालन करूंगा। उस रात शायद मां निश्चित होकर ऐसी सोई कि फिर सुबह का सूरज ही ना देख पाई।

बहन को पता चला तो वो भी आई,आकाश में भाई का फर्ज़ निभाते हुए पिता के घर का भी आधा हिस्सा बहन के नाम कर दिया। आकाश को बस ये अफसोस रहा कि जीते जी वो मां के नाम एक घर नहीं खरीद पाया पर फिर भी उसने अपने पैतृक घर जो उसके हिस्से में आधा आया था उसकी मरम्मत करवाकर अपनी मां की नेमप्लेट लगवाई थी।

मां के जाने के बाद सिया आकाश के साथ-साथ कदम से कदम मिलाकर खड़ी रही पर वो भी मां से किया अपना वायदा नहीं भूला था इसलिए उसने चुपचाप सिया के नाम एक अच्छी सोसायटी में घर बुक करा दिया था। आज वो घर तैयार था।

अभी वो अपने यादों के भंवर में गोते लगा ही रहा था कि सिया ने आकर उसको शादी की पांचवी सालगिरह की बधाई एक सुंदर सी घड़ी पहनाकर दी। आकाश ने उसमें समय देखा तो बारह बज चुके थे। फिर आकाश ने कहा कि सुबह पहले मंदिर जायेंगे फिर वो उसको एक खास जगह ले जाएगा। 

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सुबह मंदिर के बाद आकाश सिया को लेकर एक सुंदर सी सोसायटी में पहुंचा।वहां एक सुंदर से फ्लैट के सामने पहुंचकर उसने सिया को एक चाभी पकड़ाई और कहा कि ये है तुम्हारा सपनों का घर और पीछे मोबाइल से गाना चला दिया ये तेरा घर,ये मेरा घर। सिया को तो जैसे अपनी आंखों पर भरोसा ही नहीं हुआ।

उस घर के बाहर सुंदर सी नेमप्लेट पर सिया का नाम भी लिखा था।तब आकाश ने चुटकी बजाते हुए कहां खो गई मैडम, अब आप इस घर की अकेली मालिक हो और कभी मेरे से कोई गुस्ताखी हो जाए तो आप मेरे को भी घर से निकाल सकती हो। आकाश हंसते-मुस्कुराते सिया और आकाश ने गृहप्रवेश किया। 

दोस्तों कैसी लगी मेरी कहानी?अपनी प्रतिक्रिया अवश्य दें।अगर सबकी सोच आकाश जैसी हो जाए तो शायद फिर किसी भी लड़की को अपने घर का ताना ना सुनना पड़े।आज की पीढ़ी के लड़के फिर भी पुरुषोचित घमंड से थोड़ा दूर हो रहे हैं। थोड़ा सोच बदल रही है पर अभी भी काफ़ी बदलाव आना बाकी है।

#घमंड

डॉ. पारुल अग्रवाल,

नोएडा

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1 thought on “नेमप्लेट – डॉ. पारुल अग्रवाल”

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति है इसके लिए आपको धन्यवाद देता हूं।

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