उसके हिस्से का पुरूष – डॉ पुष्पा सक्सेना

”सुप्रिया आई है………….।“ गूँज बनकर बात पूरे आफिस में फैल गई थीं। सभी उसे देखने, उससे बात करने को उत्सुक थे। अधिकांश के हृदय में भारी उत्कंठा थी- देखें उसकी प्रतिक्रिया क्या है? पत्नी की तरह ढाढ़ें मारके रोएगी, प्रेमिका की तरह रूमाल में सिसकी पोंछेगी या स्तब्ध रह जाएगी। सुप्रिया और मानस का प्रेम खुली पुस्तक की तरह था। अपने सम्बन्धों को न उन्होंने कोई नाम दिया न छिपाया। जिसने जैसा चाहा सोचा, अपनी दृष्टि से देखा और उनके अनाम रिश्ते को अपना नाम दे डाला। दोनों की इस सबसे निर्लिप्तता, सबको अधिक कष्ट देती थी। एक पुत्र के पिता मानस का सुप्रिया से प्रेम सबे आक्रोश का कारण था।

निहायत अन्तर्मुखी मानस के विषय में लोग बहुत कम जानते थे। वही मानस सुप्रिया के साथ इतना घनिष्ठ कैसे हो गया, सबके आश्चर्य का विषय था। कार्यालय का पुस्तकालय मानस का दायित्व था। बच्चे की तरह इसे उसने सहेजा-सॅंवारा था। अपनी मेहनत और मेधा से पुस्तकालय में कम्प्यूटरी सुविधाएँ उसने जिस शीघ्रता से उपलब्ध कराई कि सब विस्मित हो देखते रह गए थे। सुप्रिया के आने के पूर्व मानस का अधिकांश समय पुस्तकालय में ही बीतता था।

अस्पताल से मानस का शव उसके घर ले जाया गया था। कार्यालय के बहुत-से लोग मातमपुर्सी को पहुंच चुके थे। गाड़ी से मानस का नश्वर शरीर उतारा जा रहा था। पत्नी गंगा स्तब्ध देख रही थी मानो वह त्रासदी किसी और के साथ घटी थी। बेटे को किसी पड़ोसी के घर भेज दिया गया था। घर में मानस के परिवारजनों के पते खोजने के लिए डायरी की खोज हो रही थी। मिसेज भल्ला को मानस के कागज, फाइलें छूते देख गंगा ने अपरिचित आवाज में कहा था,

 ”वह नाराज होंगे, उनकी कोई चीज छूना मना है। क्या चाहिए आपको?“

किसी ने समझाना चाहा था- ”घरवालों को खबर की जानी है, उनके पते चाहिए, वही खोज रहे हैं। आप परेशान न हों, हम उनकी डायरी देख रहे हैं।“

”नहीं, नहीं, वो हम पर नाराज होंगे, उनकी डायरी नही छूनी है किसी को।“ गंगा के स्वर में मानो आतंक था।

गीता जी ने फिर प्रयास किया था-”ठीक है, हमें डायरी नहीं चाहिए, पर उनके परिवारजनों का पता तो बता दीजिए, उन्हें बुलाना जरूरी है न।“

”किसी को नहीं बुलाना है, कोई नहीं है उनका।“ गंगा जैसे अपने आपमें नहीं थी।

”देखिए, आप इस समय दुख में हमारी बात समझ नहीं पा रही हैं। आपका बेटा अभी बहुत छोटा है। इस मौके पर उनके परिवार से किसी का होना बहुत जरूरी है।“ नागेश्वर जी ने गंगा को समझाना चाहा।

“कहा न उनका कोई नहीं है।” गंगा अडिग थी। आफिस के लोग इसी स्थिति के लिए कतई तैयार नहीं थे। शायद अतिशय दुख ने गंगा को विक्षिप्त-सा कर दिया था। हार कर मानस के सात वर्षीय पुत्र से पूछा गया था-




 ”मुन्ना, तुम्हारे पापा का घर कहाँ है? उनका पता कहाँ रखा है, जानते हो?“

”पापा का घर कहीं नहीं है, माँ कहती है, पापा तो नाना के घर रहते थे न।“ नन्हें बालक के उत्तर से कुछ आशा जागी थी।

”हाँ-हाँ मुन्ना, अपने नाना के घर का पता जानते हो? कहाँ रहते हैं नानाजी?“ चंद्रनाथ जी आगे बढ़ आए थे।

”कल नाना की चिट्ठी आई है, हमें ढेर-सी चीजें जाएँगे नाना। दिखाऊं उनकी चिट्ठी?“ कुछ ही पलों में घर से नाना का पत्र ले आया था मुन्ना। अपने लिए लाई जाने वाली सामग्री की लम्बी लिस्ट दिखाता, नन्हा बालक कितना उत्साहित था! लिफाफे पर नाना का पता, ।गांव सब लिखा हुआ था।

थोड़ी ही देर बाद मानस के श्वसुर को उसकी एक्सीडेंट में मृत्यु की सूचना का तार भेजा जा चुका था। उतनी दूर से अंतिम संस्कार के समय तक उनका पहुंच पाना कठिन था। निर्णय गंगा ने ही लिया था- ”जो सब बंधन तोड़ गया, उसके लिए किसी की प्रतीक्षा क्यों?“

वस्तु स्थिति से सर्वथा निरपेक्ष गंगा न रोई न चिल्लाई, शायद गहरे सदमे से उसे उबारने के लिए किसी ने डॉक्टर बुला लिया था  ”एक भी आँसू नहीं गिराया है डाक्टर, गहरा आघात पहुंचा है इन्हें।“ एक पड़ोसिन ने कहना चाहा था।

”कुछ नहीं होगा मुझे डाक्टर, बहुत प्यार किया है जिंदगी ने मुझसे।“ शांत स्वर में अपनी बात कह, गंगा शून्य में निहारती रह गई थी। निरूपाय डाक्टर चले गए थे।

पड़ोस की स्त्रियाँ रोने का उपक्रम करती रहीं, पर गंगा निर्विकार बैठी मानस की अंतिम क्रियाएँ सम्पन्न होती देखती रही। लोग फुसफुसा रहे थे- ”उम्र ही क्या थी बेचारी की! कैसे काटेगी पहाड़-सी जिंदगी! ।बेटा तो अभी नादान है!“

कुछ दबी-दबी बातें उभर रही थीं- ”कौन-सा सुख जाना है! कच्ची उम्र से ही सौत का दुख भोग रही है।“

मानस का अंतिम संस्कार कौन करेगा? क्या नियम-विधान है? अचानक मानस के जाति-बंधु और कुछ परिचित वहाँ से खिसक लिए थे। जो व्यक्ति उन्हें बुलाने गया, उसे अप्रत्याशित उत्तर मिला था, ”मानस जाति से वहिष्कृत है, हम उसके दाह-संस्कार में सम्मिलित नहीं हो सकते।“

”पर इस समय तो सारे भेद-भाव भुलाकर आपको हमारी मदद करनी चाहिए।“

”तुम हमारे आचार-विचार नहीं जानते, इसलिए ऐसा कह कहते हो। हमें अपने बच्चों का भविष्य देखना है। हम बिरादरी से बाहर की बात नहीं करेंगे। हमें क्षमा करो भइया!“ हाथ जोड़ उन्होंने द्वार बन्द कर लिए थे।

अन्ततः आफिस के लोगों ने नन्हे बेटे का हाथ छुआ, मानस के शरीर को अग्नि को समर्पित कर दिय था।

”हाय रे नन्ही-सी जान को ये दिन भी देखना था!“ स्त्रियाँ संवेदना जता रही थीं। पर गंगा तो प्रस्तर-प्रतिमा बन गई थी।

दो दिन बाद पहुँचे वृद्ध पिता को देख सब सहम गए थे- ”बुढ़ापा खराब हो गया बेचारे का!“




बेटी गंगा की ओर ताकते पिता के चेहरे की झुर्रियाँ और गहरी हो गई थीं। ”हे भगवान्, क्या सोचा क्या हुआ!“

”चिन्ता न करें, आपकी बेटी को आफिस में नौकरी मिल जाएगी।“

”हम सब यहाँ हैं, हम आपकी बेटी की पूरी देखरेख करेंगे।“ लोग वृद्ध पिता को सांत्वना दे रहे थे।

मानस के विभागाध्यक्ष ने हर प्रकार की सहायता का आश्वासन दिया था। मुंह नीचा किए वृद्ध सबकी सुनते रहे! कभी-कभी अश्रुपूर्ण नयन अंगोछे से पोंछ नाती को देख रो उठते। नाना उसके लिए कोई सामान नहीं लाए थे। लम्बी रेलगाड़ी की बात वह मित्रों को भी बता चुका था।

”नाना, हमें यहाँ अच्छा नहीं लगता, हम तुम्हारे साथ चलेंगे। ये लोग पापा को ले गए, नाना!“

”हाँ बेटा, हम वापिस चलेंगे।“ एक उसाँस छोड़ वृद्ध नाना मौन हो गए थे। नेत्रो के समक्ष चलचित्र सदृश रीलें घूम रही थीं।…………………….

गांव के विद्यालय के अध्यापक, पंडित जी के आकस्मिक निधन पर बेसहारा मानस को चार वर्ष की आयु से उन्होंने पाला था। सरस्वती का जितना ही अगाध भंडार पंडित जी के पास था, लक्ष्मी उतनी ही उनसे विमुख रहीं। आसपास के बच्चों को जोड़-बटोर के पंडित जी उन्हें पढ़ाते थे, वर्ना उस गाँव में शिक्षा का उतना सम्मान कहाँ था! आज तो पंडित जी के पढ़ाए बच्चों में से कुछ उच्च अधिकारी भी बन चुके हैं। मानस को जन्म देते ही पंडितानी स्वर्ग सिधार गई थीं। उस दारिद्र्य में मानस पंडित जी का रत्न था। शांत, बंद्धि-प्रदीप्त चेहरा, कंचन-सा रंग सबका मन मोह लेता था। पंडित जी के अचानक निधन पर मानस के लालन-पोषण की समस्या उठ खड़ी हुई थी। पंडित जी के दूर-दराज के रिश्तेदारों में भी मानस का दायित्व उठाने वाला कोई नहीं था। उन्ही की उंगली पकड़, मानस उनके घर आ गया था। कुछेक जाति-धर्म के ठेकेदारों ने नाक-भौं सिकोड़ीं, पर मानस का दायित्व लेने की पहल किसी ने नहीं की थी। उनकी स्नेह-छाया में मानस बड़ा होता गया।

बचपन से ही मानस सबसे अलग अन्तर्मुखी प्रकृति का था। उसकी प्रखर बुद्धि और शालीन व्यवहार ने उन्हें मुग्ध किया था। एकमात्र पुत्री गंगा के लिए उससे उपयुक्त वर और कौन होगा! बाधा उनकी जाति थी। मानस उच्चकुलीन ब्राह्मण और वे स्वयं उसके पाँव पूजने वाले यजमान। इस विराट विश्व में मानस नितान्त अकेला था, अतः विवाह के समय जाति-भेद को उठाने वाला कौन होगा? पर उनकी धारणा कितनी गलत सिद्ध हुई थी! सुपात्र मानस को अपनी कन्या देने वाले कई परिवार सामने आ गए थे। उनकी पुत्री गंगा से मानस के विवाह की बात का कड़ा विरोध किया गया था। सबकी चुनौतियों के विरोध में वह दहाड़ उठे थे-

”कहाँ गया था ये उच्च कुल का अभिमान जब उसे पालने कोई आगे नहीं आया था? आज उस पर अधिकार जमाते लाज नहीं आती?“ उनकी दहाड़ पर लोग चुप भले ही हो गए, पर दंड मानस को भुगतना पड़ा था, ये बात बहुत दिनों बाद उन्हें ज्ञात हो सकी थी। उच्चकुलीन परिवारों ने मानस को जाति  से वहिष्कृत कर दिया था।

देखने में अनिन्द्य सुंदरी गंगा का पढ़ाई में मन कभी नहीं लगा था। किसी तरह दसवीं कक्षा उत्तीर्ण कर वह घर बैठ गई थी। मानस से जब उन्होने गंगा के साथ उसके विवाह की बात की थी तो उसका मुख विवर्ण हो उठा था। पितृ-तुल्य पालक की आँखों में निराशा-आशंका गहराती देख उसने सहज-सधे स्वर में कहा था-

”आप जो आदेश दें, मुझे स्वीकार होगा।“

चाह कर भी वे पूछने का साहस नहीं कर सके थे, ‘तुम्हारा अपना मन क्या कहता है, मानस? ये स्वीकृति सिर्फ मेरी आज्ञा का पालन भर है न?’ क्या वे उसकी बात सहज ही मान गए थे? सब कुछ जानकर भी उन्होंने अपने को धोखा दिया था। गंगा जैसी अति सामान्य बुद्धि वाली लड़की भला मानस की प्रखरता झेलने योग्य थी!  संदेहों-अपवादों को झुठला उन्होंने दोनों का धूमधाम से विवाह किया था।




उन्हें लगता, विवाह के बाद मानस और ज्यादा गम्भीर होता जा रहा था। एक दिन गंगा से पूछा भी था- ”क्या बात है बेटी, मानस बहुत चुपचाप रहता है………?“

”वह तो हमेशा से ऐसे ही हैं बाबूजी, आपको व्यर्थ भ्रम हो रहा है,“ कहती गंगा हॅंस दी थी।

पता नहीं वह पगली लड़की मानस की बातें समझ भी पाती है? इसी कारण वे मानस के प्रति और अधिक उदार और स्नेही हो उठे थे। मानस के अकेलेपन का रहस्य भी उन पर ही खुला था।

”दिनेश के विवाह में तुम नहीं गए, मानस?“

”नहीं।“

”क्यों, वह तो तुम्हारा घनिष्ठ मित्र है।“

”जी।“

”फिर?“

”मैं आमंत्रित नहीं हूँ, बाबूजी।“

”क्यों?“ उनके स्वर में विस्मय भर आया था।

”दिनेश के घरवालों को मेरी उपस्थिति प्रिय नहीं है।“

तभी उन्हें याद आया था दिनेश की भतीजी के विवाह का प्रस्ताव भी तो मानस के लिए आया था। इसके बाद धीमे-धीमे उन्हें पता लगता गया, मानस के मित्र भले ही उसे सच्चे हृदय से स्वीकारें, उनके रूढ़िवादी परिवार उसे नीची दृष्टि से देखते हैं। उनका कुल उनकी तुलना में नीचा जो था। मानस की गम्भीरता उन्हें व्यथित करती, पर वे निरूपाय थे। काश गंगा मानस की पूर्णता बन पाती! उनके कार्य का प्रतिशोध लोगों ने भी मानस से लिया था। उस रूढ़िवादी समाज में मानस को कितना अपमानित होना पड़ा होगा, इस पर उन्होंने कभी ध्यान ही नहीं दिया। बेहद उदार, निर्लोभी, भोले मानस की लालची के रूप में खिल्ली तक उड़ाई जाती थी। ”रूपयों के लालच में उसने गंगा से विवाह किया“ – प्रायः लोग व्यंग्य करते रहते। इन सबके ऊपर गंगा से उसे कौन-सा मानसिक संतोष मिल पाता होगा? पिता की दुलारी, सिरचढ़ी गंगा को तो बस अच्छे वस्त्र, आभूषण और भोजन से ही मतलब रहता था। युवती गंगा का बचपना कभी-कभी उन्हें तक विचलित कर जाता था।

जब मानस एक पुत्र का पिता बना तो उसके शांत निर्विकार चेहरे को देख वृद्ध सोच में पड़ गए थे। उन आनंद के क्षणों में वैसी उदासीनता?

”क्या पुत्र के प्रति आने वाले दायित्व चिन्तित कर रहे हैं, मानस?“ वृद्ध ने विनोद करना चाहा था।

”आपके रहते कैसी चिन्ता, बाबूजी?“

”क्या नाम दोगे बेटे को?“

”जो आपको रूचिकर हो।“

”हाँ बाबूजी, इसको नाम तो आपको ही देना होगा।“ गंगा मचल उठी थी।

मानस की आहत दृष्टि पहिचान वृद्ध ने फिर कहा था- ”कोई नाम तो सोचा होगा, मानस?“

“मानस के उत्तर के पूर्व ही गंगा बोल पड़ी, न,नाम आप ही दें बाबूजी।”

“विवेकानंद कैसा रहेगा मानस?




“उतना लंबा नाम कसे पुकारूंगी,विवेक ही काफ़ी नहीं है,बाबूजी।”

मानस के उत्तर की गंगा ने तनिक भी प्रतीक्षा कहाँ की थी!

”क्यों मानस?“ उनकी प्रश्नवाचक दृष्टि मानस पर निबद्ध थी।

”ठीक है………………..।“

”पुत्र के नाम के प्रति इतनी तटस्थता क्यों, मानस? तुम्हारी इच्छा-अनिच्छा इस विषय में महत्वपूर्ण है।“

”मेरा सब कुछ तो आपका दिया है, बाबूजी! मैं अकिंचन किसी को दे ही क्या सकता हूँ-वो भी नाम जैसी चीज ……………………?“

”कैसी बातें करते हो मानस, मेरा सब कुछ तुम्हारा ही तो है।“

”जी- “ संक्षिप्त उत्तर के साथ शायद एक अवसादपूर्ण मुस्कान ओठों पर तिर आई थी।

उस दिन भी वे उसकी बात का मर्म कहाँ समझ सके थे!

”तो विवेक ही तय रहा।“

”मेरा विवेक ………….!“ गंगा ने नवजात शिशु का मुख चूम लिया था।

नन्हें-से विवेक को गोद में उठाए, उसका प्यार-दुलार करते वृद्ध जी उठे। दिन-रात नाती के प्यार-दुलार में डूबे वे और माँ गंगा, मानस को तो भुला ही बैठे थे। मानस ने जब उन्हें अपनी दूर शहर में नियुक्ति की सूचना दी तो वे चैंक उठे थे…………………….

”क्या तुम इतनी दूर जाना चाहते हो ; लेकिन क्यों? क्या यहाँ कोई कमी है, बेटा?“

”जी, कमी की बात का तो प्रश्न ही नही उठता, पर संसार का अनुभव पाने के लिए घर के बाहर भी तो जाना चाहिए, बाबूजी!“

”भगवान का दिया सब कुछ तो है, जितना चाहो घूमो-फिरो, पर तुम्हारी ये घर छोड़कर नौकरी वाली बात मेरी समझ में नहीं आती, मानस!“

”घर तो आपके पास ही रहेगा, गंगा और विवेक को आपकी आज्ञा पर ही ले जाऊंगा, बाबूजी!“ मानस उनके भय को पहिचानता था।

आश्वस्ति की श्वास ले उन्होंने नाती को सीने से लगा लिया था। ”ठीक है, अगर तुमने जाने का निर्णय ले ही लिया है, तो प्रभु तुम्हारी रक्षा करें। गंगा को बताया है?“

”गंगा को आप ही समझा लें, बाबूजी! आशीर्वाद दीजिए किसी योग्य बन सकूँ।“ पितृ-तुल्य श्वसुर की चरण-धूलि लेते मानस का भी स्वर रूद्ध हो उठा था।

मानस का जाना गंगा को अच्छा नहीं लगा था, पर पिता का लाड़-दुलार और सुख-सुविधाएँ एकाएक छोड़ पाना भी सम्भव नहीं था। मानस की सीमित आय में उन सुख-सुविधाओं की कल्पना भी व्यर्थ थी। मानस को न जाने देने की चेष्टा में उसने मनुहार भी की थी, पर मानस ने अपना निर्णय दृढ़ स्वर में सुना दिया था-

”बहुत दिन बाबूजी पर बोझ बनकर रह लिया, अब अपना और अपने परिवार का दायित्व उठाना मेरा कर्तव्य है, गंगा! मेरा सब कुछ तुम्हारा है, पर इसी सीमित आय में काम चलाना होगा। बाबूजी से और अधिक ले पाना अब मेरे लिए संभव नहीं है, गंगा!“

”क्या कह रहे हो, बाबूजी क्या पराए हैं? हमारे सिवाय उनका और है ही कौन?“ गंगा के बड़े-बड़े नयन अश्रुपूर्ण थे।

”उन्होंने जो दिया है उससे उऋण हो पाना तो असम्भव है, पर उनकी पुत्री का भरण-पोषण करने योग्य बन सकूँ, यह देख वह प्रसन्न ही होंगे।“

”छिः, ऐसा कहकर तो तुम बाबूजी का अपमान कर रहे हो। तुम जितना वेतन घर लाओगे, उतनी तो तुम्हें बाबूजी से पॉकेट मनी मिलती है। उनका सब कुछ हमारा ही तो है न?“




”हमेशा हमने बाबूजी से लिया ही तो है, गंगा! कभी मुझसे भी कुछ लेकर देखो, बहुत सुख पाओगी। मेरी सीमित आय पर तुम्हारा एकमात्र अधिकार होगा।“ मंद स्मित तैर आया था मानस के अधरों पर।

”तुम्हारी बातें मेरी समझ के बाहर हैं। यहाँ रहकर भी तो बाबूजी का हाथ बॅंटा सकते हो। क्या कष्ट है यहाँ, जो बाहर भाग रहे हो?“ गंगा झुँझला उठी थी।

”बाबूजी वट-वृक्ष हैं, उनकी छाया बहुत शीतल है, पर उसमें मैं पनप नहीं सकता, गंगा! काश, तुम मेरी बात समझ पातीं !“ हल्की-सी उसाँस छोड़ी थी मानस ने।

वृद्ध के माथे की लकीरें गहरी हो उठीं-सचमुच वह पगली कहाँ समझी थी मानस की बात? बेटी ही को क्यों अपराधी ठहराएँ -वे स्वयं भी क्या अपने मानस की थाह पा सके थे?

आज मानस की डायरी उसके विभागाध्यक्ष दे गए हैं। उसकी अलमारी खोली गई थी, व्यक्तिगत पत्रों के साथ यह डायरी भी मिली थी। अच्छा होता डायरी उन्हें न दी जाती। डायरी हाथ में आने पर उसे न खोलना उन्हें असम्भव लगा था। पहले पृष्ठ से अन्त तक वे पढ़ते गए थे……………..

”घर से इतनी दूर आना एक अनुभव है। जब से होश सॅंभाला, अपने को पराश्रित पाया है। दूसरों की दया पर पला-बढ़ा, जिसकी अपनी आशा-आकांक्षाएँ सब उधार की हैं। बाबूजी के अपार स्नेह में भी दया की करूणा नजर आती है। और मेरी पत्नी गंगा? उसका जीवन सहज-स्वाभाविक नदी-सा है- पिता और पति की कगारों के बीच निश्छल बहती धारा। पिता की उदारता मुझे देकर वह परितृप्त है। पति नामधारी मानस-जिसका सब कुछ उसके पिता के उपकारों तले दबा है। अपनी हर आवश्यकता के लिए गंगा पिता पर निर्भर है। पिता की दया पर आश्रित, मानस भी कभी उसकी आवश्यकता पूर्ण कर सकता है शायद वह यह बात सोच भी नहीं सकती।“

अन्यमनस्क वृद्ध पृष्ठ पलटते गए थे। एक पृष्ठ पर दृष्टि गड़ गई थी – ”आज उस नई लड़की ने सहायक लाइब्रेरियन के रूप में आफिस ज्वाइन किया है। कितनी डरी-डरी-सी लग रही थी! मिश्रा बता रहा था, कलकत्ता आफिस के मिस्टर दयाल की बेटी है। हार्ट अटैक में पिता की अचानक मृत्यु हो जाने के कारण उसे ये नौकरी दी गई है।“

‘सर, मैंने इसके पहले कहीं काम नहीं किया है, आपकी गाइडेंस चाहिए। मैं जल्दी ही सब सीख लूंगी ।”आत्मविश्वास से पूर्ण दृष्टि मुझ पर निबद्ध थी।

‘हाँ…………..कोई प्रॉब्लम हो तो बताइएगा। यहाँ का काम बहुत आसान है। मन लगाकर काम करेंगी तो कुछ भी कठिन नहीं लगेगा।’

‘थैक्यू सर!’ आँखों में जैसे दीप जल उठे थे।

दूसरे दिन मानो उसकी मैं प्रतीक्षा-सी कर रहा था। उसके आने से कमरा कुछ ज्यादा ही आलोकित हो उठा था।

दूसरे दिन मानो उसकी मैं प्रतीक्षा-सी कर रहा था। उसके आने से कमरा कुछ ज्यादा ही आलोकित हो उठा था।

‘सर, आप किसी अच्छी जगह रहने के लिए एक कमरा दिला सकते है? मेरी मेज के पास खड़ी सुप्रिया कुछ परेशान-सी थी।’

‘कमरा? क्यों क्या यहाँ कोई परिचित नहीं है?’

‘नहीं। माँ अक्सर बीमार रहती हैं, कलकत्ते में मौसी उन्हें सम्हाल लेती हैं। कलकत्ते में भाई की पढ़ाई चल रही है, उसे तो वहाँ रहना ही होगा। मुझ अकेली के लिए बस एक कमरा ही काफ़ी होगा।’ उदास मुस्कान बिखर आई थी सुप्रिया के शुष्क होंठों पर।

‘ठीक है, देखकर बताऊंगा। अभी कहाँ रह रही हैं?’

‘बर्किग वीमेंस होस्टेल में।’

‘फिर वहाँ क्या कष्ट है?’

‘आफिस से हॉस्टेल बहुत दूर पड़ता है न सर, आने-जाने में दो घंटे व्यर्थ चले जाते हैं। पढ़ाई के लिए समय ही नहीं मिल पाता।’




‘क्या पढ़ रही हैं आप?’

‘हिन्दी साहित्य में शोध-कार्य कर रही हूँ।’

‘विषय क्या रखा है?’

‘स्वातंत्रयोत्तर उपन्यासों में प्रेम-तत्त्व’ – विषय बताते सुप्रिया का मुख शायद आरक्त हो उठा था।

‘अच्छा हो शोध-कार्य के पूर्व पत्राचार पाठ्यक्रम की सहायता से लाइब्रेरी- साइंस की परीक्षा पास कर लें। ये डिग्री आपको ज्यादा उपयोगी रहेगी।’ न जाने क्यों स्वर रूद्ध हो उठा था।

‘जी …………..मैंने कभी नहीं सोचा था, किसी कार्यालय में नौकरी करूँगी। मैं लेक्चरर बनना चाहती थी, सर!’ सुप्रिया का स्वर उदास था।

‘जो चाहा जाए, हमेशा वह पूरा तो नहीं होता, मिस सुप्रिया!’ स्वर में तनिक आक्रोश झलक आया था।

‘एक बात कहूँ सर, आप कभी-कभी बहुत आक्रोश में लगते हैं जैसे किसी से नाराज़ हों!’

‘मैं अपने आप से नाराज़ हूँ, सुप्रिया जी, आप मेरी चिन्ता न करें।’

‘आप मुझसे इतने बड़े हैं, सर फिर मुझे ‘आप’ कहकर क्यों सम्बोधित करते हैं, सर?’

‘ये आफिस है सुप्रिया जी, यहाँ रिश्ते नहीं जोड़े जाते। पारस्परिक सौहाद्र्य बना रहे, काफी है। कुछ दिनों में यह सत्य जान जाएँगी।’

अपमान से सुप्रिया का मुंह कुम्हला गया था। क्यों, कभी-कभी मैं इतना कठोर क्यों हो उठता हूँ?

वृद्ध पिता से मिलने कोई सज्जन आए है- नाती विवेक सूचित कर खेलने भाग गया था। सावधानी से डायरी बिस्तर के नीचे रख वे बाहर चले गए थे।

मानस के सहकर्मी शोक-संवेदना प्रकट कर चले गए थे। मानस की सभी प्रशंसा कर रहे थे, उसके बिना लाइब्रेरी कितनी अपरिचित लगेगी। सबको विदा दे वृद्ध ने डायरी के पृष्ठ पलटे थे……………….

”दो दिनों से सुप्रिया नहीं आ रही है। आफिस की सहायिका कलादेवी ने बताया था…. ‘सुप्रिया दीदी तेज बुखार में पड़ी हैं। बेचारी का यहाँ कोई नहीं है। कल तो दवा हमसे मॅंगाई थी।“

‘कहाँ रहती हैं, मिस पाठक?’

उसी संध्या अपने सामने अचानक मुझे देख सुप्रिया के ज्वर से बोझिल नयन चौंक गए थे………‘सर….आप………..?’

‘कैसी हैं, सुप्रिया जी? कलादेवी ने बताया आप अस्वस्थ हैं।’

‘बस यूँ ही……….शायद मौसमी बुखार है।’

माथे पर मेरा हाथ अचानक चला गया था। न जाने कैसी ममता-सी उमड़ आयी थी उस असहाय, भीरू-सी लड़की के लिए।

‘खाने-पीने का क्या इंतजाम है? लगता है भूख-हड़ताल चल रही है। आफिस में खबर क्यों नहीं भेजी, सुप्रिया?’ स्वर में ढेर-सा स्नेह उमड़ आया था।

सुप्रिया की आँखें भर आई थीं……‘जी…..’ से अधिक वह कुछ बोल कहाँ सकी थी! माथे पर स्नेहपूर्ण हाथ धर मैं मौन सांत्वना ही तो दे सका था।

………पूरे आठ दिनों बाद आज सुप्रिया का ज्वर छूटा है। इस बीमारी में तो वह एक नन्हीं आज्ञाकारी बालिका भर रह गई थी। दवाई देने से पथ्य देने तक का दायित्व मेरा ही था। किस कदर निर्भर हो गई है सुप्रिया मुझ पर ! मेरी कही बात उसके लिए वेद-वाक्य बन जाती है। यह तो मेरे लिए सर्ववा नवीन अनुभव है, कोई मुझसे इतनी प्रत्याशा रखे ! मेरी छाया तले साँस ले! मैं अकिंचन भला किसी को क्या दे सकता हूँ? सुप्रिया है कि हर पल एहसास कराती रहती है कि उसके जीवन के लिए मैं कितना महत्त्वपूर्ण हूँ। अच्छा लगता है यह एहसास……कितनी संतुष्टि, कितनी तृप्ति- क्या इसी को पुरूष की अहं-तुष्टि कहते हैं?

डायरी पढ़ना रोक वृद्ध विचार-मग्न हो गए थे। डायरी के पृष्ठ खुलते जा रहे थे……..

”हर पल ये एहसास गहराता जा रहा है कि मैं भी ‘कुछ’ हूँ। सुप्रिया के साथ जीना कितना स्वाभाविक लगता है! गंगा के साथ स्वामिनी और सेवक का-सा भाव क्यों हावी रहता था मुझ पर? सुप्रिया मेरे मन की साड़ी पहिनती है, जो रंग मुझे भाता है उसके अलावा दूसरा रंग नहीं खरीदती। मनुहार करके मेरा मनपसंद खाना बनाती है। वहाँ तो भोजन भी बाबूजी के मन का खाना पड़ता था। अपने लिए इतना आयोजन एक अनजानी पुलक भर देता है।

ये मुझे क्या होता जा रहा है, सुप्रिया के बिना शायद जीवन जी न सकूं-पर घसीटना तो पड़ेगा। गंगा और अपने पुत्र के प्रति अन्याय कर रहा हूँ मैं। कितनी नासमझ है गंगा। अपने पति को किस विश्वास पर छोड़ निश्चिंत बैठी है! उसे यहाँ आने को कितनी बार लिख चुका हूँ, पर वह यहाँ आना ही नहीं चाहती। मुझे बुला रही हैं, मैं वापिस उसके पास चला जा।ऊं। वह समझती क्यों नहीं-पति को यूँ अकेले छोड़ देना क्या ग़लत नहीं है?“

चश्मा उतार वृद्ध ने आँखें मूंद लीं। एकाध बार गंगा ने पति के पास जाने की दबे स्वर में इच्छा व्यक्त भी की थी, पर नाती के मोह ने उन्हें अन्धा बना दिया था। विवेक के साथ उनका बचपन लौट आया था। नाती और पुत्री के साथ मानस को वह भुला ही बैठे थे। गंगा को भेजा भी तब, जब सिर से पानी ऊपर आ गया था। कुछ उड़ती खबरों से वे एक क्षण को विचलित जरूर हुए थे, पर मानस पर विश्वास था, वह अन्याय कभी नहीं करेगा। अनदेखी लड़की पर बेहद क्रोध आया था उन्हें। कौन है ये सुप्रिया? मानस ने लिखा था………..




”आज सुप्रिया ने स्पष्ट कह दिया – मैं उसकी माँग में सिंदूर भले ही न डालूं, उसने अपने को मेरी पत्नी स्वीकार किया है। यह कैसे धर्म-संकट में डाल रही है सुप्रिया! गंगा को तुरंत आने का तार दे दिया है।“…….

कुछ खाली पृष्ठों के बाद लिखा था- ”गंगा के यहाँ पहुँचते हीं पड़ोसियों ने अपना पड़ोसी-धर्म निभा डाला है। दो दिन तक रो चुकने के बाद बात-बात में ताने देती है। बाबूजी ने भी कितने कठोर स्वर में कहा था,

 ‘अच्छी दुश्मनी निभाई भइया, हमारे उपकार का यही फल देना था? मैंने पहिचानने में गलती की।’

……….. गंगा को समझा-बुझाकर बाबूजी गाँव लौट गए हैं। घर आने पर गंगा कोंच-कोंच कर प्रश्न पूछती है, आस-पास कौन है, क्या है, का ध्यान भी नहीं रखती। घर का वातावरण कलहपूर्ण हो गया है। गलती न गंगा की है न मेरी… मेरी अहं को, मेरे पुरूष को मान तो सुप्रिया ने दिया है, वर्ना मैं तो सोया हुआ था।

सुप्रिया तीन माह की ट्रेनिंग के लिए दिल्ली जा रही है। कैसे रह सकूँगा उसके बिना? गंगा ने कहीं भी मेरे साथ न जाने की कसम खा ली है, उसका वश चले तो विवेक को भी मेरे पास न आने दे। मेरी हर चीज तलाशती है। कल एक छोटे-से पत्र के टुकड़े को लेकर किस कदर झगड़ा हुआ! मैंने कड़े निर्देश दिए हैं – मेरी अनुमति के बिना मेरी कोई चीज छूना सर्वथा निषिद्ध है। विवेक मेरे सामने सहमा-सहमा रहता है। कैसे समझाऊं इस नादान को ? मेरा सोया पुरूष सिर्फ सुप्रिया को पहिचानता है।

एक सप्ताह को सुप्रिया आ रही है। कल शाम की ।ट्रेन से उसे रिसीव करना है। स्कूटर के ब्रेक ठीक नहीं लगते, उसे ठीक कराना होगा।

आज दिन-भर पानी बरसता रहा। अब स्कूटर की मरम्मत सुप्रिया के आने के बाद ही कराऊंगा।“

डायरी का यही अंतिम पृष्ठ मानस के जीवन का भी अंतिम पृष्ठ था। बरसात से भीगी सड़क पर स्कूटर स्किट कर सामने लगे बिजली के खंभे से जा टकराया था। मानस का सिर पूरे वेग से खम्भे पर जा लगा था। पास के पानवाले ने गुहार मचा जब तक उसे अस्पताल पहुंचाया, सुप्रिया को रिसीव करने वाले नयन बंद हो चुके थे। स्टेशन कहाँ पहुंच सका था मानस!

कार्यालय में पहुंचते ही सुप्रिया को साथियों ने घेर लिया था। सुप्रिया विस्मित थी- कल स्टेशन पर लेने मानस क्यों नहीं पहुंचा? कहीं वह अस्वस्थ तो नहीं? मन नाना चिन्ताओं से घिरा हुआ था। जो सुना, वह अप्रत्याशित उसे जड़ बना देने को पर्याप्त था। मानस की खाली कुर्सी को एकटक निहारती सुप्रिया ने धीमे से अपनी बिंदी पोंछ पास खड़ी लड़की से कहा था-

”मुझे उनके घर जाना है, नमिता!“ पास खड़े सहकर्मियों के मध्य दबी उत्सुकता कुलबुला रही थी। कई शुभचिन्तक उसे मानस के घर तक पहुंचाने आगे बढ़ आए थे, पर सुप्रिया ने दृढ़ स्वर में कहा । ”उनका घर मेरे लिए अपरिचित नहीं, अच्छी तरह रास्ता जानती हूँ। आप लोग व्यर्थ अपना समय नष्ट न करें।“

खिसियाए चेहरों पर आक्रोश परिलक्षित था- ”देखों तो लड़की का दुस्साहस, एक तो चोरी उस पर सीना जोरी!“

सधे कदमों से मानस के घर की सीढ़ियाँ चढ़ सुप्रिया ने झुककर वृद्ध पिता के चरण छुए थे। गंगा की ओर ताक दृढ़ स्वर में सुप्रिया ने कहा था-

 ”तुम्हारी अपराधिनी मैं हूँ दीदी, जो चाहे दंड दे दो। एक ही प्रार्थना है, मेरा न्याय करते इतना जरूर याद रखना, तुम्हारा सम्मान अक्षुण्ण है, तुम सबकी सहानुभूति की पात्री हो और मैं? मैंने अपना मान-सम्मान सब कुछ खोकर जो पाया था आज उसकी राख भी शेष नहीं। क्या इससे बड़ा कोई और दंड होगा?“

सुप्रिया की सूनी दृष्टि में अपनी छाया निहारती गंगा, उसे गले से लिपटा जोर से रो पड़ी थी।

डॉ पुष्पा सक्सेना

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